इमरजेंसी : उनकी खुदगर्जी थी

Last Updated 26 Jun 2019 06:06:58 AM IST

इंदिरा गांधी की इमरजेंसी को इस समय याद करना इसलिए बहुत जरूरी है, क्योंकि कांग्रेसी और उनके साथी उसे भूला कर अकारण और निराधार आरोप पिछले कई सालों से उछाल रहे हैं कि संविधान खतरे में है। उसे बचाना है।


इमरजेंसी : उनकी खुदगर्जी थी

इमरजेंसी ने संविधान के साथ क्या किया? क्या इंदिरा गांधी ने संविधान को बचाया? अगर उन्होंने नहीं बचाया, उसे बिगाड़ा तो बचाया किसने? यह याद करने का सबसे सही समय यही है।
इमरजेंसी से पहले ही कांग्रेस में एक ‘स्वर्ण सिंह कमेटी’ बनी थी, जो संविधान को बदलकर उसे इंदिरा गांधी की मनमर्जी का दस्तावेज बनाना चाहती थी। जब इमरजेंसी लगी और 19 महीने चली तो उस दौरान विपक्ष जेल में था। संसद में कांग्रेसी थे और कम्युनिस्ट थे। उस संसद में संविधान का चेहरा और चरित्र बदल दिया। इतने संशोधन किए कि संविधान निर्माता वह देखने के लिए जीवित रहते तो अपना माथा पीट लेते। शायद ही दुनिया के किसी संविधान में कभी ऐसा हुआ हो कि उसकी प्रस्तावना को भी बदल दिया गया हो। लेकिन इमरजेंसी में इंदिरा गांधी ने उस प्रस्तावना को बदलवाया, जिसे उनके पिता और भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू सहित संविधान सभा ने खूब सोच-विचारकर रचा था। क्या संविधान के निर्माता नहीं जानते थे कि समाजवाद क्या होता है? क्या वे सेकुलरिज्म से अपरिचित थे? वे इन दो शब्दों का अर्थ जानते थे। इनका अनर्थ भी जानते थे। इसीलिए प्रस्तावना में इन शब्दों को स्थान नहीं दिया। उसकी जरूरत ही नहीं समझी। इसलिए नहीं समझी, क्योंकि जो प्रस्तावना उनके विचार से बनी थी, उसमें इन शब्दों की आत्मा आ गई थी। अंतरात्मा की आवाज का ढोंग कर इंदिरा गांधी ने कांग्रेस तोड़ी थी। उस इंदिरा गांधी में अगर अंतरात्मा जाग्रत रहती तो वे भारत के संविधान की प्रस्तावना नहीं बदलवाती।

