राष्ट्रवाद व सुरक्षा : इन मुद्दों में गलत क्या?
हर चुनाव में यह टिप्पणी फैशन बन गया है कि चुनाव मुद्दाविहीन हो गया या जो मुद्दे होने चाहिए उनकी जगह गैर मुद्दे मुद्दे बन गए। ठीक है कि जो मसले उठे उनमें और जुड़ सकते थे।
राष्ट्रवाद व सुरक्षा : इन मुद्दों में गलत क्या? |
उदाहरण के लिए स्वास्थ्य देश की प्राथमिकता होनी चाहिए। यह मुद्दा उस रूप में नहीं बनता जैसे बनना चाहिए पर नहीं सकते कि यह मुद्दा था ही नहीं। प्रधानमंत्री और भाजपा के नेता एम्स की तर्ज पर नये अस्पातालों से लेकर ‘आयुष्मान भारत’ आदि की चर्चा करते रहे तो कांग्रेस ने सरकारी अस्पतालों में बढ़ोत्तरी की बात उठाई।
दरअसल, जो लोग मुद्दाविहीनता या अनावश्यक मुद्दों को मुद्दा बनाने की बात करते हैं, उनकी सोच में ही दोष है। मसलन, उनकी नजर में राष्ट्रवाद मुद्दा होना ही नहीं चाहिए, क्योंकि यह तो भावनाओं को भड़काने का विषय है। सैन्य पराक्रम पर चर्चा ही नहीं होनी चाहिए; इससे उग्र राष्ट्रवाद भड़कता है। सुरक्षा को चुनाव का मुद्दा बनाना असली मुद्दों से ध्यान भटकाना है। जम्मू-कश्मीर अलग विषय है। इसे चुनाव का मुद्दा बनाकर भाजपा अपनी विफलताओं को ढकना चाहती है। अनुच्छेद 370 और 35 ए का मामला तो सांप्रदायिकता का है। पाकिस्तान के खिलाफ चुनाव में बोलना लोगों को गुमराह करना है। ऐसी और भी बहुत सारी बातें हैं।
क्या वाकई चुनाव में ये सब मुद्दे उठने ही नहीं चाहिए? इन बातों का विरोध इसलिए किया गया क्योंकि संयोग से ये सब भाजपा के पक्ष में जाते दिखते थे। किसी ने दूसरी पार्टयिों को ये मुद्दे उठाने से रोका तो था नहीं। गहराई से विचार करें तो यही वास्तविक मुद्दे हैं और शेष मुद्दे रोजगार, खेती, अर्थव्यवस्था ..सब इसी के अंग-उपांग हैं। हम एक अजीब संस्कारों वाला देश हैं। यहां राष्ट्रवाद, पराक्रम, सुरक्षा आदि से एक बड़े वर्ग के अंदर संस्कारगत वितृष्णा है। दुनिया के प्रमुख देशों की स्थिति उलट है। पड़ोसी चीन कम्युनिस्ट देश है। किंतु चीनी राष्ट्रवाद कम्युनिज्म पर भारी है और इसी कारण वह संकल्प के साथ अपने लक्ष्यों को पाता है। सुरक्षा उसके लिए सर्वोपरि है और राष्ट्र की सीमाओं की अपनी कल्पना से वह टस से मस होने को तैयार नहीं। तिब्बत में हिमालय तक रेल पहुंचा देने का असाधारण करनामा उसने कैसे कर दिखाया? नाभिकीय मिसाइलों का जखीरा उसने हमारे पास हिमालय में बिछा दिया है। डोकलाम भूटान का भाग है, पर वह दावा करता है और उसके लिए उसने कैसी सैनिक जिद की, यह सबके सामने है। जरा सोचिए, अगर हमारे पास सैन्य ताकत नहीं होती और राजनीतिक नेतृत्व दृढ़ निर्णय नहीं करता तो डोकलाम से कभी चीन हटता? हम इस तरह की आक्रामकता का समर्थन नहीं करते, किंतु सच यही है कि राष्ट्रवाद और राष्ट्रीय सुरक्षा को सर्वोपरि रखकर ही चीन ने 80 के दशक के बाद विकास की दिशा में लंबी छलांग लगाई है। सामने रूस है। सोवियत संघ के विघटन के बाद अनेक विश्लेषक रूस के दुर्बल, जर्जर और दयनीय देश होने की भविष्यवाणी कर चुके थे। अपनी बुरी दशा से उबरने के लिए नेतृत्व ने रूसी राष्ट्रवाद की चेतना जागृत की और वह महाशक्ति को चुनौती दे रहा है। इस्रइल तो राष्ट्रवाद के दम पर ही अपना अस्तित्व बनाए हुए है।
