विश्लेषण : जब मुद्दा केवल व्यक्ति हो

Last Updated 16 May 2019 03:31:55 AM IST

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर अनेक आरोपों में यह आरोप भी जुड़ गया है कि वे मीडिया से बचते हैं, लेकिन यह सही नहीं अपितु इसका उल्टा ही सही लगता है।


विश्लेषण : जब मुद्दा केवल व्यक्ति हो

एक अंग्रेजी अखबार में छपी राहुल गांधी की भेंटवार्ता के पश्चात यह धारणा चल निकली। वास्तव में राहुल और मोदी अलग-अलग तरह के व्यक्ति हैं, उनकी कार्यशैली भी भिन्न ही होगी, जो चुनावी रण में उन की समर नीति का नतीजा हैं। जहां तक उनके मीडिया में कम बोलने या छपने का सवाल है, तो हमें लगता है कि वे इतना बोल चुके हैं कि कुछ दिनों के लिए मौन धारण कर लें तो भी चुनाव में कोई हानि नहीं होगी। पिछले पांच वर्षो में कई स्तरों पर उन्होंने जनता के साथ संवाद किया है, उतना शायद ही किसी प्रधानमंत्री ने किया हो।

चुनाव प्रचार का भी उनका अपना तरीका है। सारी जवानी उन्होंने संघ के प्रचारक की हैसियत में गुजारी। बरसों तक देश के अनेक राज्यों में गांव-कस्बों में जनसंपर्क में ही व्यतीत किए। उसी से उनकी प्रचार शैली विकसित हुई है। मोदी अंग्रेजी की तुलना में भाषायी अखबारों को प्राथमिकता देते हैं क्योंकि उनका अधिकतम लोगों तक पहुंचने का लक्ष्य होता है। अंग्रेजी अखबारों को जब आवश्यकता होती है, उनसे भी मिलते हैं, परंतु पहल नहीं करते। यही सूत्र चैनलों के बारे में भी इस्तेमाल करते हैं।

भाषण, प्रदर्शन, जलसे-जुलूस तो चुनाव प्रचार के आवश्यक अंग हैं, किंतु ये सब शक्ति प्रदर्शन के ही विभिन आयाम होते हैं। एक सार्वदेशिक चुनाव में केवल जातियां ही नहीं, बल्कि बहुत सारे व्यावसायिक वर्ग भी होते हैं, जिनके सदस्य जाति से ऊपर उठें लेकिन व्यावसायिक बंधनों से मुक्त नहीं हो सकते। इस प्रकार के वगरे की जिज्ञासा भाषणों से शांत नहीं होती।

प्रसारित करने से अच्छा तो यही है कि उन वगरे के पास स्वयं जाएं जो जनमत को प्रभावित करने वाले माने जाते हैं। वकील, तकनीक से जुड़े वैज्ञानिक, प्रबंधन संस्थानों के छात्र ऐसे वर्ग हैं, जो करोड़ों अन्य सहकर्मियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। शायद अधिक लोगों ने ध्यान नहीं दिया कि प्रधानमंत्री ने इस बीच कई बार व्यापारियों से सीधी बातचीत की है। नोटबंदी और जीएसटी जैसी नीतियों पर आलोचना का शिकार हो रहे नेता के लिए पीड़ित व्यक्तियों के साथ आमने सामने की बातचीत लंबे भाषणों से अधिक प्रभावी हो सकती है। सही है कि चुनाव भी एक प्रकार की जंग ही होते हैं। इस जंग में अपने मोर्चे को संभाल कर रखना और दूसरे के पाले में धावा बोलना ही वास्तविक हुनर होता है।

मोदी के चुनाव प्रचार की कुछ विशेषताएं आने वाले नेताओं के लिए भी विचारणीय हो तो आश्चर्य नहीं होगा। सबसे बड़ी विशेषता प्रतिपक्ष की कमजोरी को पकड़ कर उसे अपने लिए इस तरह इस्तेमाल करना है कि वह अपनी ताकत बन जाए। ‘चौकीदार चोर है’ प्रतिपक्ष के लिए, एक आक्रामक हथियार के रूप में आ गया किंतु कुछ ही दिनों में वह हथियार मोदी के हाथों में दिखाई देने लगा। ऐसे आरोपों को विपक्ष ने बिना सोचे-समझे इस तरह आगे बढ़ाया कि सर्वोच्च न्यायालय को भी  इस आरोप में पक्षकार बना डाला। नतीजतन, आरोपी स्वयं अदालत के कठघरे में खड़ा हो गया।

