अभिव्यक्ति की आजादी : कौन करेगा हिफाजत!
पत्रकार प्रशांत कनौजिया ने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के बारे में जिस तरह से ट्वीट किया वह गलत था। उत्तर प्रदेश पुलिस ने जिस तरह से उन्हें उठाया और रिमांड पर ले लिया वह उससे भी ज्यादा गलत था।
![]() अभिव्यक्ति की आजादी : कौन करेगा हिफाजत! |
यह बात सुप्रीम कोर्ट से प्रशांत की रिहाई के साथ साफ हो चुकी है। धन्य मानिए सुप्रीम कोर्ट के अवकाशकालीन न्यायमूर्ति इंदिरा बनर्जी और अजय रस्तोगी को, जिन्होंने इस बहाने प्रेस की डूबती आजादी को तिनके का सहारा दे दिया। इस आदेश पर एक संपादक महोदय ने लिखा कि न्यायमूर्ति आजादी दीजिए लेकिन हिमाकत की नहीं। लेकिन ऐसा लिखते समय वे भूल गए कि स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व के मूल्य हमने आजादी का लंबा संघर्ष करके हासिल किए हैं, और ये हमें कोई संस्था प्रदान नहीं करती, बल्कि भारतीय जनता ने अपनी संस्थाओं को उनकी रक्षा का दायित्व दे रखा है। इसीलिए कहा भी गया है कि संविधान को भारतीय जनता ने स्वयं को प्रदान किया है। दुर्भाग्य से जब देश के पत्रकार और प्रबुद्ध लोग सोचने लगे हैं कि आजादी किसी तरह की खैरात है, जो हमें संवैधानिक संस्थाओं से प्राप्त हो रही है, तो उसका हनन होना स्वाभाविक है।
इसीलिए सुप्रीम कोर्ट ने साफ शब्दों में कहा है, ‘स्वतंत्रता एक पुण्यमयी धारणा है और इससे कोई समझौता नहीं किया जा सकता। स्वतंत्रता संविधान में संरक्षित की गई है, और हम एक ऐसे देश में रहते हैं जहां पर सर्वश्रेष्ठ संविधान है। हमें भी सोशल मीडिया की आंच झेलनी पड़ती है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि हम टिप्पणी करने वाले को कैद कर दें।’ कल्पना कीजिए अगर संविधान में मौलिक अधिकार न दिए गए होते और उनकी रक्षा के लिए किसी संस्था को शक्ति न दी गई होती तो नागरिकों का क्या होता? निश्चित तौर पर राज्य नामक संस्था के सामने नागरिकों की कोई गरिमा नहीं होती। वास्तव में राज्य नामक संस्था के समक्ष सामान्य व्यक्ति बहुत लाचार है, और हम उसे लगातार और लाचार बनाने की वकालत कर रहे हैं। निश्चित तौर पर जो लोग हर बात पर कानून बनाने और दंड देने की बात करते हैं, वे संविधान में प्रदत्त मौलिक अधिकारों को उनके अपवादों से घेर लेना चाहते हैं।
बीते आम चुनाव की जब घोषणा हुई तो किसी ने मजाक में ट्वीट किया, ‘चुनाव दो चरणों में होंगे। पहले चरण में नेता जनता के चरणों में होंगे और दूसरे चरण में जनता नेताओं के चरणों में होगी।’ शायद हमारा लोकतंत्र थोड़े समय के लिए पहले चरण में जीकर अब दूसरे चरण में प्रवेश कर चुका है, और उसका दौर लंबा चलने वाला है। दरअसल, मुख्यधारा के मीडिया ने सत्ता से एक कामचलाऊ और खाऊपकाऊ रिश्ता बना लिया है, और वह उसके बजाय विपक्ष की आलोचना करने में लगा हुआ है। ऐसे में डिजिटल और सोशल मीडिया नये किस्म के मंच बनकर उभरे हैं। उन्होंने समाचार की पूरी पारिस्थितिकी को परिवर्तित कर दिया है। वहां हर कोई पत्रकार है, और हर कोई संवाददाता और लेखक है। यह स्थिति जब शासकों के अनुकूल होती है, तो वे इसकी रक्षा करते हैं। जब उनके प्रतिकूल होती है, तब वे इस पर हमला करते हैं। प्रशांत कनौजिया पर चर्चा करते समय कई पत्रकारों ने यह सवाल उठाया कि आखिर, ऐसी कार्रवाई किसी मुख्यधारा के मीडिया पर क्यों नहीं हुई? क्यों ऐसी कार्रवाई उन्हीं पर हो रही है, जो सनसनी फैला रहे हैं, और अभिव्यक्ति की आजादी का दुरु पयोग कर रहे हैं? इसके अलावा, कुछ लोगों का यह भी कहना है कि अभिव्यक्ति की आजादी को कुचलना दक्षिणपंथी विचार वालों का उद्देश्य है, इसलिए उनसे लड़ना ही होगा।