आप अमेरिका से यूरोप और ऑस्ट्रेलिया तक नजर दौड़ा लीजिए सब अपने यहां राष्ट्रवाद और राष्ट्रीय सुरक्षा को प्राथमिकता देते हैं और यह चुनाव में मुद्दा रहता है। आतंकवाद के उभार के बाद तो हर देश में पार्टयिों को बताना पड़ता है कि उनकी सुरक्षा नीति क्या है? प्रमुख देशों के यहां राष्ट्रवाद और राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर ऐसी विकृत धारणा नहीं है जैसा हमारे यहां है। यह हमारे देश की त्रासदी है कि यहां अनुवांशिकी में ही ऐसे कुछ विचार रहे हैं। जब 1757 में पलासी का युद्ध हो रहा था तो जितने लोग सिराजुदौला के साथ लड़ने वाले थे, उससे कई गुणा ज्यादा तमाशा देख रहे थे। किसी ने नहीं सोचा कि देश के भाग्य का फैसला होने वाला है। देश गुलाम हो गया। 1857 की क्रांति में लड़ने वालों को अंग्रेज पेड़ों पर फांसी चढ़ाते गए, लेकिन समाज पराक्रम दिखाने उठ खड़ा नहीं हुआ। अफगानिस्तान के छोटे से गांव गजनी से एक लुटेरा आया और मारकाट करता लूटता रहा और लोग उसकी छोटी सेना को सड़कों पर घोड़ा दौड़ाते देखते रहे। हां, भारतीय सिपाहियों ने अपने शासक मालिकों के आदेश पर भारत के लोगों पर अवश्य अत्याचार किए। अंग्रेजी शासनकाल में उनकी पुलिस में ज्यादातर भारतीय ही थे, जिन्होंने स्वतंत्रता सेनानियों या विरोध की आवाज उठाने वालों पर गोलियां-लाठियां चलाई। नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने पराक्रम दिखाया, सैन्य संगठन बनाया और युद्ध लड़ा। उनके 24 हजार से ज्यादा जवान शहीद हुए। किंतु यह देश ऐसा है जहां उनका विरोध भी हुआ।
यह अच्छा संकेत है कि पिछले वर्षो में भारतीय मानस में थोड़ा बदलाव आया है मगर संस्कारगत दोष जा नहीं रहे। इसलिए कुछ लोग प्रचारित करते हैं कि राष्ट्रवाद, पराक्रम, सुरक्षा जैसे विषयों को उठाकर भावनाएं भड़काई जा रहीं हैं। भारत पाकिस्तान और चीन जैसे पड़ोसियों से घिरा है। लंबे समय बाद 2015 में म्यान्मार में और 2016 में पाकिस्तान में सर्जिकल स्ट्राइक करके और इसे दुनिया को बताकर भारत के बदलते संस्कार का परिचय दिया गया। फरवरी 2019 में पाकिस्तान में घुसकर आतंकवादी ठिकानों पर बमबारी ने इस बदलाव को ज्यादा सुदृढ़ किया। 1971 के पहले भारत ने इस तरह कोई युद्ध कब जीता याद नहीं? इसमें चुनाव आ गया तो इसकी चर्चा क्यों नहीं होनी चाहिए, यह समझ से परे है। गुन्नार र्मिडल ने भारत को ‘सॉफ्ट स्टेट’ की संज्ञा यूं ही नहीं दी थी। भारत की वह छवि बदल रही है तो यह चुनाव अभियान में गूंजित होना चाहिए। दूसरे दल भी इसे उठाएं। सरकार ने निर्णय किया तो उसका समर्थन करने एवं पराक्रम को सराहने में विपक्ष संकोच नहीं करता तो माहौल दूसरा होता।
वैसे भी चुनाव में खेती, रोजगार, विकास, जीएसटी आदि सभी मुद्दे उठाए गए। चुनाव अभियान ऐसा समय होता है, जब नेताओं को जनता के सामने सबसे ज्यादा बातें रखने का अवसर मिलता है। ऐसे अवसर को राष्ट्रवाद, राष्ट्रीय सुरक्षा, कश्मीर आदि से वंचित कर देने की सोच सकारात्मक नहीं कही जा सकती। इससे जो वातावरण बनता है, वह लोगों को राष्ट्र का ध्यान रखते हुए काम करने और आवश्यकता पड़ने पर पराक्रम दिखाने के लिए प्रेरित करता है। यह देखकर हमारे सुरक्षा बलों का भी हौसला बढ़ता है कि राजनीतिक पार्टयिां एवं जनता भी उनके पराक्रम को मुद्दा बना रहे हैं। कश्मीर अगर भारत का अभिन्न अंग है तो उसे सामान्य बनाना चुनाव मुद्दा क्यों नहीं होना चाहिए? जाहिर है, इन सब पर प्रश्न उठाना विचारों की विकृति की परिणति है।
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