मुद्दा : लोकतंत्र और युवा शक्ति

Last Updated 17 Apr 2019 05:58:16 AM IST

अभी लोक सभा चुनाव की सरगर्मी है, और चारों तरफ इस बात की चर्चा है कि कौन पार्टी किससे बेहतर या कौन नेता किससे बेहतर।


मुद्दा : लोकतंत्र और युवा शक्ति

इन तुलनात्मक विमशरे में हम वास्तविक मुद्दों की खोज स्थगित कर देते हैं। समानता, भाईचारा और स्वतंत्रता के मौलिक सवाल कहीं पीछे छूट गए। कारण क्या हैं?
कारण अनेक होंगे। लेकिन एक प्रधान  कारण, जिसकी ओर इंगित करना चाहूंगी, है भारतीय राजनीति और युवाओं के बीच एक गहरा फासला अथवा दूरी। जब हमारा संविधान बना था, तब वोटर बनने की न्यूनतम उम्र इक्कीस वर्ष थी। 1990 के दशक में यह घट कर अठारह हो गई अर्थात युवा वोटरों की तादाद अचानक बहुत बढ़ गई। 2004 में भारत में तीस वर्ष तक के मतदाताओं की संख्या कुल मतदाता संख्या के पचास प्रतिशत यानी आधा थी। लेकिन 543 सदस्यों वाली लोक सभा में इस उम्र सीमा तक के कुल पैंतीस  सदस्य थे। गणितीय हिसाब में महज छह प्रतिशत। अब पचास फीसद आबादी के लिए जब छह फीसद प्रतिनिधि रहेंगे, तब लोकतंत्र कैसा होगा? युवा आकांक्षाओं की परवाह हमारी लोकतांत्रिक सरकारों को इसीलिए बहुत कम रही है। अठारह से 30 की उम्र के युवा ही समुचित शिक्षा व्यवस्था, बेहतर जीवन और सम्यक रोजगार की आकांक्षा पालते हैं। इनके अरमानों को जाति, धर्म और राष्ट्रवाद के झूठे उन्माद की वेदी पर चढ़ा देना भारतीय राजनीति की खास पहचान बन गई है। यदि युवा शक्ति कमर कस ले तो भारतीय राजनीति में एक मूलभूत परिवर्तन संभव हो सकेगा। लेकिन यह करेगा कौन? दुनिया के दूसरे देशों में भी इस विषय पर सामाजिक-राजनीतिक विचारकों ने समय-समय पर विचार लिया है। 1968 में फ्रांसीसी लेखक विचारक ज्यां पॉल सार्त्र ने युवाओं के एक विद्रोही तबके का नेतृत्व किया था। फ्रांस की राजनीति में इसके सकारात्मक परिणाम आए।

इससे प्रभावित हो देश में प्रतिष्ठित समाजवादी विचारक जयप्रकाश नारायण ने 1973 में गुजरात में उठे युवा आंदोलन में हस्तक्षेप किया। यह आंदोलन भौतिक जरूरतों को लेकर उठा था। अनाज की कीमतों में बढ़ोतरी से छात्रावासों  की फीस अचानक बढ़ गई थी। यह कोई भावनात्मक मुद्दा नहीं था। शुद्ध आर्थिक मुद्दा था। छात्र उससे अप्रभावित कैसे रह सकते थे। उस वक्त जयप्रकाश नारायण ने गुजरात  के छात्र नौजवानों के नाम पत्र लिखा, जिसका शीषर्क था-‘यूथ फॉर डेमोक्रेसी’। यह पत्र न केवल गुजरात के नवनिर्माण आंदोलन बल्कि 1974 के बिहार आंदोलन का भी  वैचारिक आधार बन गया। 1970  के दशक में भारतीय राजनीति इस युवा हस्तक्षेप से नई ऊर्जा पा सकी। इस युवा हस्तक्षेप से राजनीति में जातिवाद और संप्रदायवाद के मुद्दे गौण हो गए थे। यह अलग बात है कि इस आंदोलन से निकले नेताओं ने इस युवा अंगड़ाई को; उसके संकल्पों को खुद ही भुला दिया। इसका नुकसान भारतीय राजनीति ने इस रूप में झेला कि 1980 के दशक में संप्रदायवाद राजनीति का केंद्रक बन गया और 1990 के दशक में जातिवाद। संप्रदायवाद और जातिवाद आज तक हमारी राजनीति की मुख्य धुरी बने हुए हैं। जिन लोगों ने भी आधुनिक भारत का इतिहास थोड़ा-बहुत जाना है, वे युवा शक्ति के महत्त्व से परिचित हैं। 1930  के दशक में भगत सिंह और उनके साथियों ने भारतीय राजनीति को अपनी ताकत और समझदारी से अवगत कराया था। 1930 के दौर का राष्ट्रीय आंदोलन चाहे किसी के भी नेतृत्व में चले, वह अनुप्राणित था तो भगत सिंह की शहादत  से। 1940 के दशक में सबसे बड़ा आंदोलन 1942 का भारत छोड़ा आंदोलन था। सभी बूढ़े नेता जेल चले गए थे। छात्र-नौजवानों ने बिना किसी नेतृत्व के, अपने विवेक और समझदारी से इस आंदोलन को स्वतंत्रता का निर्णायक आंदोलन बना दिया। न जाति के प्रश्न उठे, न ही मजहब के। यह युवा शक्ति की खासियत होती है।
  दुर्भाग्यपूर्ण है कि सभी राजनीतिक दल इस युवा शक्ति को जाग्रत करने से परहेज करते हैं। संसद और विधानसभाओं में जब यथेष्ट संख्या में युवा पहुंचेंगे तब उनका चरित्र बदलेगा। वे वास्तविक मुद्दों पर राजनीति को केंद्रित करेंगे। उनके पास अनुभव के अभाव हो सकते हैं, लेकिन उनमें  त्याग, जोश और सोच का जो घनीभूत भाव है, उससे हमारी राजनीति और लोकतंत्र मजबूत होगा। युवा शक्ति ने कभी बुजुगरे का अनादर नहीं किया है, बल्कि उन पर भरोसा किया है। राजनीति की बुजुर्ग शक्तियों ने यदि युवा शक्ति पर जयप्रकाश नारायण की तरह भरोसा करना सीखा, तब न केवल भारतीय राजनीति की, बल्कि भारत की भी तकदीर बदलेगी। लोकतंत्र भी अधिक मजबूत होगा।

रागिनी शर्मा


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