आरंभ से ही इस चुनाव में दोनों पक्षों ने अपने-अपने स्थायी मुद्दे चुन लिए थे। कांग्रेस और उसके साथी दलों ने राफेल सौदे को आक्रमण का मुद्दा बना लिया था। इसी से ‘चौकीदार चोर है’ का नारा विकसित किया गया था। मोदी का आरंभ से ही प्रमुख मुद्दा था देश की सुरक्षा। इसकी विशेषता है कि हर भारतीय किसी-न-किसी मात्रा में इससे प्रभावित होता है। इस मामले में सबसे सही प्रतिक्रया इसका विरोध करना नहीं, इस उपलब्धि में शामिल होना था। दुनिया में ऐसे उदाहरण हैं, जहां वह सत्ताधारी दल  चुनाव में हार गया, जिसके नेतृत्व में महायुद्ध जीता गया था। दूसरे महायुद्ध के महानायक चर्चिल की पार्टी ब्रिटेन का आम चुनाव हार गई क्योंकि ब्रिटेन के लोग जंग से तंग आ गए थे।

वे शांति की कामना करते थे। परंतु विपक्ष ने उल्टे उपलब्धियों पर ही प्रहार करने की कोशिश की। संयोग से इस विषय में लगातार ऐसी घटनाएं होती रहीं कि मुद्दा लगातार जनता में चर्चा का विषय बना रहा। सर्जिकल स्ट्राइक हो या बालाकोट का अभियान, यह मुद्दा मतदाता के दिमाग से हटा ही नहीं। इसके उलट राहुल का राफेल मुद्दा धीरे-धीरे फीका पड़ता गया और सुप्रीम कोर्ट के सामने माफी मांगने की घटना के पश्चात लगभग समाप्त हो गया। मोदी ने इस मुद्दे को लगातार भुनाया। संयोग ही  है कि चुनाव का तीसरा चरण आते-आते मसूद अजहर पर यूएन का प्रतिबंध लगा लिया गया। इसने भी मोदी के देश की सुरक्षा के मुद्दे को ही प्रासंगिकता प्रदान कर दी।

इस चुनाव के अंतिम दौर तक पहुंचते-पहुंचते विपक्ष अपने वे आयुध गंवा चुका था, जिनके माध्यम से जीतने का निश्चय कर चुका था। नतीजतन, विपक्ष की सारी पार्टयिां अलग-अलग राग अलापने लगी हैं। ऐसे में चुनाव प्रचार में अराजकता आना भी स्वाभाविक हो जाता है। हुआ तो हुआ वाली घटना को दुर्भाग्यपूर्ण कहा जाए या उसी अराजकता का उदाहरण। दुर्भाग्यपूर्ण इसलिए है कि इस उक्ति के जनक गांधी परिवार के निकट के व्यक्ति ही नहीं अपितु चुनाव में सक्रिय भूमिका निभाने वाले नेता भी रहे हैं। तय है कि राहुल अपने होशो-हवास में चुनावों के दौरान ऐसी प्रतिक्रिया नहीं देते। अराजकता इसलिए है कि कोई केंद्रीय मुद्दा न होने के कारण सब अपनी-अपनी ढफली पर अपना-अपना राग अलापने लगे हैं।

एक मुद्दा अवश्य है-मोदी हटाओ। विपक्ष के लिए जैसे अन्य मुद्दों की आवश्यकता ही समाप्त हो गई है। शायद मोदी भी यही चाहते रहे हों क्योंकि विपक्ष ऐसे मुद्दों से रहित हो, जिनका संबंध मतदाता से हो तो उसकी असलियत मतदाता के सामने रखना आसान है। विपक्ष कितनी ही दलीलें दे कि मिली-जुली सरकारें भी प्रभावशाली होती हैं, मगर हमारा इस मामले में अनुभव सुखद नहीं रहा है। पिछले पांच सालों में बड़ी संख्या में युवकों को पहली बार मतदान करने का अवसर मिलने वाला है। वे मुखर हैं, उन्हें दुनिया भर की जानकारी भी है, उनके सामने कई देशों के मजबूत और कमजोर देशों की मिसालें हैं, और प्रभावशाली नेताओं की भी। इस चुनावी  तौर तरीके से कहा जाने लगा है कि भारत में अमेरिकी तर्ज पर चुनाव होने लगा है, जो बहुजातीय-बहुधार्मिंक देश के लिए अनुकूल प्रणाली नहीं है। लेकिन जब पार्टियां चुनाव को एक व्यक्ति को ही जिताने-हराने तक सीमित कर लें तो जो कुछ हो रहा है, उसमें मतदाता का दोष नहीं, राजनीतिक दलों का है।

जवाहरलाल कौल


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