विमर्श : संकट का हल सांस्कृतिक आंदोलन

Last Updated 17 Mar 2019 01:44:18 AM IST

पिछले दिनों, ओम थानवी जी का ‘मुअनजोदड़ो वृत्तांत’ दोबारा पढ़ते देख बच्चों सवाल ‘नगर राज्य’, यानी सिटी स्टेट को लेकर भी था। मुअनजोदड़ो की नागरिक व्यवस्था से प्रभावित होकर वह जानना चाहते थे कि क्या हम फिर से ‘नगर राज्य’ की व्यवस्था की ओर नहीं लौट सकते।


विमर्श : संकट का हल सांस्कृतिक आंदोलन

दरअसल, वह आज की अराजक महानगरीय व्यवस्था से क्षुब्ध होकर ही इस सवाल से जूझ रहे थे। उन्हें बदले हुए हालात और समस्याओं की जटिलता समझाने की अपनी हर कोशिश मुझे बेअसर होती दिखाई दी।
नई पीढ़ी के बच्चों में ‘लोक-गणराज्य’ की व्यावहारिक प्रवृत्तियों से विमुख होने की मानसिकता तेजी से उभर रही है। यह पीढ़ी लोकतंत्र की किताबी मान्यताओं के अधीन अपने भविष्य को सुरक्षित मानने को तैयार नहीं। जिसे आम तौर पर हम उत्साह में सार्वजनिक हितों का स्रोत मानते हैं, वह व्यवस्था इतने दशकों के जमीनी अनुभवों के बाद नई पीढ़ी को अपर्याप्त दिख रही है। उसके सामने आज कोई तनावमुक्त सार्थक विकल्प नहीं है। भौतिक उपलब्धियों और विकास की ग्लोबल अवधारणाओं के बावजूद, ये दुनिया इस संवेदनशील पीढ़ी को ‘सारहीन’ नजर आने लगी है। वह आज खुद को निराशा की एक त्रासद स्थिति में पाती है। उसके सामने जो सिक्काबंद विकल्प हैं भी, उनमें अधिकांश उसे प्रगतिगामी और रूढ़ महसूस होते हैं, जिनमें उसे सामाजिक हिंसा और संकीर्ण विचारधाराओं के विभाजनकारी तत्व छिपे दिखते हैं। इस पीढ़ी के मन में झांकिए तो स्थिति की गंभीरता के स्पष्ट संकेत आपको दिख जाएंगे।

