रक्तदान : भ्रांतियों के कारण पीछे भारतीय

Last Updated 14 Jun 2019 06:48:50 AM IST

किसी स्वस्थ व्यक्ति के रक्त की कुछ बूंदें किसी मरते हुए व्यक्ति की जान बचा सकती हैं। रक्त का कोई विकल्प नहीं है क्योंकि न इसे बनाया जा सकता है, और न ही किसी मनुष्येत्तर जीव का रक्त चढ़ाया जा सकता है।


रक्तदान : भ्रांतियों के कारण पीछे भारतीय

इसीलिए रक्तदान को महादान माना जाता है। हर दूसरे सेकेंड में दुनिया भर में कोई न कोई जिंदगी मौत से जूझ रही होती है, ऐसे में हमारा रक्तदान किसी को जीवनदान दे सकता है। मगर जागरूकता के अभाव में देश में रक्तदाताओं का आंकड़ा कुल आबादी का एक प्रतिशत भी नहीं पहुंच पाया है। बहुत सारे लोग समझते हैं कि रक्तदान से शरीर कमजोर हो जाता हैं, और उस रक्त की भरपाई होने में महीनों लग जाते हैं। गलतफहमी यह भी है कि नियमित रक्त देने से शरीर की रोग प्रतिकारक क्षमता कम हो जाती है जबकि सच्चाई बिल्कुल उलट है।
लखनऊ के केजीएमयू मेडिकल कॉलेज के पैथालॉजी विशेषज्ञ डॉ. गजेन्द्र सिंह राणा कहते हैं कि आम जन को ज्ञात होना चाहिए कि मनुष्य के शरीर में रक्त बनने की प्रक्रिया हमेशा चलती रहती है, और रक्तदान से कोई भी नुकसान नहीं होता। जो व्यक्ति नियमित रक्तदान करते हैं, उन्हें हृदय संबंधी बीमारियां कम परेशान करती हैं क्योंकि रक्तदान से खून में कोलेस्ट्रॉल जमा नहीं होता। तीसरी अहम बात है कि हमारे रक्त की संरचना ऐसी है कि उसमें समाहित लाल रक्त कणिकाएं तीन माह में स्वयं ही मर जाती हैं। यानी स्वस्थ्य व्यक्ति तीन माह में एक बार रक्तदान कर सकता है। गौरतलब है कि आधा लीटर रक्त से तीन लोगों की जान बचाई जा सकती है। लेकिन  विभिन्न मानसिक भ्रांतियों के कारण आज के अत्याधुनिक युग में भी लोग रक्तदान करने से हिचकिचाते हैं। जरूरत पड़ने पर मनुष्य को मनुष्य का रक्त खरीदना पड़ता है। विडंबना ही तो है कि दुर्घटनाओं में समय पर रक्त न मिल पाने के कारण देश में प्रति वर्ष लाखों लोग असमय मौत के मुंह में चले जाते हैं।

क्या आप जानते हैं कि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने रक्तदान को बढ़ावा देने के लिए 14 जून का ही दिन क्यों चुना गया? दरअसल, इस दिन नोबल पुरस्कार विजेता जीव विज्ञानी  कार्ल लैंडस्टाईन का जन्म हुआ था। 14 जून, 1868 को जन्मे इस आस्ट्रेलियाई वैज्ञानिक ने मानव रक्त में एग्ल्युटिनिन की मौजूदगी के आधार पर रक्तकणों का ए, बी और ओ समूह में वर्गीकरण किया था। इस महत्त्वपूर्ण खोज के लिए उन्हें 1930 में नोबल पुरस्कार दिया गया था।
इस दिवस को मनाने का उद्देश्य रक्तदान को प्रोत्साहन और उससे जुड़ी भ्रांतियों को दूर करना है। बताते चलें कि रेडक्रॉस संस्था द्वारा वर्ष 1937 में विश्व का पहला ब्लड बैंक अमेरिका में खोला गया। भारत में 1942 में कलकत्ता में भारतीय रेडक्रॉस सोसाइटी द्वारा पहला ब्लड बैंक खोला गया। 1977 में इस सोसाइटी द्वारा देश के विभिन्न राज्यों में ब्लड बैंकों का संचालन किया जाने लगा और इसके तहत इसकी अन्य शाखाएं भी स्थापित की गई। 
सनद रहे कि 1997 में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने सौ फीसदी स्वैच्छिक रक्तदान की शुरुआत की थी। इसके तहत 124 प्रमुख देशों का समूह बनाकर सभी देशों से स्वैच्छिक रक्तदान को बढ़ावा देने की अपील की गई। अब तक 49 देश स्वैच्छिक रक्तदान को अमलीजामा पहना चुके हैं। हालांकि कई देशों में अब भी रक्तदान के लिए पैसों का लेनदेन होता है,  जिनमें भारत भी शामिल है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानक के तहत भारत में सालाना एक करोड़ यूनिट रक्त की जरूरत है, लेकिन 75 लाख यूनिट रक्त ही उपलब्ध हो पाता है।  राजधानी दिल्ली में आंकड़ों के मुताबिक हर साल 350 लाख रक्त यूनिट की आवश्यकता रहती है, लेकिन स्वैच्छिक रक्तदाताओं से इसका महज 30 फीसदी ही जुट पाता है। कमोबेश यही स्थिति समूचे देश की है। एक अनुमान के अनुसार दिल्ली में तकरीबन पांच दर्जन ब्लड बैंक हैं, फिर भी एक लाख यूनिट रक्त की कमी है। इसकी मूल वजह है इस दिशा में समाज में फैली अज्ञानता।
 चिकित्सा विज्ञान कहता है कि कोई भी स्वस्थ व्यक्ति,  जिसकी उम्र 16 से 60 साल के बीच हो, जो 45 किलोग्राम से अधिक वजन का हो, जिसका हीमोग्लोबिन 12.5 हो और जिसे जो एचआईवी, हेपटाइटिस बी या सी जैसी बीमारी न हुई हो, वह बिना भय रक्तदान कर सकता है। एक बार में 350 मिलीग्राम रक्त दिया जाता है, जिसकी पूर्ति शरीर में चौबीस घंटे के अंदर ही हो जाती है  किंतु बड़ी संख्या में लोग सोचते हैं कि इतने लोग रक्तदान कर रहे हैं, तो मुझे अपना खून देने की क्या जरूरत या मेरा ब्लड ग्रुप तो बहुत आम है, इसलिए यह तो किसी को भी आराम से मिल सकता है अथवा कई लोग सोचते हैं कि मेरा ग्रुप तो ‘रेयर’ यानी खास है, इसलिए जब किसी को इस ग्रुप की जरूरत होगी तभी मैं रक्त दूंगा। इस संकुचित सोच को बदलने की जरूरत है। यह सच है कि बीते कुछ सालों में व्यापक प्रचार-प्रसार के चलते इस दिशा में लोग जागरूक हुए हैं तथा लोगों में रक्तदान को लेकर भ्रांतियां भी कम हुई हैं, मगर फिर भी हम लोग लक्ष्य से काफी पीछे हैं।

पूनम नेगी


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