इन सवालों का जवाब इतना सीधा नहीं है। जवाब तभी सही तरीके से मिल सकता है, जब हम भारतीय सत्ता और समाज के चरित्र को समझें। इस समय भारतीय समाज और लोकतंत्र बहुसंख्यकवादी हुआ है, और वह अल्पसंख्यक समर्थक कहानियों और विचारों को सेंसर करने में लगा हुआ है। लेकिन उससे अलग यह समाज सामंतवादी भी है, और नहीं चाहता कि सत्ता में बैठे लोगों पर कोई आम आदमी उंगली उठाए या उनकी कोई आलोचना करे। उसने सैकड़ों साल से समाज के दलित और पिछड़े तबके की जुबान बंद कर रखी थी और उसे न तो पढ़ने की छूट थी, और न ही लिखने की। आज जब उसे यह अधिकार मिला है, और वह शिक्षित हुआ है, तो अपने संचित आक्रोश को अभिव्यक्ति दे रहा है। इसीलिए अगर मुख्यधारा के मीडिया में जय जयकार है, तो सोशल मीडिया पर आलोचना के तीखे पोस्ट हैं।
लेकिन भारतीय समाज अभी भी लोकतांत्रिक नहीं हुआ है। सिर्फ चुनाव में हर तरह की आलोचना की छूट और बाकी समय खामोशी, लोकतंत्र के स्वस्थ होने का लक्षण नहीं है। न ही अपनी आलोचना पर बरस पड़ना और दूसरे की आलोचना पर सहिष्णुता की सीख देना, लोकतंत्र का लक्षण है। इस मामले में कांग्रेस, भाजपा, तृणमूल कांग्रेस, सपा-बसपा और जनता दल (एस) सभी हमाम में नंगे खड़े हैं। आज अभिव्यक्ति की आजादी का दमन करने को योगी सरकार ही आतुर नहीं है, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी उसमें पीछे नहीं हैं, और कर्नाटक के मुख्यमंत्री एचडी कुमारस्वामी को भी पत्रकारों पर बहुत गुस्सा आता है। उन्हें उस पेट्रोल पंप के कारिंदे और कार ड्राइवर पर तो और ज्यादा गुस्सा आता है, जो उनके बेटे के विरु द्ध वीडियो पोस्ट करते हैं। उन्हें टीपू पर तीखी टिप्पणी करने वाले संतोष थोमैया को गिरफ्तार करवाने में भी देर नहीं लगती। अतीत में मनमोहन सिंह का कार्यकाल आईटी कानून की धारा 66ए के दुरु पयोग के लिए कुख्यात है, तो समाजवादी पार्टी और बसपा भी मीडिया घरानों पर उग्र प्रदशर्न करने के लिए प्रसिद्धि पा चुकी हैं। सब अलग-अलग अखबारों और चैनलों पर अपने-अपने समय में हल्ला बोल चुके हैं। कम्युनिस्ट पार्टयिां जिस (रूस और) चीन के मॉडल की बारंबार बात करती हैं, वहां तो अभिव्यक्ति की आजादी का मतलब ही सीमित है।
इसलिए अगर हमें अभिव्यक्ति की आजादी की हिफाजत करनी है, तो इसका उपयोग करने वालों को तो मर्यादा का पालन करना ही होगा और सोशल मीडिया पर फिल्टर लगाना होगा। अगर वह पालन नहीं होता और बात वहां से आगे बढ़ती है, तो भी उस पर पुलिसिया कार्रवाई से बचना होगा। मानहानि को फौजदारी नहीं, दीवानी मामला बनाने की याचिका सुप्रीम कोर्ट में लंबित है। अगर सुप्रीम कोर्ट और देश की नागरिक अधिकारों की संस्थाएं मौजूदा स्थितियों से चिंतित हैं, तो उन्हें इस बारे में जल्द से जल्द फैसला करवाना होगा। इसलिए आजादी अगर बचेगी तो जनता की जागरूकता से ही क्योंकि वह आई भी उसी के संघर्ष से है।
| Tweet![]() |