स्वास्थ्य : डॉक्टर-मरीज के बीच बढ़ता अविश्वास

Last Updated 18 Jul 2019 05:56:00 AM IST

कोलकाता के एनआरएस अस्पताल में मरीजों के परिजनों द्वारा दो जूनियर डॉक्टरों की पिटाई का मसला अभी लोग भूल भी नहीं पाए थे कि दिल्ली के हिंदू राव और एलएनजेपी अस्पताल में मरीजों के हाथों डॉक्टरों की पिटाई हो गई।


स्वास्थ्य : डॉक्टर-मरीज के बीच बढ़ता अविश्वास

कोलकाता की घटना के प्रति जैसी राष्ट्रव्यापी प्रतिक्रिया हुई, वैसी दिल्ली की दोनों घटनाओं के प्रति नहीं हुई। दोनों जगहों की घटनाओं की परिस्थितियां करीब-करीब समान होने के बावजूद ऐसा क्यों हुआ?
कोई कह सकता है कि यह राजनीति के होने या न होने अथवा उसकी कम या ज्यादा मात्रा के कारण हुआ, जबकि ये  मामले स्वास्थ्य सेवाओं की सक्षमता और डॉक्टर व मरीज के संबंधों के थे । कहने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए कि अपने देश में गुण और मात्रा, दोनों दृष्टियों से स्वास्थ्य सेवा अपेक्षा के अनुरूप नहीं हैं। भारत अपने सकल घरेलू उत्पाद का दो प्रतिशत भी स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च नहीं करता। स्वास्थ्य बजट की अपर्याप्तता को कारण कहें या परिणाम, इतना तो तय है कि भारत में स्वास्थ्य सेवा ज्यादातर निजी हाथों में केंद्रित है। इस कारण सरकारी अस्पतालों पर दबाव बढ़ता है, जो गरीब व निम्न मध्य वर्ग के मरीजों के लिए अंतिम उम्मीद हैं। लेकिन यहां मरीजों के प्रबंधन की समस्या विकट है।

दूसरी ओर मुनाफे पर आधारित निजी अस्पतालों में गरीबों का प्रवेश व्यवहार में मुश्किल है। उनके भारी-भरकम खर्च का वहन करना सबके लिए आसान नहीं होता। निजी अस्पतालों में कोई डॉक्टर और मरीज के रिश्ते में भगवान और भक्त की भावना तलाशता है, तो बाजार के कायदे-कानून की उपेक्षा कर रहा है। यहां डॉक्टर और मरीज का रिश्ता सेवा प्रदाता और ग्राहक का बनता जा रहा है। स्वार्थ पर आधारित इस रिश्ते में ‘सेवा’ की तलाश करना व्यर्थ है।  डॉक्टरों की पिटाई मसले पर सरकार के अलावा अन्य कोई पक्षकार सामने आया तो वे डॉक्टर हैं, और उनका संगठन। डॉक्टरों का संगठन इंडियन मेडिकल एसोसिएशन कोलकाता के डॉक्टरों के आंदोलन में कूद पड़ा और अपने एजेंडे को आगे बढ़ाते हुए उसने डॉक्टरों की सुरक्षा के लिए राष्ट्रीय स्तर पर विशेष कानून बनाने की मांग कर दी। हालांकि यह राज्यों का विषय है, फिर भी मोदी सरकार इसमें दिलचस्पी दिखा रही है, और उसने केंद्रीय कानून का मसौदा तैयार करने के लिए पहल कर दी है।
ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या मौजूदा कानून डॉक्टरों की सुरक्षा करने में सक्षम नहीं हैं? अगर अस्पताल या डॉक्टर ही मरीज या उसके परिजनों के खिलाफ हिंसा पर उतारू हो जाएं तो क्या इस कानून में उनके खिलाफ उसी तर्ज पर कड़ा प्रावधान होगा जो मरीज या उनके परिजनों के खिलाफ होगा? इस बात की क्या गारंटी है कि यह कानून निजी अस्पतालों को मनमानी करने के लिए सुरक्षा कवच प्रदान नहीं करेगा? अगर इस विचार को मान्यता दी गई तो क्या समाज के दूसरे वर्गीय समूह भी सरकार पर अपने हित में कानून बनाने का दबाव नहीं डाल सकते हैं? इस पूरे प्रकरण में कहीं भी आम आदमी, जो मरीज या उपभोक्ता होता है, की उपस्थिति नजर नहीं आई।
डॉक्टरों के साथ की गई मारपीट का बचाव नहीं किया जा सकता,लेकिन अच्छा होता कि इन मसलों के साथ इस अवसर का इस्तेमाल स्वास्थ्य सेवाओं की अपर्याप्तता और अक्षमता पर चर्चा के लिए भी किया जाता, चाहे वह सरकारी क्षेत्र हो या निजी। चूंकि स्वास्थ्य सुविधा अधिकतर निजी हाथों में है, इसलिए डॉक्टरों की सुरक्षा कानून का लाभ भी अधिकतर इसी क्षेत्र को मिलेगा। अगर महंगे निजी अस्पतालों की कार्यशैली संतोषजनक होती तो इस पर किसी को कोई शिकायत नहीं होती,लेकिन यहां तो निजी अस्पतालों के प्रति आम आदमी में आक्रोश बढ़ने लगा है। समस्या की जड़ में उत्तम स्वास्थ्य सुविधाओं की सर्वसुलभता का अभाव है। इसको नकारने का मतलब वास्तविक समस्या से मुंह चुराना है। इसलिए केवल डॉक्टरों की सुरक्षा कानून से बात नहीं बनने वाली है, समय की मांग है कि निजी स्वास्थ्य क्षेत्र को इस प्रकार विनियमित किया जाए कि मरीजों के हितों की भी रक्षा हो सके।इसे दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जाएगा कि सरकार ने उपभोक्ता संरक्षण संशोधन विधेयक में स्वास्थ्य सेवा को शामिल नहीं किया है। यह डॉक्टरों के संगठन की मांग के अनुरूप है। अगर इन संगठनों की प्रतिबद्धता डॉक्टरों के प्रति है, तो इसमें किसी को कोई शिकायत नहीं होनी चाहिए, लेकिन आम आदमी के वोट से बनी सरकार को तो मरीजों की चिंता करनी पड़ेगी। ऐसा न हो कि आंदोलन से आम आदमी की आवाज दब जाए। इस पर विपक्ष की खामोशी चिंता बढ़ाती है।

सत्येन्द्र प्रसाद सिंह


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