हिन्दी : हिन्दी क्षेत्र में भी शिकायतें

Last Updated 13 Jun 2019 06:42:03 AM IST

गैर हिन्दी प्रदेशों में हिन्दी थोपे जाने की शिकायतों पर बहस चल रही है। यह बहस है कि हिन्दी, हिन्दी नहीं रह गई है। देवनागरी में लिखी ऐसी किताबें मिलती हैं, जिन्हें सामान्य तौर पर समझा नहीं जा सकता।


हिन्दी : हिन्दी क्षेत्र में भी शिकायतें

विश्वविद्यालयों में एकाध छात्र ऐसे मिल सकते हैं जो व्याकरण की दृष्टि से दुरुस्त हिन्दी लिखते और बोलते हों। संसद में शायद कोई ऐसा दस्तावेज तैयार होता हो जो मुलत: हिन्दी में तैयार किया जाता हो। हिन्दी में जो अनूदित होते हैं, उनमें से शायद ही कोई हो जिसे समझने के लिए अंग्रेजी की मूल प्रति का सहारा नहीं लेना पड़ता हो। भारत में भाषा ठीक धर्म की तरह राजनीति पर वर्चस्व का एक मसाला है।
हिन्दी की राजनीति और हिन्दी की वास्तविकता दो छोर पर खड़ी हैं। हिन्दी की हालत को समझने लिए इन उदाहरणों को देखा जा सकता है। 1) भारतीय भाषा समूह ने भारत निर्वाचन आयोग और भारत सरकार के संगठन पत्र सूचना कार्यालय (पीआईबी) द्वारा 2019 के चुनाव संबंधी आंकड़ों और महत्त्वपूर्ण सूचनाओं, चुनाव संबंधी नियमों एवं आचार संहिता का एक संकलन प्रकाशित किया लेकिन वह केवल अंग्रेजी में ही किया गया। यह राजभाषा अधिनियम के निष्प्रभावी होने का उदाहरण भर नहीं है। सरकारी विभागों व संवैधानिक संस्थाओं में हिन्दी व भारतीय भाषा में बुनियादी रूप से किसी दस्तावेज को तैयार करने की संस्कृति ही नहीं बची है। हद से हद अंग्रेजी में तैयार किसी दस्तावेज का हिन्दी में अनुवाद कराने की औपचारिकता पूरी करने की संस्कृति दिखाई देती है। भारतीय भाषाओं पर बिना शोर-शराबे के संस्थागत हमले हो रहे हैं।

