सामयिकी : नये खेवनहार हैं मल्लाह

Last Updated 16 Apr 2019 06:40:23 AM IST

बिहार के पिछले विधान सभा चुनाव से पहले पटना के अखबारों में पूरे पहले पन्ने के रंगीन और खूबसूरत विज्ञापनों ने वहां की राजनीति में जितनी खलबली नहीं मचाई, उससे ज्यादा इस बार प्रियंका गांधी की प्रयागराज से वाराणसी की नौका यात्रा ने मचाई।


सामयिकी : नये खेवनहार हैं मल्लाह

प्रियंका की यात्रा के बाद सबका ध्यान मल्लाह वोटरों को लुभाने पर गया है। सन आफ मल्लाह मुकेश साहनी की ‘वीआईपी’ पार्टी को उसकी और सबकी उम्मीद के विपरीत बिहार के विपक्षी महागठबंधन ने लोक सभा की तीन सीटें दे दी हैं, तो उत्तर प्रदेश में भी निषाद पार्टी को सपा-बसपा-रालोद गठबंधन से भाजपा ने अपने पक्ष में कर लिया है।
असली खेल यूपी में हुआ जहां गोरखपुर के उपचुनाव में विपक्ष का उम्मीदवार बनकर योगी आदित्यनाथ और भाजपा को धूल चटाने वाले प्रवीण निषाद आखिरकार भाजपा में चले गए। उनको ‘पटाने’ में क्या-क्या हुआ, यह देखने की चीज रही पर उनके आने के बावजूद भाजपा अभी तक इस सीट पर उम्मीदवार तय नहीं कर पाई है, जबकि कांग्रेस ने फूलन देवी के पति उम्मेद सिंह समेत दो मल्लाह उम्मीदवार उतारे हैं, तो विपक्ष की तैयारी उससे आगे जाने की है।

बिहार में वीआईपी पार्टी के मुखिया और खगड़िया से महागठबंधन के उम्मीदवार मुकेश सहनी का परिवार मुंबई के फिल्म उद्योग में सेट लगाने का काम करता है, और काफी पैसे वाला माना जाता है, बल्कि जब उन्होंने विज्ञापनों और एक बड़े राजनैतिक जलसे के सहारे बिहार के मल्लाहों को एकजुट करने और महागठबंधन तथा एनडीए, दोनों तरफ सीटों की सौदेबाजी शुरू  की तो कई लोगों को लगा कि वे किसी और के पैसों पर और किसी और के लिए यह ‘खेल’ कर रहे हैं। बिहार में आम तौर पर पिछड़ों की पसंद बने गठबंधन की जगह जब उन्होंने मात्र दो विधानसभा सीटों पर एनडीए से समझौता किया तो उनको हल्का खिलाड़ी माना गया। इस बार वे पूरी तैयारी और होशियारी से जुटे थे और उनको कीर्ति आजाद और अशरफ फातमी जैसे बड़े खिलाड़ियों की जगह दरभंगा सीट दिए जाने की चर्चा काफी समय से थी। पर आखिर में वे खुद खगड़िया और दो और स्थान झटकने में सफल रहे जिनमें अब मल्लाहों की सीट गिना जाने वाला मुजफ्फरपुर क्षेत्र भी शामिल है। वहां उनका बाहरी मल्लाह उम्मीदवार स्थानीय अजय निषाद से कैसी लड़ाई लड़ता है, इस पर सबकी नजर  है। उत्तर प्रदेश में मल्लाह वोटों का असर दिल्ली की मीडिया को भले प्रियंका की नाव यात्रा से दिखा पर राजनीति के असली उस्ताद लोग इस चीज को काफी समय से भांप रहे थे। जब फूलन देवी जेल से बाहर आई तभी सारे राजनैतिक दल उनके सामने यों ही लाइन लगाके खड़े नहीं हुए थे। कौन-कौन उनसे मिला और किस तरह वे जातिवादी राजनीति की ही शिकार बनीं (चम्बल के बीहड़ से जिंदा निकलकर दिल्ली में मारी गई)। यह चर्चा खास मतलब की नहीं है। वे अपने बूते सपा की सांसद बनीं। उनके आने से पार्टी को कई सीटों पर अप्रत्यक्ष लाभ भी हुआ। तब से सपा और बसपा ही नहीं अन्य पार्टयिों की सूची में काश्यप, मल्लाह, निषाद, धीमर, गंगोता, बिंद जैसे अलग-अलग 157 नामों से जानी जाने वाली इस जाति के उम्मीदवार छिटपुट दिखने और जीतने लगे थे।
इधर, निर्बल इन्डियन शोषित हमारा आम दल अर्थात निषाद पार्टी (प्रथमाक्षरों से बना नाम) ने पूर्वाचल में अति पिछड़ों को साथ लेकर जब मल्लाहों को एकजुट करना शुरू किया (यही राजभरों को केंद्र में रखकर सुहेलदेव पार्टी ने किया) तो सबका ध्यान उसके असर पर जाने लगा। पिछले विधानसभा चुनाव में पूरब खासकर गोरखपुर के आसपास की सीटों पर उसका प्रभाव देखकर ही सपा-बसपा ने पिछले साल हुए उपचुनाव में निषाद पार्टी के मुखिया संजय निषाद के पुत्र प्रवीण निषाद को साझा उम्मीदवार बनाया और भाजपा को पटखनी देकर उत्तर प्रदेश में विपक्षी एकता की शुरु आत की। अब संजय फिर से योगी जी की सेवा में पहुंच गए हैं पर उन्हें एनडीए अपने चिह्न पर लड़ने देगा या गठबंधन में कितना महत्त्व देगा, देखा जाना है। उनकी पूछ अचानक बढ़ना अपवाद की घटना नहीं है। जैसे ही मल्लाहों के बीच राजनैतिक चेतना और सत्ता में भागीदारी की भूख बढ़ी है, सब उनके राजनैतिक महत्त्व को समझने लगे हैं। भले गंगा किनारे की अस्सी संसदीय सीटों (पांच राज्यों की) पर मल्लाहों की आबादी 13 फीसद न गिनी गई हो (जिसका दावा मल्लाह नेता करते हैं) लेकिन उनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। जब पक्ष-विपक्ष की मारामारी हो तो हर वोट या मतदाता समूह अपने से दो गुना वजन रखता है-एक तरफ से दूसरी तरफ जाने पर व्यवहार में यही होता भी है। इसी गोरखपुर सीट पर 2014 में जब योगी लड़े थे, तब सपा ने राजमति निषाद और बसपा ने रान भुआल निषाद को इसी मल्लाह गोलबंदी के चलते टिकट दिया था।
मल्लाह गोलबंदी से उनकी ताकत बढ़ने और पहचानी जाने का सबसे अच्छा उदाहरण बिहार के उत्तरी हिस्से की राजधानी मानी जाने वाले मुजफ्फरपुर की लड़ाई है। कभी राजपूत बनाम भूमिहार की लड़ाई यहां का मुख्य सामाजिक समीकरण थी। तब सपा ने रामकरण सहनी नामक सामान्य कार्यकर्ता को लड़ाकर लगभग एक लाख वोट पक्का करना शुरू किया। पर जब से जयनारायण निषाद ने मोर्चा संभाला तब से मुजफ्फरपुर मल्लाह राजनीति का केंद्र बन गया है। सभी पार्टयिां मल्लाह उम्मीदवार ही नहीं दे रहीं, बल्कि हारे हुए मल्लाह उम्मीदवारों को राज्य सभा और विधानपरिषद में भी भेजने लगी हैं।
सो, प्रियंका की नाव यात्रा से मल्लाह कांग्रेस की तरफ आ जाएंगे या अस्सी सीटों पर कांग्रेस किसी तरह की लाभ की स्थिति में आ गई हो, यह निष्कर्ष निकालना चारण पत्रकारों का काम होगा पर आजादी के इतने साल और मंडल की राजनीति के परवान चढ़ने के तीन दशक बाद अगर कोई भर, कहार, मल्लाह, कुम्हार, माली, पनवाड़ी, भड़भूज, सैंथवार, गड़रिया, लोहार, बढ़ई जैसी अति पिछड़ी जातियों के राजनैतिक वजूद को भूलने या न मानने की गलती करे तो उसे इसी मुख्यधारा की राजनीति के हाल के मल्लाह-प्रेम पर ध्यान देना चाहिए। यह लोकतंत्र का कमाल है। इसमें मेरा नम्बर कब आएगा की गुहार नहीं लगाना होती। अपना नम्बर खुद लगाना होता है। जिस समुदाय को यह समझ आ जाती है, उसका नम्बर खुद आ जाता है। अभी मल्लाहों का नम्बर आया है।

अरविन्द मोहन


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