छोटी नदियां : इनकी भी सुध लेनी होगी
दक्षिणी हिस्से में मॉनसून की फुहारों ने जनजीवन को हर्षित करना शुरू कर दिया है। किसी भी कृषि प्रधान देश में मॉनसून का आगमन एक उत्सव से कम नहीं होता।
छोटी नदियां : इनकी भी सुध लेनी होगी |
हम उस उत्सव की देहरी पर खड़े हैं। उत्सव का यह संस्कार इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है कि वष्रा न केवल हमें तात्कालिक जरूरतों के लिए पानी उपलब्ध कराती है, विविध जल संग्रहण क्षेत्रों में हमारे लिए इतना स्नेहाशीष एकत्र जल के रूप में छोड़ जाती है कि हम वर्ष पर्यत उसका उपयोग करके सुख के सपनों को संवार सकते हैं।
मानव सभ्यता का विकास नदियों के किनारे हुआ। जल और जमीन की पर्याप्त उपलब्धता ने नील नदी से लेकर सिंधु घाटी तक सभ्यता के विकास के प्रारंभ में ही मानव जीवन को उत्कर्ष के नवसोपान सौंपे। नदियों के इस योगदान को आशीर्वाद के रूप में ग्रहण करते हुए भारतीय संस्कृति ने नदियों को मातृस्वरूपा कहा है। गंगा जैसी नदियों के बारे में तो माना जाता है कि उनके स्पर्श मात्र से जीवन के पाप धुल जाते हैं। लेकिन गंगा ही क्यों, भारतीय संस्कृति में तो अधिकांश नदियों को पवित्र माना गया है। बिहार की कर्मनाशा नदी को इसका अपवाद कहा जा सकता है, जिसके बारे में सामान्य मान्यता रही कि उसके स्पर्श से ही मनुष्यों के सद्कर्मो का क्षय हो जाता है। लेकिन उसके भी अपने सांस्कृतिक-सामाजिक कारण रहे। दरअसल, कर्मनाशा नदी को पार करने के बाद बंगाल का वह हिस्सा शुरू हो जाता है, जिसमें प्राचीन काल में बौद्ध धर्म का प्रभाव था। भारतीय इतिहास के एक कालखंड में बौद्ध धर्म और सनातन पंथ की मान्यताएं परस्पर इतनी आमने-सामने हो गई थीं कि एक दूसरे के प्रभाव को भी सद्कर्मो के नाश का कारण कहा जाने लगा था अन्यथा कर्मनाशा नदी ने भी अपने किनारे पर बसे गांवों को भरपूर साधन दिए हैं।
नदियों की पवित्रता की यह अवधारणा नदियों के प्रवाह की प्रांजलता की दुश्मन हो गई। हमने मनमाने तरीके से उनके प्रवाह को यह मानते हुए प्रदूषित किया कि उनके स्पर्श से तो सब कुछ पवित्र हो जाता है। गंगा जैसी नदी भी कुछ स्थानों पर इतनी प्रदूषित पाई गई है कि उन स्थानों के आसपास गंगा नदी का जल पीने योग्य नहीं रहा। जिस नदी के बारे में माना जाता है कि राजा भागीरथ अपने पुरखों का उद्धार करने के लिए उसे स्वर्ग से पृथ्वी पर लाए, उस नदी का प्रदूषण चिंता का कारण हो गया हो तो अन्य नदियों की स्थिति की कल्पना की जा सकती है। दक्षिण-पूर्वी राजस्थान में एक नदी है चंदल्रोही। करीब साठ किलोमीटर यह नदी एक दर्जन से अधिक गांवों की जरूरतों को पूरा करके कोटा शहर के निकट चंबल में मिल जाती है। लेकिन कारखानों से इसके प्रवाह में सतत प्रवाहित होते अपशिष्ट ने नदी के प्रवाह को बदबूदार कर दिया है। झालावाड़ जिले की चंद्रभागा नदी ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्त्व की थी लेकिन उसके पानी में भी अब नहा पाना दिवास्वप्न सा प्रतीत होता है। उत्तर प्रदेश की सई नदी के बारे में मान्यता है कि यह उस कुंड से निकली है, जहां कभी देवी पार्वती सती हुई थीं। त्रेता युग में वनवास के समय स्वयं मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने इस नदी में स्नान किया था। तुलसीदास ने अयोध्या कांड में इसका जिक्र किया है। लेकिन सई नदी की हालत अब यह है कि लोग पशुओं तक को इसके आसपास नहीं जाने देते।
मिथिलांचल को नदियों का पीहर कहा जाता है। यहां गोरा और चमहा नदी तो पहले ही गुम हो चुकी हैं, और बेलौंती, फरैनी, चकरदाहा जैसी नदियों की स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं है। बुंदेलखंड में अवैध खनन के कारण नदियों के तल में पोखर जैसे बन गए हैं, जिन्होंने नदियों के प्रवाह को अवरुद्ध कर लिया है। 2012 में बुंदेलखंड में राजनीतिक स्तर पर नदियों को बचाने के लिए आंदोलन की बात कही गई थी। लेकिन छोटी नदियां आज भी अपने हाल पर आंसू बहा रही हैं। छिंदवाड़ा जिले की बोदरी नदी देखते ही देखते गंदे नाले में बदल गई है। राजस्थान के जयपुर शहर का अमानीशाह नाला पहले द्रव्यवती नदी था, जिसे एक विशेष परियोजना के तहत पुन: संवारा जा रहा है।
ऐसा नहीं है कि नदियों का जीर्णोद्धार संभव नहीं है। पंजाब में संत बलबीर सिंह सिचेवाल ने कालीबेई नदी को और राजस्थान में तरुण भारत संघ के नेतृत्व में सत्तर गांवों के निवासियों ने अलवर की अरवरी नदी के प्रसंग में साबित कर दिया है कि सामुदायिक संकल्प हो तो दम तोड़ती हुई नदियों को नवजीवन दिया जा सकता है। संकल्प, संचेतना और संवेदना ही छोटी नदियों को बचा सकते हैं। सरस्वती नदी से जुड़ी पौराणिक कथा के अनुसार उसे यह आशीर्वाद प्राप्त था कि जब यह लगने लगे कि दुनिया के मंतव्य उसकी शुचिता के अनुकूल नहीं रहे तो वह लुप्त होना प्रारंभ कर दे। यह महज संयोग नहीं है कि कलयुग के प्रारंभ के साथ ही सरस्वती लुप्त होना शुरू हो गई थी। अब भी हमने छोटी नदियों की सुध नहीं ली तो पीढ़ियां हमें क्षमा नहीं करेंगी।
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