बेरोजगारी : बेकल करते आंकड़े
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 2014 लोक सभा चुनाव के दौरान वादा किया था कि उनकी सरकार बनी तो हर साल 2 करोड़ लोगों को रोजगार दिया जाएगा।
बेरोजगारी : बेकल करते आंकड़े |
किन्तु चुनाव के बाद की स्थितियां स्पष्ट करती हैं कि उनका रोजगार संबंधी वादा दूर-दूर तक पूरा नहीं हुआ है। अब जबकि उनका कार्यकाल खत्म होने को है, तो उनसे लोग रोजगार को लेकर सवाल पूछ रहे हैं।
सेंटर फॉर मॉनिटिरंग इंडियन इकोनॉमी की तरफ से जारी आंकड़ों के मुताबिक फरवरी, 2019 में बेरोजगारी दर 7.2 फीसद पहुंच गई। यह सितम्बर 2016 के बाद की सबसे ज्यादा है। पिछले साल सितम्बर में यह आंकड़ा 5.9 फीसदी था। रिपोर्ट के मुताबिक, जहां पिछले साल 40.6 करोड़ लोग नौकरी कर रहे थे, वहीं इस साल फरवरी में यह आंकड़ा केवल 40 करोड़ रह गया। इस हिसाब से 2018 और 2019 के बीच करीब 60 लाख लोग बेरोजगार हो गए। कई अर्थशास्त्रियों द्वारा इन आंकड़ों को सरकार द्वारा जारी किए जाने वाले बेरोजगारी के आंकड़ों की तुलना में अधिक विसनीय माना जाता है। ऐसे में चुनाव से पहले बेरोजगारी दर में ऐसी वृद्धि मोदी के लिए चिंता का सबब बनने वाली है। हालांकि सरकार बेरोजगारी की अपने स्तर पर आंकड़ा जारी करती है, और सरकार ने बार-बार कहा है कि बेरोजगारी दर मापने के पुराने मापदंड में बदलाव की जरूरत है, लेकिन हाल में मोदी सरकार पर बेरोजगारी के आंकड़े को छुपाने का भी आरोप लग चुका है। रोजगार के आंकड़े को लेकर मोदी सरकार पर गंभीर आरोप लगाते हुए नेशनल स्टेटिस्किल कमीशन के दो अधिकारियों ने अपना इस्तीफा तक दे दिया था। जिस सरकारी आंकड़े को उन्होंने छुपाने कोशिश की थी, उसमें खुलासा किया था कि बेरोजगारी 45 साल के उच्चतम स्तर को छूते हुए 6.1 फीसद पर पहुंच चुकी है। यह आकंड़ा नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस के पीरियोडिक लेबर फोर्स सर्वे से सामने आया था। इसे लेकर मोदी सरकार चौतरफा घिर गई थी।
एनएसएसओ की यह रिपोर्ट ही अकेले नहीं, बल्कि किसानों की आत्महत्या, एनएसएसओ वार्षिक रोजगार सर्वेक्षण रिपोर्ट, कृषि मजदूरी डेटा, अन्य पिछड़ा वर्ग से संबंधित जातीय आंकड़े, राष्ट्रीय पोषण सर्वेक्षण रिपोर्ट और विदेशी निवेश के आंकड़ों को भी मोदी सरकार जनता के सामने नहीं लाई। उसे डर है कि कहीं ये आंकड़े सार्वजनिक हो गए, तो विपक्ष को उसके खिलाफ और मुद्दे मिल जाएंगे। वह उसके खिलाफ हमलावर हो जाएगा। 2014 के आम चुनाव में रोजगार बड़ा मुद्दा था। अब एक बार फिर बेरोजगारी पर कुछ आंकड़े सामने आए हैं, जो चुनाव में मोदी के लिए चिंता का सबब बन सकते हैं। यह भी कहा जा सकता है कि अपनी तमाम उपलब्धियों के बीच बड़ी चालाकी से मोदी सरकार रोजगार सृजन के ‘कमजोर आंकड़ों’ को ढकने में सफल रही है। संसद में कई बार पीएम मोदी ने रोजगार के कई ऐसे आंकड़े पेश कर बताने कि कोशिश की उनके कार्यकाल में लोगों को पर्याप्त रोजगार मुहैया कराया गया है। फिर भी पहली मर्तबा नहीं है, जब किसी सरकारी रिपोर्ट में देश के अंदर बेरोजगारी की विकराल स्थिति सामने आई हो, बल्कि इससे पहले भी भारतीय अर्थव्यवस्था निगरानी केंद्र ने अपने सर्वेक्षण के आधार पर कहा था कि ठीक नोटबंदी के बाद 2017 के शुरुआती चार महीनों में ही 15 लाख नौकरियां खत्म हो गई थीं। नोटबंदी का ज्यादा असर रियल इस्टेट और कृषि क्षेत्र पर पड़ा था। जाहिर है देश में रोजगार और बेरोजगारी की भीषण स्थति है। अफसोस, प्रधानमंत्री अपने वादे पर बिल्कुल खरे नहीं उतरे।
उलटे उनके कार्यकाल में नौकरियां और कम हो गई जबकि प्रधानमंत्री और उनके मंत्रिमंडल के कई वरिष्ठ मंत्री डींगे हांकते नहीं थकते कि मुद्रा लोन की बढ़ती संख्या और ईपीएफओ के साथ नये पंजीकरण बताते हैं कि नौकरियों में वृद्धि हुई है। चलो, उनकी बात सही मान भी ली जाए तो सवाल वहीं आकर ठहर जाता है कि नौकरियों में यदि वृद्धि हुई है, और नये काम के मौके बन रहे हैं, तो देश में इतनी बेरोजगारी क्यों है? ऐसे में लोक सभा चुनाव से ठीक पहले इन आंकड़ों विपक्ष को मोदी सरकार को घेरने का मौका मिल गया है। खैर, देश की राजव्यवस्था की इस दिशा में आज तक जिस प्रकार की प्रतिक्रिया रही है, वही सबसे बड़ी समस्या है। अर्थात सरकार ने कभी भी बेरोजगार के विषय को चुनौती के रूप में नहीं लिया। पिछले कई दशकों से यह सामान्य समस्या रही। आज जब इसने संकट का रूप लेना शुरू कर दिया है, तब केंद्र और राज्य सरकारे इस संकट से बचने का प्रयास आंकड़े के माध्यम से करने की कोशिश में हैं। अगर इस समस्या का हल नहीं निकाला गया तो भारत के भविष्य पर गहरा अंधेरा छा सकता है।
| Tweet |