गरीबी उन्मूलन : मानें यूपीए का योगदान

Last Updated 19 Jul 2019 04:35:24 AM IST

झूठ मूठ के मामलों को लेकर देश का नाम ऊंचा करने का दावा करती न थकने और खुद को राष्ट्रवादी कहने वाली किसी सरकार का अचानक वास्तव में देश का नाम ऊंचा कर सकने वाली किसी रिपोर्ट से सामना हो और वह उसका अनमने ढंग से भी स्वागत न कर सके, यहां तक कि उसकी चर्चा से भी असुविधा महसूस करने लग जाए तो इसे उसकी विडम्बना के अलावा क्या कहा जाए?


गरीबी उन्मूलन : मानें यूपीए का योगदान

संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) और ऑक्सफोर्ड पॉवर्टी एंड ह्यूमन इनीशियेटिव डेवलपमेंट संघ (ओपीएचआई) द्वारा पिछले दिनों जारी 2019 के वैश्विक बहुआयामी गरीबी सूचकांकों (एमपीआई) की मार्फत सामने आए उन तथ्यों को लेकर, जो गरीबी उन्मूलन में भारत को मिली अपूर्व सफलता को प्रदर्शित करते हैं, नरेन्द्र मोदी सरकार द्वारा सायास ओढ़ ली गई निर्लिप्तता इस सवाल को लगातार बड़ा करती जा रही है। यह समझने के लिए कि ये सूचकांक देश का नाम कैसे ऊंचा कर रहे हैं, इन पर उड़ती सी ही सही, एक नजर जरूरी है। इन सूचकांकों के अनुसार भारत में वर्ष 2006 से 2016 तक के दस सालों में 27 करोड़ 10 लाख लोग गरीबी की रेखा से ऊपर उठने में सफल हुए। गरीबी से निजात पाने वालों की यह संख्या अपने आप में एक रिकॉर्ड है, जिसके कारण 2005-06 में देश के गरीबी में जी रहे 64 करोड़ यानी 51.1 प्रतिशत देशवासी 2015-16 में घटकर 36.9 करोड़ यानी 27.9 प्रतिशत हो गए। इन सूचकांकों की बिना पर दुनिया में गरीबी को सबसे ज्यादा खत्म करने वाला कोई देश है, तो वह भारत ही है-बहुआयामी गरीबी के उन्मूलन में एक सौ एक देशों की सूची में वह शीर्ष पर जा पहुंचा है।

भारतवासियों के लिए इनके आईने में अपनी नाक ऊंची करने की एक वजह यह भी है कि संयुक्त राष्ट्र संघ के मानकों के अनुसार गरीब सिर्फ  वही नहीं होते, जिनकी आय बहुत कम हो। जिनकी सेहत ठीक न हो, वे भी गरीब होते हैं, जिन्हें हिंसा के साये में रहना पड़ रहा हो, वे भी। जिनकी काम करने की दशाएं बेहद खराब हों, वे तो खैर गरीब हैं ही। इसी तरह किसी का कल्याण-कार्यक्रमों से महरूम होना भी उसका गरीब होना ही है-आत्मसम्मान से जीने के लिए मूलभूत चीजों एवं सेवाओं को ग्रहण करने की अक्षमता भी गरीबी ही है। इसीलिए इन सूचकांकों के निर्धारण में गरीबी के जिन दस संकेतकों को आधार बनाया गया है, उनमें पोषण, साफ-सफाई, बाल मृत्यु दर, पेयजल, स्कूली साल, बिजली, स्कूल में उपस्थिति, आवास, कुकिंग फ्यूल और संपत्ति शामिल हैं।
ये सूचकांक सच्चे हैं तो खुशी की बात यह है कि देश ने इस दसों संकेतकों के लिहाज से गरीबी उन्मूलन में प्रगति की है। यह खुशी इस बात से और बढ़ जाती है कि इससे पहले भुखमरी, कुपोषण, स्वास्थ्य, शिक्षा और भ्रष्टाचार आदि के बारे में समय-समय पर जारी किए जाते रहे ज्यादातर वैश्विक सूचकांक उनके उन्मूलन की निराशाजनक तस्वीरें ही पेश करते रहे हैं। अब यह स्थिति बदली है और गरीबी उन्मूलन के प्रयास सफल होने लगे हैं तो महाशक्ति बनने और पांच ट्रिलियन डॉलर वाली अर्थव्यवस्था का लक्ष्य पाने जैसे सपने देख रहे भारत के लिए इससे बड़ी और क्या बात हो सकती है? लेकिन अब ये सूचकांक कह रहे हैं कि कांग्रेस की अन्य सरकारों को तो छोड़िये, जिन डॉ. मनमोहन सिंह पर प्रधानमंत्री संसद में ‘रेनकोट पहनकर नहाने’ जैसा आरोप लगा चुके हैं, उनकी सरकार के आठ सालों में भी देश ने गरीबी उन्मूलन के लिहाज से एक नम्बर का काम किया था। अब यह प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, उनके समर्थकों और सरकार की समस्या है कि वे इन सूचकांकों की बिना पर इसलिए खुश नहीं हो पा रहे कि जिन दस सालों में यह रिकार्ड गरीबी उन्मूलन हुआ है, उनमें से आठ मनमोहन के प्रधानमंत्रीकाल के हैं, जबकि मोदी राज के सिर्फ  दो साल हैं।
जाहिर है कि उनके लिए इन सूचकांकों को स्वीकारना यह मानने जैसा है कि उस मनमोहन सरकार ने भी गरीबों के लिए प्रशंसनीय काम किया। उनसे उसे यह प्रमाण-पत्र देते नहीं बन रहा इसलिए खुद तो इन सूचकांकों पर बात नहीं ही कर रहे, चाहते हैं कि कोई और भी न करे। यहां तो उनसे इतना ही जवाब अभीष्ट है कि ये सूचकांक ‘मोदी जी’ के पिछले पांच वर्षो के सत्ताकाल बारे में होते तो भी क्या उन्हें लेकर उनका यही दृष्टिकोण होता? इस सिलसिले में अपना योगदान जताने के लिए झूठ-मूठ का शोर मचाना और दूसरों के किये को लेकर व्यर्थ के मीन-मेख निकालना और जो भी हो, देशप्रेम का परिचायक तो नहीं ही हो सकता।

कृष्ण प्रताप सिंह


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