तंबाकू निषेध : जागरूकता से मिलेगी निजात
गत वर्ष जन स्वास्थ्य और नीति विशेषज्ञों के एक अंतरराष्ट्रीय संगठन ने स्वास्थ्य पत्रिका ‘लांसेट’ को पत्र लिखकर अपील की थी कि पूरे विश्व भर में तंबाकू की बिक्री पर 2040 तक रोक नहीं लगी तो इस सदी में एक अरब लोग धुम्रपान और तंबाकू के उत्पादों की भेंट चढ़ जाएंगे।
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आशंका जाहिर की कि मरने वालों में 80 प्रतिशत गरीब और मध्य आय वर्ग वाले देशों के होंगे। कुछ यही बात विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी कही कि तंबाकू के सेवन से प्रति वर्ष 60 लाख लोगों की मौत होती है, और तमाम बीमारियों का सामना करना पड़ता है।
विशेषज्ञों की मानें तो तंबाकू का सेवन मौत की दूसरी सबसे बड़ी वजह और बीमारियां पैदा होने के मामले में चौथी बड़ी वजह है। दुनिया में कैंसर से होने वाली मौतों में 30 फीसदी लोगों की मौत तंबाकू उत्पादों के सेवन से होती है। हालांकि स्वास्थ्य विशेषज्ञों को उम्मीद है कि विभिन्न देशों की सरकारें सिगरेट कंपनियों के खिलाफ राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखाते हुए कठोर कदम उठाएं तो विश्व 2040 तक तंबाकू और इससे उत्पन होने वाले भयानक बीमारियों से मुक्त हो सकता है। ऑकलैंड विश्वविद्यालय के विशेषज्ञ रॉबर्ट बिगलेहोल के मुताबिक सार्थक पहल के जरिए तीन दशक से भी कम समय में तंबाकू को लोगों के दिलोदिमाग से बाहर किया जा सकता है बशर्ते सभी देश, संयुक्त राष्ट्र और विश्व स्वास्थ्य संगठन जैसी अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं एक मंच पर आ जाएं। सरकारों को चाहिए कि धुम्रपान उत्पाद से जुड़ी कंपनियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करें। जागरूकता की कमी और सिगरेट कंपनियों के प्रति नरमी का ही नतीजा है कि तंबाकू सेवन से मरने वालों की तादाद बढ़ती जा रही है। लोगों को अपनी कमाई का एक बड़ा हिस्सा तंबाकू सेवन से उत्पन बीमारियों से निपटने में लुटाना पड़ रहा है। स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय तथा विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट को मानें तो 2011 में केवल तंबाकूजनित बीमारियों के इलाज के नाम पर देश के सकल घरेलू उत्पाद का 1.16 फीसदी यानी एक लाख पांच हजार करोड़ रुपये खर्च हुआ था। यह धन राशि केंद्र तथा राज्य सरकारों द्वारा स्वास्थ्य के क्षेत्र में 2011-12 में किए गए खर्च से तकरीबन 12 फीसदी अधिक थी। बाद के वर्षो में कमोबेश स्थिति ऐसी ही रही। देश की जीडीपी का तंबाकूजनित बीमारियों पर खर्च हो रहा हिस्सा गरीबी और कुपोषण मिटाने पर खर्च हो तो उसका सकारात्मक परिणाम देखने को मिलेगा।
विडंबना है कि इस दिशा में विचार ही नहीं किया जा रहा है। जबकि तथ्य है कि तंबाकू उत्पादों का सर्वाधिक उपयोग युवाओं द्वारा किया जा रहा है। उसका दुष्प्रभाव उनके स्वास्थ्य पर पड़ रहा है। गत वर्ष भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद के सव्रेक्षण से खुलासा हुआ था कि कम उम्र के बच्चे धुम्रपान की ओर तेजी से आकषिर्त हो रहे हैं। रिपोर्ट में कहा गया कि 70 फीसदी छात्र और 80 फीसदी छात्राएं 15 साल से कम उम्र में ही नशीले उत्पादों पान मसाला, सिगरेट, बीड़ी, खैनी आदि का सेवन शुरू कर देते हैं। धुम्रपान कितना घातक है, यह ब्रिटिश मेडिकल जर्नल लैंसेट की उस रिपोर्ट से भी पता चलता है, जिसमें कहा गया है कि स्मोकिंग न करने वाले 40 फीसदी बच्चों और 30 फीसद से अधिक महिला-पुरुषों पर सेकेंड धुम्रपान का घातक प्रभाव पड़ता है। वे अस्थमा और फेफड़े के कैंसर जैसी गंभीर बीमारियों का शिकार बन जाते हैं।
गत वर्ष विश्व स्वास्थ्य संगठन के टुबैको-फ्री इनिशिएटिव के प्रोग्रामर डॉ. एनेट ने धुम्रपान को लेकर गहरी चिंता जताते हुए कहा था कि लोगों को इस बुरी लत से दूर नहीं रखा गया तो गंभीर परिणाम भुगतने होंगे। उल्लेखनीय है कि भारत में धुम्रपान की कुप्रवृत्ति अफ्रीका और दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों में सर्वाधिक है। इसका मूल कारण अशिक्षा, गरीबी और बुनियादी स्वास्थ्य सेवाओं का अभाव है। किसी से छिपा नहीं है कि गांवों और शहरों में हर जगह तंबाकू उत्पाद उपलब्ध हैं। बेहतर होगा कि सरकार रणनीति बनाए कि नौजवानों को इस जहर से कैसे दूर रखा जाए? किस तरह स्वास्थ्य के प्रति सचेत किया जाए? सही है कि सरकार ने सार्वजनिक स्थानों पर धुम्रपान रोकने के लिए कानून बनाए और कठोर अर्थदंड का प्रावधान किया है। लेकिन इसके बावजूद सार्वजनिक स्थलों पर लोगों को धुम्रपान करते देखा जा सकता है। उचित होगा कि धुम्रपान के खिलाफ कानून का सही से क्रियान्वयन भी हो। इसके लिए स्वयंसेवी संस्थाओं सभी को आगे आना होगा। स्कूल इस दिशा में महती भूमिका निभा सकते हैं। स्कूलों में सांस्कृतिक गतिविधयां और खेलकूद बच्चों के बालमन पर सकारात्मक असर डालते हैं। इन गतिविधियों के सहारे बच्चों में नैतिक संस्कार विकसित किए जा सकते हैं।
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