स्मरण : शालीनता की प्रतीक राजनेता

Last Updated 22 Jul 2019 12:10:46 AM IST

देश की दिग्गज राजनेताओं में शुमार शीला दीक्षित के निधन के बाद जिस तरह प्रधानमंत्री से लेकर तमाम दलों के नेताओं ने उनके कामकाज के प्रति और उनके राजनीतिक शैली को लेकर उद्गार व्यक्त किया है, वह बताता है कि शीला दीक्षित ने अपनी लंबी राजनीतिक पारी में कैसी प्रतिष्ठा हासिल की थी।


स्मरण : शालीनता की प्रतीक राजनेता

उनके राजनीतिक जीवन में बहुत से योगदान हैं, लेकिन सबसे बड़ा योगदान दिल्ली का चेहरा बदलना माना जाता है। सार्वजनिक परिवहन तंत्र के रूप में दिल्ली मेट्रो के विकास के साथ उन्होंने बहुत से कामों को अंजाम दिल्ली की मौजूदा जटिल प्रशासनिक व्यवस्था के रूप में दिया।
शीला दीक्षित की राजनीति को मैं 1988 से बहुत करीब से देखता रहा हूं। वे भारत की ऐसी राजनेता हैं, जिनके साथ मिलना-जुलना तब भी सबसे सहज था जब वे प्रधानमंत्री कार्यालय में राज्यमंत्री रहीं। लेकिन उनके व्यक्तित्व की सबसे बड़ी खूबी यह रही है कि शायद ही कभी उनको किसी ने उदास या नाराज देखा हो। बुरे से बुरे दौर में भी यह प्रवृत्ति कायम रही। वे लगातार पढ़ते-लिखते रहने वाली राजनेता थीं, जो लेखकों, पत्रकारों और बुद्धिजीवियों से भी सतत संपर्क बनाए रखती थीं। हालांकि उनका राजनीतिक जीवन बहुत उतार-चढ़ाव भरा रहा और गुटबाजी की शिकार तो वे बहुत बार बनती रहीं, मगर दिल्ली में बहुत से दबाव और राजनीति के बावजूद 15 सालों तक मुख्यमंत्री बने रहना और तमाम अवरोधों के बावजूद बेहतरीन कामों को लगातार अंजाम देते रहना उनके जैसे नेता से ही संभव था। 16वीं लोक सभा की अध्यक्ष रहीं सुमित्रा महाजन ने दीक्षित को गुड गवन्रेस का प्रतीक मानते हुए कुछ साल पहले आयोजित हुए पहले राष्ट्रीय महिला जनप्रतिनिधि सम्मेलन में एक सत्र की अध्यक्षता का जिम्मा भी सौंपा था।

