गिरीश कर्नाड : प्रेरणा के साथ चुनौती भी होंगे

Last Updated 11 Jun 2019 12:14:39 AM IST

जाने के बाद मीडिया द्वारा गिरीश कर्नाड को सिर्फ एक फिल्म अभिनेता के तौर पर याद किया जा रहा है, जो सही नहीं कहा जा सकता है।


गिरीश कर्नाड : प्रेरणा के साथ चुनौती भी होंगे

एक फिल्म अभिनेता के तौर पर आकलन किया जाए तो उनका कोई बहुत बड़ा योगदान नहीं रहा। जैसा की ओम पुरी या नसीरुद्दीन शाह जैसों का रहा है। यहां तक की आने वाले समय में भी उन्हें इसके लिए कोई याद भी नहीं करेगा। उन्हें ‘तुगलक’ के लेखक के रूप में, एक नाटककार के रूप में याद करेगा। 50 और 60 के दशक में जिन बड़े लेखकों के नाम  सामने आते हैं, जिसमें मोहन राकेश, विजय तेंदुलकर, बादल सरकार प्रमुख थे। मगर आज हम आधी सदी बाद  सिर्फ  दो नाम जेहन में याद आते हैं। वो या तो गिरीश कर्नाड ‘तुगलक’ के लिए या धर्मवीर भारती ‘अंधा युग’ के लिए।  जो आज भी अपने सरोकारों की वजह जीवित हैं।

इन दोनों कृतियों का जो विशाल पटल है, और मानीवय विसंगतियों की जो अनुगूंज हैं, उसकी वजह से ये आज भी सजीव हैं । आधुनिक भारतीय साहित्य और रंगमंच के ये दो ऐसे नाटक हैं, जो 50 साल बाद भी जिन्दा हैं, और 50 साल बाद भी रहेंगे। इसलिए वक्त कर्नाड को किसी फिल्म की भूमिका के लिए नहीं बल्कि ‘तुगलक’ जैसे कालजयी नाटक के लिए याद रखेगा। जो भी सम्मान-पुरस्कार उन्हें मिला वो नाटककार के रूप में ही मिला।

कनार्ड हमारे समय के ऐसे रचनाकार-रचनाधर्मी थे, जिन्होंने अपने सामजिक सरोकारों  के लिए ना सिर्फ  उन्होंने प्रतिबद्धता जाहिर कि बल्कि उसके लिए वो प्रयासरत भी रहे। उनकी प्रतिबद्धता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि वो अपनी विचारधारा के लिए जोखिम उठाने से भी कभी पीछे नहीं हटे ।

उन्होंने अपनी तमाम कृतियां कन्नड़ में लिखीं, जिसका अंग्रेजी सहित अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद हुआ।राष्ट्रीय ख्याति के बावजूद वो खुद को कन्नड़ लेखक ही मानते थे, और अपनी इस क्षेत्रीय पहचान को अभिमान के साथ देखते थे। लोगों से भी यही उम्मीद करते थे।

उनके जाने से खालीपन का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि समकालीन कला जगत में उनके आसपास तो कोई है भी नहीं। एक विराट शून्य। जिसका भराव आसान नहीं दिखता। 50 और 60 के दशक में जो सितारे उभरे वो एक एक कर जा रहे हैं, मगर उनकी जगह लेता कोई नहीं दिखता। ये चिंता का विषय है। ऐसा अन्य क्षेत्रों में भी हो रहा है, पर बड़े अफसोस से कहना पड़ रहा है कि गिरीश कर्नाड वाली विधा में यह खालीपन ज्यादा है ।

‘अग्नि और बरखा’ उनका एक बेहद महत्वपूर्ण नाटक है। जैसे राकेश मोहन का ‘असाढ़ का एक दिन’, बादल सरकार का ‘बाकी इतिहास’ अपनी जगह पर ठीक है, मगर जो अपील धर्मवीर भारती के ‘अंधा युग’ और कर्नाड के ‘तुगलक’ में है वो इन्हें एक विशेष दर्जा देती है। इसलिए अपने तमाम नाटकों के बावजूद वो ‘तुगलक’ के लिए ही जाने जाएंगे। ‘तुगलक’ हमारे वक््त का मॉडर्न क्लासिक है, जिसे हम ‘अंधा युग’ के साथ रख सकते हैं।  निजी जीवन में उन्हें जिंदादिल आदमी के खांचे में रखा जा सकता है। जिसने कभी मतभेदों को मनभेद में तब्दील नहीं होने दिया। ये अपने निजी अनुभव के आधार पर कह सकता हूं। ऐसी कई घटनाएं हुई और मामला इस स्तर पर पहुंच गया कि जब लगा की अब शायद संबंध समाप्त हो गए। मगर उनके साथ रात गई बात गई वाली बात थी। इसी गुण के चलते वो सामजिक सरोकारों में रम भी गए। 

आज जब समानांतर सिनेमा के 50 साल पूरे हो चुके हैं, इस मौके पर उनके उपन्यास ‘संस्कार’ पर बनी फिल्म को याद करना मौजू होगा। जिसका जिक्र बहुत कम हुआ ।  इसमें अभिनय के साथ निर्देशन भी किया था। इसके अलावे ‘मंथन’ अभिनय की दृष्टि से याद करने वाली फिल्म है। समानांतर सिनेमा में श्याम बेनेगल के साथ इनकी जोड़ी ने उम्दा काम किया। फिर भी एक लेखक-नाटककार के रूप में उनका कद बहुत बड़ा है, जिसके तले एक फिल्म निर्देशक और अभिनेता छुप जाता है। इसलिए साहित्य अकादमी जैसा पुरस्कार एक नाटककार के तौर पर मिला।

आज भी उनके नाटकों को लेकर जिस तरह भीड़ उमड़ती है, वो उनके काम पर मुहर है। निजी अनभुव के तौर पर मैं यह कह सकता हूं, दिल्ली के फिरोज शाह कोटला में ‘तुगलक’ के 50 साल पूरे होने पर मंचन के दौरान जो भीड़ उमड़ी थी, वो अद्भत थी। गिरीश कर्नाड का काम एक मापदंड बन गया है, जो इस विधा के लोगों के लिए चुनौती से कम नहीं होगा। कुछ-कुछ तुलसीदास, निराला, रघुवीर सहाय जैसा, जो प्रेरणा के साथ इनकी कृतियां चुनौती भी हैं। गिरीश कर्नाड नाटकारों के लिए एक चुनौती होंगे, जिनसे टकराये बिना कोई आगे नहीं बढ़ पाएगा।

भानू भारती


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment