मालदीव-श्रीलंका : पड़ोसी पहले का संदेश

Last Updated 11 Jun 2019 12:18:57 AM IST

इस बार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने शपथ-ग्रहण में सार्क देशों की बजाय बिम्सटेक देशों को आमंत्रित किया था, जिसके चलते मालदीव छूट गया था।


मालदीव-श्रीलंका : पड़ोसी पहले का संदेश

ऐसे में यह संदेश जा सकता था कि भारत अपनी नेबर्स फस्र्ट पॉलिसी से पीछे हट रहा है। इसलिए भारत को यह बताने की आवश्यकता थी कि उसने नेबर्स फस्र्ट पॉलिसी का परित्याग नहीं किया है। मालदीव भारत के लिए कूटनीतिक चुनौती है और भारत अब पुरानी गलतियां दोहराना नहीं चाहता। यही बात श्रीलंका के सम्बन्ध में कही जा सकती है। भारत लम्बे समय से प्रतीक्षा कर रहा था कि मालदीव और श्रीलंका में पैर जमाने का अवसर प्राप्त हो। श्रीलंका में भारत को पहले अवसर मिला, लेकिन श्रीलंकाई राष्ट्रपति मैथ्रीपाला सिरिसेना छोटे से अवकाश के बाद फिर चीन की ओर झुकते दिखे जिससे लगा कि श्रीलंका में महिन्द्रा राजपक्षे शासनकाल की पुनरावृत्ति न हो जाए। हालांकि प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे की कार्यशैली अभी तक भारत-श्रीलंका बॉण्ड को मजबूत बनाए रखने में सहायक सिद्ध हो रही है।