यह सही है कि शीला दीक्षित उत्तर प्रदेश के बड़े राजनीतिक धुरंधर पंडित उमाशंकर दीक्षित की बहू थीं। राजनीति में भले उनकी मर्जी से आई हों लेकिन काम अपने तरीके से किया। 1984 के चुनावों में कन्नौज की लोक सभा सीट से विजयी होने के बाद वे 1986 से 1989 के दौरान केंद्र सरकार में मंत्री भी रहीं। उनको संसदीय ही नहीं प्रधानमंत्री कार्यालय में राज्य मंत्री का जिम्मा मिला, जो सबसे शक्ति का केंद्र होता है। परंतु 1989 में केंद्र और उत्तर प्रदेश से कांग्रेस सत्ता से विदा हो गई तो शीला दीक्षित ने सड़क पर उतर कर महिलाओं के अत्याचारों के खिलाफ आंदोलन किया और संगठन को खड़ा करने में मदद की। करीब एक दशक तक उतार चढ़ाव और आंदोलन में ही बीते और पी.वी.नरसिंह राव के शासनकाल में एन.डी. तिवारी और अर्जुन सिंह के साथ उनको भी बगावत की राह पर उतरना पड़ा। उनके पास भाजपा या दूसरे दलों में जाने के विकल्प खुले थे किंतु वे कांग्रेस में ही बनी रहीं। 1998 में वे दिल्ली प्रदेश कांग्रेस की अध्यक्ष बनीं तो बहुत कठिन दौर में संगठन को खड़ा किया। वे लोक सभा का चुनाव हारीं लेकिन विधानसभा चुनाव में वे विजयी रहीं। उनको दिल्ली का मुख्यमंत्री बनाया गया तो इस पद पर पूरे डेढ़ दशक तक वे अपने कामकाज और बेहतर प्रबंधन के नाते ही बनी रहीं। आज जो स्थिति दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के साथ है और जिस तरह का उनका टकराव दिल्ली के उप राज्यपाल के साथ आए दिन होता रहता है, वैसी ही स्थिति  दीक्षित के साथ भी थी। पहली बार जब वे मुख्यमंत्री बनीं तो केंद्र में अटलजी प्रधानमंत्री और लालकृष्ण आडवाणी गृह मंत्री थे।
दिल्ली में मंत्रियों की संख्या सात से 10 करने के प्रस्ताव को केंद्र ने मंजूरी नहीं दी तो टकराव आरंभ हो गया। उप राज्यपाल विजय कपूर पर भी काफी आरोप लगा कि वे दिल्ली सरकार के अधिकारों में कटौती करने में लगे हैं। स्थिति यहां तक बन गई कि तत्कालीन विधानसभा अध्यक्ष चौधरी प्रेम सिंह ने विधानसभा भंग करने की बात उठा दी। मगर दीक्षित ने प्रधानमंत्री और गृह मंत्री से मिलकर स्थिति को संभाल लिया। बाद में 2002 में केंद्रीय गृह मंत्रालय के संयुक्त सचिव पीके जलाली के उस पत्र से टकराव बढ़ गया, जिसमें हिदायत दी गई थी कि दिल्ली सरकार के लिए विधायी मामलों और कराधान से जुड़ी हर चीज अब दिल्ली के राज्यपाल के माध्यम से भेजना अनिवार्य है। दीक्षित इस बार मौन नहीं रहीं। उन्होंने इस मुद्दे को पूरा तूल दिया और विधानसभा का विशेष सत्र तक बुला लिया। फिर गृहमंत्री आडवाणी को सफाई देनी पड़ी। केंद्र में कांग्रेस की सरकार बनी तो भी गृह मंत्रालय की नौकरशाही ने उनको काफी परेशान किया मगर वे रास्ता निकालती रहीं। 
यह सभी जानते हैं कि भारत की राजधानी होने के नाते दिल्ली सत्ता का केंद्र है। संसद भवन, सुप्रीम कोर्ट,  राष्ट्रपति भवन,  नार्थ ब्लॉक,  साउथ ब्लॉक और सारे जरूरी मंत्रालय और विदेशी दूतावास यहीं हैं। दिल्ली दुनिया के 20 सुपर शहरों में शामिल है। मगर यह भी सच है कि दिल्ली की 70 सदस्यों की विधानसभा और दिल्ली सरकार के पास सीमित शक्तियां है। सत्ता की असली बागडोर उप राज्यपाल के हवाले है। फिर भी दिल्ली में शीला दीक्षित सरकार ने बिजली और पानी व्यवस्था में सुधार से लेकर 2001 में ही सूचना का अधिकार देने की पहल की। 1993 में दिल्ली में नई व्यवस्था के तहत जब विधानसभा का गठन और मंत्रिमंडल का निर्माण हुआ तो भी सत्ता नौकरशाहों के हाथों से निकल कर जनप्रतिनिधियों के हाथ नहीं आ पाई। दिल्ली में उप राज्यपाल आम तौर पर सेनानिवृत्त आई.ए.एस अधिकारी रहे, जिनके नाते समस्याएं आती रहीं। इस नाते जो दिक्कतें मदनलाल खुराना,  साहिब सिंह वर्मा और सुषमा स्वराज से लेकर केजरीवाल ने झेली, वह सब शीला दीक्षित ने भी झेली थीं, मगर वे बड़ी शालीनता के साथ काम निकालती रहीं।
वे इस बात को अच्छी तरह समझ गयी थीं कि पैसे की कमी नहीं बल्कि सरकारी एजेंसियों के बीच बेहतर से काम निकाला जा सकता है। 2009 के लोक सभा चुनाव में दिल्ली में कांग्रेस सभी सातों सीटों पर जीती और 68 विधानसभा सीटों पर उसने बढ़त बनाई, लेकिन बाद में उनके ही आखिरी शासन के दौर में एक नई ताकत यानी आम आदमी पार्टी उभर कर आई, जिसने कांग्रेस का बहुत नुकसान किया। जिन्होंने 1998 के पहले की दिल्ली को देखा है और आज दिल्ली को देख रहा है उसे पता है कि दिल्ली में शीला दीक्षित ने क्या किया? दिल्ली में सरकार भले कमजोर हो लेकिन कामकाजी मुख्यमंत्री की कैसी साख और प्रतिष्ठा होती है, शीला दीक्षित की राष्ट्रीय हैसियत इसका बेहतरीन उदाहरण है।

अरविंद कु. सिंह


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment