जेल : सुधारों की दरकार
बीते दिनों दिल्ली उच्च न्यायालय ने भारतीय जेलों में विदेशी कैदियों के साथ होने वाली दिक्कतों को लेकर केंद्र सरकार को निर्देश दिया है कि वह अदालत मित्र की रिपोर्ट की जांच परख करके अपने सुझाव दे।
जेल : सुधारों की दरकार |
दरअसल, एक विदेशी महिला ने अदालत को पत्र लिखकर कहा था कि उसके साथ जेल में भेदभावपूर्ण ज्यादतियां की जा रही हैं। इस पर अदालत ने सभी विदेशी कैदियों को इस मसले पर सम्मिलित करते हुए एक जनहित याचिका शुरू की थी और पड़ताल के लिए एक अदालत मित्र की नियुक्ति की थी। अब अदालत मित्र की रिपोर्ट पीठ के समक्ष रखी गई है। इसमें कहा गया है कि भारतीय जेलों में विदेशी कैदियों को जमानत में देरी, कानूनी प्रक्रियाओं को समझने में मुश्किल तथा भाषायी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। इसी रिपोर्ट पर अदालत ने केंद्र सरकार को सुझाव देने का निर्देश दिया है।
देखा जाए तो बात बस विदेशी कैदियों तक सीमित नहीं है। वास्तव में भारतीय जेलों में हर तरह के कैदियों के लिए भारी समस्या है। जेल के प्रति अधिकांश लोगों में यह धारणा मिल जाएगी कि जेल एक यंतण्रा-स्थल होती है, जहां अपराधी को उसके अपराधों के लिए यातनाप्रद ढंग से रखकर दण्डित किया जाता है। निस्संदेह जेल में व्यक्ति को अपेक्षाकृत कठिन परिस्थितियों में ही रहना होता है, परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि वह यंतण्रा-स्थल होती है। वास्तव में, जेल का उद्देश्य किसी भी अपराधी को उसके अपराध के लिए दण्डित करने के साथ-साथ उसे स्वयं में सुधार लाने का एक अवसर देना भी होता है। जेलों में कैदियों को पढ़ने-लिखने से लेकर कौशल-विकास करने तक के अवसर उपलब्ध कराए जाते हैं। बावजूद इसके अधिकांश जेलों की स्थिति किसी भी प्रकार से ठीक नहीं है। इसी के मद्देनजर जेल सुधार की मांग उठती रहती है।
बीते वर्षो के दौरान सर्वोच्च न्यायालय ने 2013 में दाखिल जेलों में बंद कैदियों से संबंधित एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए जेल सुधार से संबंधित निर्देश जारी किए थे। याचिका में कहा गया था कि देश भर की 1382 जेलों में कैदियों की स्थिति बेहद खराब है। प्रश्न है कि आखिर, जेलों की दुर्दशा का कारण क्या है ? जेलों की दुर्दशा के मुख्य कारण को समझने के लिए इस आंकड़े पर गौर करना आवश्यक होगा कि देश की सभी जेलों में कुल मिलाकर 3,32,782 लोगों को रखने की क्षमता है, जबकि राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की 2015 की रिपोर्ट के अनुसार देश भर की जेलों में 4,11,992 कैदी हैं यानी जेलों की क्षमता से 79,210 अधिक कैदी इस वक्त उनमें मौजूद हैं। ये 2015 का आंकड़ा है। हो सकता है कि तब से अब तक इसमें कुछ मामूली फर्क आ गया हो। पर मोटे तौर पर स्थिति यही है कि भारतीय जेलों में उनकी क्षमता से बहुत अधिक कैदी भरे हुए हैं। ऐसे में जेलों की हालत बदहाली की शिकार होती है, तो अचरज नहीं। गजब यह कि कुल कैदियों में से लगभग 67 फीसद विचाराधीन हैं यानी 67 फीसद कैदी ऐसे हैं, जिनके मामलों में अभी कुछ भी सिद्ध नहीं हुआ है, लेकिन उनको भी जेल में रखा गया है। इनमें तमाम कैदी निर्दोष भी हो सकते हैं। बहुत से कैदी ऐसे भी हो सकते हैं, जो अपने आरोप के लिए संभावित सजा की अवधि से अधिक समय जेल में बिना कुछ सिद्ध हुए ही बिता चुके हों। जेलों में कैदियों की यह ठूसमठूस उनकी दुर्दशा का मूल कारण है।
कहना न होगा कि जेल सुधार की पहली सीढ़ी यही है कि न्यायिक प्रक्रिया को दुरुस्त किया जाए ताकि जेल में मौजूद कैदियों की ठूसमठूस भीड़ में कमी आए। जेल सुधार की दिशा में अब तक कोई ठोस कदम भले न उठाया गया हो, लेकिन आजादी के बाद जेल सुधार से संबंधित सुझावों के लिए विभिन्न समितियों का गठन जरूर किया गया। इनमें वर्ष 1983 की मुल्ला समिति, 1986 की कपूर समिति और 1987 की अय्यर समिति प्रमुख हैं। इनने जेलों में सुधार से संबंधित विविध सुझाव भी दिए। लेकिन उन्हें ठंडे बस्ते में डाल दिया गया।
आज जेल सुधार के लिए एक चरणबद्ध योजना पर काम करने की आवश्यकता है। जेलों में भीड़ कम होने पर संबंधी अनेक समस्याएं स्वत: समाप्त हो जाएंगी। स्थूल समस्याएं नहीं रहेंगी तो कैदियों की मानसिकता आदि से संबंधित सूक्ष्म समस्याओं पर ध्यान दिया जा सकता है। कैदियों की काउंसलिंग आदि के जो निर्देश सर्वोच्च न्यायालय ने दिए हैं, उन पर भी काम किया जा सकता है। लोकतांत्रिक और मानवाधिकारों के सनातन समर्थक राष्ट्र में जेल सुधार से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता।
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