मालदीव की बात करें तो इस यात्रा से भारत अंतरराष्ट्रीय समुदाय को एक तरह तो यह संदेश देना चाहता है कि उसके अपने क़रीबी पड़ोसी के साथ अच्छे सम्बन्ध हैं और दूसरी तरफ वह यह भी बताना चाहता है कि हिन्द महासागर में वह संयोजकता, सुरक्षा और संपर्क के मामले बेहद संवेदनशीलता एवं रणनीति के साथ आगे बढ़ना चाहता है। मालदीव की दक्षिण एशिया और अरब सागर में एक स्ट्रेटेजिक लोकेशनहै और इस लिहाज से वह भारत के लिए बेहद महत्त्वपूर्ण है। यही नहीं, मध्य-पूर्व से आयात होने वाले हमारे तेल और गैस का बहुत बड़ा हिस्सा ‘ए डिग्री चैनल’ (जो मालदीव के पास में है) से गुजरता है। दूसरा पक्ष है चीन, जो लगातार हिन्द महासागर में अपनी रणनीतिक स्थिति मजबूत करने पर लगा हुआ है। उसकी स्ट्रिंग ऑफ पल्र्स रणनीतिक ग्वादर (पाकिस्तान), मारओ (मालदीव) और हम्बनटोटा (श्रीलंका) में जिस तरह से एक स्ट्रैटेजिक चेन तैयार कर रही है, उससे भारत घिरता हुआ नजर आ रहा है। इससे आगे बढ़कर चिंताजनक बात यह है कि चीन का मलक्का जिबूती कनेक्शन, जो उसकी वन बेल्ट वन रोड का हिस्सा है, पल्र्स स्ट्रैटेजी के साथ संयुक्त होकर हिन्द महासागर में दोहरी दीवार निर्मित कर रहा है, जिसे तोड़ पाना भारत के लिए बेहद मुश्किल होगा। इस स्थिति में यह बहुत ज़रूरी हो जाता है कि भारतीय महासागर के इस इलाके में पीस-स्टेबिलिटी बनी रहे और इसके साथ ही भारत-मालदीव एक भरोसेमंद स्ट्रैटेजिक एवं डवेलपमेंट पार्टनर की भूमिका का निर्वहन करते रहें।
भारत को चीन की इनवेलप डिप्लोमैसी को कांउटर करना होगा, अन्यथा चीन एक दिन फिर मालदीव में काबिज हो सकता है। वर्ष 2014 से, जब राष्ट्रपति शी जिनपिंग की माले यात्रा सम्पन्न हुई थी और इसके ठीक बाद अब्दुल्ला यामीन की पेइचिंग यात्रा, चीनी कम्पनियों ने मालदीव में कारोबारी गतिविधियां इतनी तेज की कि देखते ही देखते मालदीव में एक चीन दिखने लगा (यही स्थिति श्रीलंका में भी है)। इस दौर में अब्दुल्ला यमीन सरकार ने चीन के लिए इस तरह दरवाजे खोले कि मालदीव चीनी कर्ज के दलदल में फंस गया, जो लगभग 3 से 3.5 अरब डॉलर तक हो सकता है। कॉमनवेल्थ समर्थित न्यायिक आयोग की रिपोर्ट का कहना है कि चीन ने माले को अपने पाले में करने के लिए जमकर कर्ज दिया। यामीन ने चीन को मारओ बंदरगाह देने के पश्चात उसके साथ ‘फ्री ट्रेड एग्रीमेंट’ साइन किया। इसके तहत जुलाई 2015 को मालदीव की संसद ने एक बिल पास किया जो विदेशी निवेशकों को जमीन पर अधिकार प्रदान करता है। फलत: चीन को सामरिक महत्त्व वाले 16 द्वीप ठेके (लीज) पर प्राप्त हो गये। हालांकि राष्ट्रपति सालिह ने फ्री ट्रेड एग्रीमेंट के सत्ता में आते ही रद्द कर दिया, जिसकी प्रतिक्रिया में चीन ने मालदीव 3.2 अरब डॉलर (करीब 22,611 करोड़ रुपये) का इनवॉयस थमा दिया था। ऐसी स्थिति में मालदीव भारत के साथ लम्बे समय तक तभी चल पाएगा, जब भारत उसे भरपूर आर्थिक मदद दे और भारतीय कारोबारी मालदीव में निवेश करें। हालांकि भारत ने मालदीव के साथ स्ट्रैटेजिक बॉण्ड निर्मित करने के लिए 1.4 अरब डॉलर की वित्तीय सहायता से शुरुआत की है। बदले में सालिह ने ‘इंडिया फस्र्ट पॉलिसी’ की वकालत की। लेकिन यह सही अथरें में प्रतीकात्मक है।
श्रीलंका इस समय कई चुनौतियों से गुजर रहा है। इनमें पहली और सबसे बड़ी है चीन के ऋण जाल की जिससे बाहर निकलने का उसके पास कोई रास्ता फिलहाल नजर नहीं आ रहा। दूसरी समस्या है आतंकवाद की और तीसरी साम्प्रदायिकता सम्बन्धी है। श्रीलंका में आतंकवाद और साम्प्रदायिकता, दोनों की ही असल वजह है कि पाकिस्तान, जो वहां 2009 के बाद से धीरे-धीरे घुसपैठ बढ़ा रहा था। नेशनल तौहीद जमात जैसे संगठनों का उदय पाकिस्तान की आईएसआई के प्रयासों का परिणाम है क्योंकि वह श्रीलंकाई ताने-बाने में तमिलों को कमजोर कर बाहर करना चाहती थी। महिन्द्रा राजपक्षे सरकार इससे आंखें मूंदें रही और यह भूल गयी कि इस तरह का निर्माण श्रीलंका की सांस्कृतिक-एथनिक संरचना को प्रभावित तो करेगा ही साथ ही राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा पैदा करेगा। दरअसल, लिट्टे के खात्मे में चीन द्वारा निर्णायक भूमिका निभाने के कारण चीन के सदाबहार मित्र को भी सौगातें मिली।परिणाम यह हुआ कि आईएसआई ने रणनीतिक रूप श्रीलंका के पूर्वोत्तर में रहने वाले मुसलमानों को तमिलों की काउंटर पॉवर के रूप में विकसित किया, जिसके परिणाम आज श्रीलंका में नेशनल तौहीद जमात और उसके आईएसआईएस कनेक्शन में देखे जा कसते हैं।
फिलहाल भारत को त्रिस्तरीय रणनीति पर काम करने की जरूरत है। इनमें पहली है आंतरिक पॉलिसी यानी अपने चारों तरफ एक रक्षा दीवार का निर्माण करना। दूसरी है, इनवेलप पॉलिसी, जो भारत के पड़ोसी देशों में चीन द्वारा चलायी जा रही है, की काट ढूंढ़ना और तीसरी है इंटैजिबल पॉलिसी या चीन की प्रोपगैंडा पॉलिसी जिसे काउंटर करने के लिए संवाद की समृद्ध परम्परा और पीपल टू पीपल कनेक्टिविटी की जरूरत होगी। इसके साथ ही इन देशों में भारतीय निवेशों व आर्थिक सहायता में वृद्धि करनी होगी अन्यथा भारत चीन को इन देशों में लम्बे समय तक दूर नहीं रख पाएगा। सालिह और सिरिसेना, दोनों ही इस समय ओपन डिप्लोमैसी की बजाय क्लोज्ड डिप्लोमैटिक ट्रैक पर अधिक चलते दिख रहे हैं, जिसके अपने निहितार्थ हैं।

रहीस सिंह


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