2) हिन्दी को हिंग्लिश बनाने का सिलसिला इंग्लिशहि तक पहुंच गया है। पिछले पांच सालों में सरकारी स्तर पर प्रचार अभियानों, कार्यक्रमों और स्कीमों और संस्थाओं के नाम जिस तरह से रखे गए हैं, उसमें हिन्दी की पूंछ भर दिखाई देती है। मसलन, एक ऐप को भीम नाम दिया तो लोगों को भ्रम हो गया कि इस ऐप का नामकरण संस्कार डॉ. भीम राव अम्बेडकर के नाम से किया गया है। लेकिन देवनागरी में लिखे इस भीम के अक्षर अंग्रेजी के हैं। ये अक्षर बीएचआईएम हैं, और इन अक्षरों का पूरा नाम भारत इंटरफेस फॉर मनी है। लेकिन जब इस नामकरण का राजनीति के लिए इस्तेमाल करना होता है, तो इसे  बीएचआईएम को मिलाकर पढ़ा जाता है, और वह भीम बन जाता है। हिन्दी भाषा और देवनागरी लिपि के इस्तेमाल की रणनीति को संवेदनशीलता के साथ समझने की जरूरत होती है। पहले हिन्दी और अंग्रेजी में सरकार के कार्यक्रमों, अभियानों और योजनाओं के नाम रखे गए। लेकिन इस बीच कार्यक्रमों, योजनाओं और संस्थाओं के नामकरण के लिए एक नया फॉर्मूला तैयार किया गया। यह कि नामकरण तो अंग्रेजी में ही करें लेकिन नामकरण इस तरह से हो कि उसका संक्षिप्त नाम हिन्दी में बन जाए। जैसे भीम और दूसरा उदाहरण नीति आयोग का है। यह हिन्दी वाली नीति नहीं है। अंग्रेजी के नामकरण एनआईटीआई से बनाया गया है। नये फॉर्मूले के आधार पर नामकरण की सूची पर एक नजर डाली जा सकती है।
अमृत योजना के रूप में प्रचारित योजना का असल नाम अफॉर्डबल मेडिसिन एंड रिलायवल इम्प्लांट्स फॉर ट्रीटमेंट है। कुसुम, पहल, उदय, स्वयं, संकल्प, प्रगति, सेहत, उस्ताद, संपदा और हृदय सब नाम अंग्रेजी के हैं। ये सभी अंग्रेजी के पूरे नाम के संक्षिप्त  नाम हैं, जो देवनागरी में लिखने की वजह से हिन्दी के शब्द होने का भ्रम पैदा करते हैं। अंग्रेजी के नाम के पहले अक्षर को देवनागरी में लिखने से हिन्दी का शब्द बनाने की कला सरकार में नामकरण की नई भाषा संस्कृति है। 3) हिन्दी अंग्रेजी से अनुवाद करने की भाषा बन गई है। लेकिन क्या हिन्दी में अनुवाद भी ठीक हो रहा है? अनुवाद किस तरह के हो रहे हैं, इस पर निगरानी कौन रख सकता है। वैसे अनुवाद भी मिलते हैं, जिन्हें अनुवादक रोमन लिपि को देवनागरी में ढाल देते हैं। हिन्दी प्रकाशन के एक जिम्मेदार व्यक्ति ने बताया कि उन्हें बतौर पाठक दो प्रतिष्ठित प्रकाशन संस्थाओं में काम करते हुए अनुवादों पर से भरोसा ही उठ गया है। वे लिखते हैं कि ‘प्रोफेसरों द्वारा किए गए अनुवादों में भी भारी ब्लंडर होते हैं। यही वजह है कि मैं किसी भी हिन्दी अनुवाद को अब पढ़ना पसंद नहीं करता (चाहे अंग्रेजी में उसे पढ़ना कितना भी मुश्किल हो)।’  4) दिल्ली सरकार के योजना विभाग के सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण को केवल अंग्रेजी भाषा में कराए जाने का फैसला किया। सर्वेक्षण की प्रश्नावली केवल अंग्रेजी भाषा में ही थी।  5) दिल्ली में डॉ. भीमराव अम्बेडकर विश्वविद्यालय में विद्यार्थियों में सामाजिक स्तर पर पिछड़े वगरे एवं जातियों के सदस्यों के साथ महिलाएं भी शामिल हैं। प्रगतिशील और लोकतांत्रिक छात्र समुदाय के एक सर्वेक्षण में सामान्य श्रेणी की 20 प्रतिशत महिलाओं ने बताया कि उन्हें अंग्रेजी में जो पाठय़क्रम मिलता है, वह भाषा की वजह से समझने में दिक्कत होती है। पिछड़े वर्ग एवं अनुसूचित जाति की महिलाओं के बीच यह संख्या दस दस प्रतिशत है, तो अनुसूचित जनजाति की महिलाओं के बीच 6 प्रतिशत। इसी क्रम में सामान्य वर्ग के पुरु षों में 22 प्रतिशत, पिछड़े वर्ग में 8, अनुसूचित जाति में 12 और अनुसूचित जनजाति में 1 प्रतिशत को भाषा के कारण पाठय़क्रम समझने में दिक्कत होती है। बौद्धिक जुगाली और विचारों की पेचीदगियों की वजह से पाठय़क्रम नहीं समझ पाने वालों की तादाद बहुत ज्यादा है। सामान्य महिलाओं में यह कुल संख्या 69 प्रतिशत है, तो पुरु षों में 35 प्रतिशत। 6) हिन्दी को राष्ट्र भाषा के रूप में प्रचारित किया जाता रहा है। इसने दूसरी राष्ट्रीय भाषाओं के भीतर आशंकाएं प्रगट कीं। राष्ट्र भाषा बनाने के दो रास्ते हो सकते हैं। एक, उसे संसदीय बहुमत के बल पर लादने की कोशिश; और दूसरे, राष्ट्रीय भाषाओं के साथ रिश्ते गहरे करके राष्ट्र भाषा बनाने की जरूरत पूरा करना। वास्तविकता यह दिखती है कि शुद्ध यानी संस्कृतनिष्ठ हिन्दी ने अंग्रेजी को सहयोगी और भारतीय भाषाओं को प्रतिद्वंद्वी मान लिया है। जाहिर सी बात है कि यह शुद्ध हिन्दी जन की हिन्दी न होकर राजनीतिक हिन्दी ही हो सकती है। 7) धर्म की राजनीति का अर्थ है कि जीवन की सभी गतिविधियों से उसके तार जुड़ने की बात को प्रचारित किया जाना चाहिए। भाषा भी उनमें एक हैं। भारत में हिन्दी के प्रति मुस्लिम कोई वैर भाव नहीं रखते हैं। एक सर्वेक्षण में तथ्य सामने आया है कि कुल 67 प्रतिशत मुस्लिम आबादी ऐसी है, जो हिन्दी अखबार पढ़ती है। लेकिन हिन्दी अखबारों के मुसलमानों के प्रति पूर्वाग्रह, द्वेषपूर्ण संपादकीय नीति और उनके मसलों को कवरेज न देने से मुसलमान पाठकों को शिकायत रहती है। स्पष्ट है कि भाषा में धर्म की राजनीति की पैठ बनी हुई है। 

अनिल चमड़िया


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