भारत के संविधान के जाने-माने विशेषज्ञ ग्रेनिवल आस्टीन ने अपनी पुस्तक में प्रस्तावना को ‘संविधान का मुकुट’ कहा है। उससे इंदिरा गांधी ने छेड़छाड़ की थी। केवल इतना ही नहीं था। संविधान निर्माताओं ने भारत के हर नागरिक को जितने अधिकार दिए थे, उसे संशोधन कर छीन लिया गया था। उसमें मौलिक अधिकार तो छिने ही गए थे, केवल इतना ही नहीं हुआ था। इंदिरा गांधी ने उन 19 महीनों में जीने का अधिकार भी छीन लिया था। इससे कितना बड़ा सन्नाटा फैला होगा? क्या आज इसकी कोई कल्पना कर सकता है। महात्मा गांधी ने भारत को अंग्रेजों से भयमुक्त कराया था। निर्भयता का पाठ पढ़ाया था। उस महात्मा गांधी के रास्ते पर चलने का दिखावा करने वाली कांग्रेस ने इमरजेंसी का समर्थन कर देश को भय के अंधे कुएं में रहने के लिए विवश कर दिया था। इसके लिए आज के कांग्रेसियों को उसी तरह देश से माफी मांगनी चाहिए, जैसे अंग्रेजों को जलियावाला बाग के नरसंहार पर माफी मांगने का फर्ज निभाना चाहिए। 26 जून 1975 की सुबह कैबिनेट की बैठक बुलाई गई।
उसमें इंदिरा गांधी ने अपने मंत्रिमंडल के सहयोगियों को सूचित किया कि इमरजेंसी लगाने की जरूरत आ गई है। सिर्फ  एक मंत्री ने या तो हिम्मत कर या अनजान में पूछ लिया कि इसकी जरूरत क्या थी। इंदिरा गांधी ने इसका जवाब नहीं दिया। वह बैठक सूचित करने के लिए बुलाई गई थी, परामर्श के लिए नहीं। संविधान में प्रावधान जो था, उसे पलट दिया गया था। इसकी एक कहानी है। 25 जून की सुबह इंदिरा गांधी राष्ट्रपति भवन जा रही थीं। उनके साथ सिद्धार्थ शंकर रे थे। वे इंदिरा गांधी के भरोसेमंद मित्र तो थे ही, उस समय पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री भी थे। उन्हें इंदिरा गांधी ने अपने साथ राष्ट्रपति भवन चलने के लिए इसलिए कहा होगा क्योंकि वे संविधान और कानून के बड़े ज्ञाता भी थे। इंदिरा गांधी की कार जब विजय चौक पहुंची तो अचानक उन्होंने सिद्धार्थ शंकर रे से पूछा कि मंत्रिमंडल की बैठक बिना बुलाए  इमरजेंसी कैसे लगाई जा सकती है? सिद्धार्थ शंकर रे ने संविधान और उसके प्रावधानों को समझने के लिए वक्त मांगा। शाम को उन्होंने सलाह दी। जो सलाह दी, वही इमरजेंसी को लागू करने का तरीका बना, जिसे इंदिरा गांधी ने अपनाया। सिद्धार्थ शंकर रे ने उनसे कहा था कि राष्ट्रपति अगर इमरजेंसी लगाने के प्रस्ताव पर हस्ताक्षर कर देते हैं तो बाद में मंत्रिमंडल की बैठक में उसकी पुष्टि कराकर घोषणा की जा सकती है। यही उस समय हुआ। 25 जून 1975 की देर रात में इंदिरा गांधी के निजी सचिव आर.के. धवन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद से मिले। उन्हें दबाव में लिया। अनिच्छुक राष्ट्रपति झुके। उन्होंने दस्तखत कर दिया। कहते हैं कि राष्ट्रपति बहुत पीड़ा में थे। वे हृदय रोगी तो थे ही इसलिए उन्होंने अपने डॉक्टर आर.के. करोली को अपने पास बैठाया हुआ था। सोचने और असमजंस से उबरने के लिए वे आधे घंटे से ज्यादा समय अपने गुसलखाने में गुजारा। कांग्रेस संविधान की इसी तरह रक्षा करती है।
यह सब 25 जून को ही क्यों हुआ? इसलिए कि उस दिन ऐतिहासिक रामलीला मैदान में लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने देश को आसन्न तानाशाही के खतरे से आगाह कराया था? बिल्कुल नहीं। 25 जून का दिन भारत के लोकतंत्र के लिए तब कयामत का दिन बनकर आया। कारण कि एक दिन पहले सुप्रीम कोर्ट की ग्रीष्मकालीन पीठ पर विराजमान जज वी.आर. कृष्ण अय्यर ने अपने फैसले से इलाहाबाद के निर्णय की पुष्टि की। इंदिरा गांधी के लोक सभा चुनाव को अवैध ठहराया। वे 6 साल तक चुनाव नहीं लड़ सकती थीं। हां, प्रधानमंत्री के नाते लोक सभा में जाकर बैठ सकती थीं। लेकिन सदस्य के नाते रजिस्टर पर हस्ताक्षर नहीं कर सकती थी। साफ हो गया था कि वे उसी हालत में प्रधानमंत्री पद पर बने नहीं रह सकती थीं। उन्हें इस्तीफा देना पड़ता। अपनी कुर्सी बचाने के लिए इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगाई। लोकतंत्र की हत्या की। हजारों लोगों को जेल में डाला। न जाने कितने लोगों को मौत के घाट उतारा। उस इमरजेंसी को याद कर सीखा जा सकता है कि लोकतंत्र की रक्षा जरूरी है। जो खुदगर्ज हैं वे इमरजेंसी लगा सकते हैं। जो देश से प्रेम करते हैं, वे लोगों की खुशहाली के लिए भारत के संविधान को उपकरण बनाएंगे। संविधान वास्तव में देश की खुशहाली का एक उपकरण ही है।

रामबहादुर राय


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