लोकतंत्र की प्राचीन परंपराओं और ‘गणराज्य’ के तमाम उद्घोष उसे खोखले लगते हैं। समाज में अपने लिए किसी सुरक्षित स्थान की तलाश उसके जीवन का एकमात्र आदर्शवादी ध्येय बनकर रह गया है। तकनीकी संस्थाओं में अपना कॅरियर गढ़ने की आपाधापी के कारण उसे अपनी सारी कोशशें विफल होती नज़र आती हैं। हाल के कुछ वर्षो में, कई हाई-प्रो.फाइल अकादमिक संस्थाओं में प्रतिभाशाली युवक-युवतियों की आत्मघाती वारदात बढ़ी हैं। पढ़े-लिखे और दक्ष युवाओं के मन में अतिवादी समूहों के प्रति बढ़ता आकर्षण भी इसी एकांतिक मानसिकता का परिचायक है।
नई उम्र के बच्चों में, जो अब महज बच्चे नहीं रह गए हैं, लोकतंत्र के सांस्कृतिक आयामों के प्रति कोई आत्मीय झुकाव नहीं रह गया है। वह सत्ता की सांगठनिक व्यवस्था की सच्चाई से अच्छी तरह परिचित हैं। वे जानते हैं कि आज के समय में सत्ता की प्राप्ति और उसका विकास लोकतंत्र के आदर्शवादी सिद्धांतों के अनुरूप संभव नहीं। अब के समय में, राजनीतिक दलों का गठन उदारवादी, प्रगतिशील और व्यापक सामाजिक न्याय के मूल्यों के समरूप नहीं होता। संकीर्ण जातीय या धर्मिक नारों के सहारे सामाजिक गोलबंदी का दर्शन लोकतंत्र की बुनियादी आकांक्षाओं का निषेध है, यह जानते हुए भी, अधिकांश राजनीतिक दल इन्हें ही अपने मूल वैचारिक आधार के रूप में स्वीकारते हैं। इससे लोकतांत्रिक परिदृश्य और मूल्यों का न सिर्फ क्षरण होता है, बल्कि देश की सांस्कृतिक संरचना पूरी तरह भंग हो जाती है। सामाजिक स्तर पर इसके दुष्परिणाम हर नागरिक को झेलने पड़ते हैं। ऐसे में, संकीर्ण जातीयता और उन्मादी धार्मिकता को हम किसी ‘अस्मिता’ का नाम नहीं दे सकते। अस्मिताएं लोकतंत्र की संस्कृति की बुनियादी जड़ों पर हमला कर उन्हें खोखला बनाने लगें, तो वह अस्मिता नहीं रह जातीं। वे एक राजनीतिक पाखंड का रूप ले लेती हैं, जिसका मुख्य उद्देश्य सत्ता की आसान सीढ़ी तैयार करना होता है।
अपना देश आज इसी सांस्कृतिक घटाटोप से आक्रांत है। किसी सतत सांस्कृतिक जन-अभियान के बिना इस संकट का मुकाबला संभव नहीं। आज लोकतंत्र के संस्थागत ढांचे पर नजर डालें तो अजीब निराशा हाथ लगेगी। संसद और राज्यों के विधानमंडल तेजी से अपनी समय-सापेक्षता खोते दिख रहे हैं। क्रूर बहुमत के बल पर शासन चलाने की व्यवस्था आज एक राजनीतिक धर्म का रूप ले रही है। पक्ष-विपक्ष के बीच नीतियों पर बहस करने की बजाय दबाव देकर अपनी बात मनवाने की जिद पर अड़े रहना राजनीतिक कौशल की सफलता समझी जा रही है। ऐसे में लोकतंत्र के व्यापक मूल्यों की उपेक्षा होना स्वाभाविक है। पिछले कुछ समय से लोकतंत्र की विभिन्न इकाइयों के बीच तनातनी का जो माहौल बन रहा है, वह भी कम चिंताजनक नहीं है। परस्पर विश्वास और सम्मान की जगह इन इकाइयों में मुठभेड़ की स्थितियां निर्माण हो रही हैं। एक प्रकार का मुखर टकराव इनके बीच तेजी से पनप रहा है। इधर कुछ ऐसी घटनाएं भी सामने आ रही हैं, जिनके कारण हमारी संवैधनिक संस्थाओं पर अविश्वास के बादल छाने लगे हैं।
मीडिया ने अपनी जिम्मेदारियों के दायरे से बाहर जाकर शासन-तंत्र के दुर्ग में सुरंगें बना ली हैं। इन सुरंगों से भयादोहन के मार्ग भी जुड़ जाते हैं। मीडिया और शासन के बीच, विज्ञापन एक मजबूत व्यावसायिक पुल का काम कर रहा है। इसके नियामकों को राजनीतिक ‘सौदेबाजी’ के पंख लग गए हैं। हाल में, कतिपय बड़े समाचार-घरानों के स्टिंग ऑपरेशन ने इस रहस्य के सारे परदे उठा दिए हैं। लोकतंत्र की सांस्कृतिक परिभाषा किन शब्दों में बयान की जाए! इसकी वर्णमाला परस्पर सद्भाव और विश्वास से आरंभ होती है, जिसका आज हमारे सामाजिक जीवन में घोर अभाव हो चला है। कतिपय अनुदार और अतिवादी संगठन इन तनावपूर्ण परिस्थितियों में घी डालने का काम कर रहे हैं। जाहिर है, इन हालात में लोकतंत्र की संस्कृति को बचाए रखना एक बड़ी चुनौती है।
बच्चे पूछते हैं, आज हमारे लोकतंत्र की बुनियादी प्राथमिकताएं क्या है? सही मायने में, इसका उत्तर देना कठिन है। किसी प्रकार, उन्मादी नारों का सहारा लेकर सत्ता में आ जाना, और लंबे समय तक इस पर अपनी पकड़ बनाए रखना ही हमारी वर्तमान लोक-व्यवस्था की एकहरी प्राथमिकता है। इस उद्देश्य पर कायम रहने में लोक-अपेक्षाओं की बलि देनी हो तो वह भी सही। जनता से शासक वर्ग की दूरी निरंतर बढ़ती गई है। दोनों एक दूसरे के लिए अजनबी बन गए हैं। अजनबी होने का अहसास दिनोंदिन और घनीभूत होता जा रहा है। जनता और सत्ता के बीच अपरिचय की यह धुंध हटाए बिना समाज पर निराशा के बादल कम होने वाले नहीं। भले ही देश ‘उत्सवों’ के समुन्दर में डूबा क्यों नहीं रहे।

जाबिर हुसैन


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