शानदार जीत पर संकट भी

Last Updated 14 Apr 2019 06:57:16 AM IST

इस्रयल में बेंजामिन नेतन्याहू रिकॉर्ड पांचवीं बार प्रधानमंत्री बनने जा रहे हैं और पश्चिम एशिया ही नहीं पूरे विश्व में उनकी विस्तारवादी नीतियों को लेकर चिंता व्याप्त है।


शानदार जीत पर संकट भी

नेतन्याहू देश के राजनीतिक इतिहास में सबसे अधिक अवधि तक प्रधानमंत्री बनने की उपलब्धि हासिल कर लेंगे। उनकी राजनीतिक सफलता के पीछे देश की सुरक्षा सुनिश्चित करने और सहयोगी दलों को साथ लेकर चलने की क्षमता भी है। भले ही उन्होंने अपने मुख्य विपक्षी दल की तुलना में केवल एक सीट ही अधिक पाई है, लेकिन उनके साथ कई ऐसे सहयोगी दल हैं, जो आगामी सरकार को स्थायित्व प्रदान करेंगे। सरकार का यह स्थायित्व उन्हें फिलिस्तीन के बारे में अपनी विस्तारवादी नीतियों को लागू करने में सहायक होगा। साथ ही, भ्रष्टाचार के आरोपों की चल रही जांच के संभावित नतीजों से भी सुरक्षा प्रदान करेगा।
चुनाव के दौरान ही अमेरिका ने सीरिया की सीमा से लगने वाली कब्जे वाली गोलन हाइट्स पर इस्रयल की संप्रभुता स्वीकार कर ली थी। इससे नेतन्याहू को मतदाताओं का समर्थन तो हासिल हुआ ही साथ ही उनका यह हौसला भी बढ़ा कि वह भविष्य में यदि पश्चिमी किनारा क्षेत्र पर अपने कब्जे को स्थायी रूप देने का प्रयास करते हं, तो अमेरिका उनका साथ देगा।
अमेरिका और पश्चिमी देश लंबे समय से पश्चिम एशिया में दो राज्य फार्मूला की वकालत करते रहे हैं। बेंजामिन नेतन्याहू ने अपनी कट्टर नीतियों के कारण इस फामरूले को असरहीन बना दिया है। वह शक्ति-प्रदर्शन में विश्वास रखते हैं और फिलिस्तीनियों को कम से कम रियायत देने में भरोसा रखते हैं।

नेतन्याहू ने चुनाव के दौरान वादा किया था कि वह पश्चिमी किनारे के क्षेत्र पर अपने कब्जे को स्थायी रूप देंगे। पश्चिमी देश उनके इस फैसले को लेकर चिंतित हैं तथा वे नई सरकार पर  जोर देंगे कि वह ऐसा कोई अतिवादी कदम न उठाए। अमेरिका ने उनके इस इरादे की खुली आलोचना नहीं की है, और व्हाइट हाउस का मानना है कि इससे भविष्य में होने वाली शांति वार्ता पर विपरीत असर नहीं पड़ेगा। फिलिस्तीनियों के लिए नेतन्याहू की जीत ने अस्तित्व का संकट पैदा कर दिया है। पश्चिमी किनारे में पहले से ही इस्रयल ने आवासीय बस्तियां कायम कर रखी हैं तथा आधारभूत ढांचे के विकास के कारण यह क्षेत्र इस्रयल से काफी हद तक जुड़ चुका है।
पश्चिम एशिया के विभिन्न देशों में संघर्ष आपसी प्रतिद्वंद्विता और अंतरराष्ट्रीय हालात ऐसे हैं कि अरब देशों समेत विश्व समुदाय नेतन्याहू पर कारगर दबाव डालने की स्थिति में नहीं है। ऐसे में दो राज्य फार्मूला लागू किए जाने की संभावना बहुत अधिक क्षीण हो गई है। अपनी सक्रिय कूटनीति के कारण नेतन्याहू ने विश्व के प्रमुख नेताओं के साथ दोस्ताना संबंध भी कायम किए हैं। अपने परंपरागत समर्थकों के अलावा रूस के राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन और भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी उनके दोस्तों की सूची में शामिल हैं।
भारत परंपरागत रूप से फिलिस्तीनियों का समर्थक रहा है। वह पश्चिमी किनारा क्षेत्र गाजा पट्टी और गोलन हाइट्स पर इस्रयल के कब्जे को अवैध मानता है। संयुक्त राष्ट्र से भी उसने लगातार इस्रयल के खिलाफ मतदान किया है। हाल के वर्षो में दोनों देशों के बीच संबंधों में आशातीत सुधार हुआ है। मोदी की इस्रयल यात्रा से दोनों नेताओं के बीच गर्मजोशी के दोस्ताना संबंध बने हैं। इस बदलाव का कारण भारत के राष्ट्रीय हित भी है। सीमापार आतंकवाद का दशकों से सामना कर रहा भारत इससे निपटने के लिए इस्रयल का अनुभव, उसकी रणनीति, खुफिया सूचना एकत्र करने की प्रणाली और सैनिक साजोसामान हासिल करना चाहता है। इसमें सफलता भी मिली है। परदे के पीछे दोनों देशों के बीच सहयोग बहुत व्यापक है। बावजूद इसके भारत का नेतृत्व फिलिस्तीन के संबंध में नेतन्याहू के विस्तारवादी नीति का समर्थन नहीं करेगा।
चुनाव में नेतन्याहू भले ही जीत गए हों लेकिन उनके खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच जारी है। हो सकता है कि कुछ ही महीने बाद उनके खिलाफ आरोप पत्र दाखिल हो जाए। संसद में अपने बहुमत के आधार पर वह ऐसा कानून बना सकते हैं कि जिससे उन्हें मुकदमे का सामना करने से छूट मिल जाए। यदि ऐसा नहीं हुआ तो उन्हें प्रधानमंत्री पद छोड़ना होगा। ऐसे में देश में राजनीतिक अस्थिरता पैदा होने की संभावना है।

डॉ. दिलीप चौबे


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