मीडिया : हैशटैग कल्चर

Last Updated 17 Mar 2019 01:39:39 AM IST

सोशल मीडिया पर ‘हैशटैग’ की जातीं दो-चार लाइन की टिप्पणियां और ओपिनियनें ही आजकल खबर चैनलों की ‘सूचना स्रोत’ नजर आती हैं।


मीडिया : हैशटैग कल्चर

सोशल मीडिया की हैशटैगित लाइनों के आसपास बहसें कराके खबर चैनल हर रोज विचारों का मलबा बनाते हैं, जो असली खबरों को आच्छादित कर लेता है। इसीलिए हम खबर का मूल रूप याद नहीं रख पाते। फेसबुक, इंस्टाग्राम या ट्विटर पर जो ‘हैशटैग’ ब्रांड माल नित्य उतरता है, वही इन दिनों टीवी के प्राइम टाइम में परोसा जाता है। उसे ही एंकर कज्यूम करते हैं, और दर्शकों को कंज्यूम कराते हैं। सोशल मीडिया में जिस शब्द या वाक्य के आगे ‘हैशटैग’ लगा दिया जाता है, वही सबसे अव्वल, निर्णायक खबर या ओपिनियन बन जाता है। ‘हैशटैग’ के निशान का अर्थ ही है : किसी बात को महत्त्व देना, एक मामूली-सी बात में भी बड़े मानी भरना। ‘हैशटैग’ का मतलब है किसी खबर का ‘अनिवार्य’ होना।
सोशल मीडिया के खिलाड़ी जब किसी मुद्दे को फोकस में लाना चाहते हैं, तो उसके आगे ‘हैशटैग’ लगा देते हैं। जिसके आगे यह लग जाता है, वही ‘हिट’ और ‘वायरल’ हो जाता है। एक आकलन के अनुसार देश में तकरीबन 30 करोड़ लोग फेसबुक पर हैं,  और इसके आधे ट्विटर या इंस्टाग्राम पर हैं। अगर इनका एक प्रतिशत भी ‘हैशटैग’ छाप खिलाड़ी हुआ तो समझ लीजिए कि ‘हैशटैग’ छाप पलटन कितनी होगी? आज हर मीडियाकर्मी सोशल मीडिया के इसी हैशटैगिया कल्चर में जीता है। वे इनमें से हर ‘हैशटैग’ को तो महत्त्व दे नहीं सकते, सो एक न्यूज एंकर के रूप में अपनी राजनीतिक-सांस्कृतिक रुचि के अनुसार किसी एक खास एंगिल वाले ‘हैशटैग’ को उधार ले लेते हैं, और उसी के आसपास विचार-विमर्श कराते हैं। इसी कारण आज सोशल मीडिया मुख्यधारा के मीडिया का मुख्य कंटेंट प्रोवाइडर सा बन चला है, और कभी-कभी तो लगता है कि खबर चैनल सोशल मीडिया के ‘एक्सटेंशन’ बन गए हों।

हमारे खबर चैनल भी वैसे खबर चैनल नहीं हैं जैसे आज से पंद्रह-बीस साल पहले होते थे। तब वे ‘खबर’ अधिक देते थे और तरह-तरह के ‘विचार’ भी देते थे लेकिन विचारों का मलबा नहीं परोसते थे। परंतु आजकल बहुत-सी उत्तेजक टिप्पणियां और ओपिनियनें सोशल मीडिया से टीवी चैनलों द्वारा सीधे उठा ली जाती हैं, और उन्हीं के आसपास चरचा कराकर विचारों का गुस्से और खिसियाहट भरा मलबा पेश करते हैं, और आधा घंटा, घंटा या दो घंटा हर आदमी एक दूसरे के तर्क को काटने की जगह उसे चुप करने और लज्जित करने में लग जाता है, और इस क्रिया में हर कथित ‘विचारक’ लज्जित होने की जगह और अधिक ढीठ और बेशर्म होता जाता है। इस तरह, सोशल मीडिया और उसकी हैशटैगबाजी से उधार लेकर काम करने वाले खबर चैनलों ने खबर-दर्शकों को शिष्ट और सभ्यतापूर्ण विचार-विमर्श करना सिखाने की जगह अधिकाधिक अशिष्ट और निर्लज्ज  होना सिखाया है। चिंता की बात है कि खबर के साथ सिर्फ ‘हैशटैग’ ही नहीं आता और भी बहुत कुछ अवांछित आता है, बहुत-सी बकवास, बहुत-सी घृणा, बहुत-सी हिंसा आती है। ‘हैशटैग’ कल्चर क्या गुल खिलाती है, और उसके चलते टीवी की कोई खबर या चरचा कितनी तरह की बकवास, घृणा और बदबू से घिरी रहती है, यह अनुभव एक शाम अचानक तब हुआ जब इस लेखक के टीवी की डीटीएच सेवा में खराबी आ गई और खबर देखने के लिए ‘यूट्यूब’ का सहारा लेना हुआ।
वहां, एक हिंदी चैनल पर ‘हैशटैग : आतकंवाद को खत्म करना है’ पर दो ध्रुवों में बंटी एक बहस आ रही थी। एक हिस्सा कहता था कि वक्त आ गया है, जब पाकिस्तान में जाकर मसूद अजहर को सीधे निशाना बनाया जाए। दूसरा कहता था कि यह काफी कठिन है। इसमें पाकिस्तान के साथ खुले युद्ध का खतरा है, और हमें बातचीत से मामले का हल निकालना चाहिए। चैनल के फ्रेम में तो सिर्फ ‘बहस’ हो रही थी, लेकिन उसके ठीक नीचे सोशल मीडिया में आते कमेंट गाली-गलौज से भरे जा रहे थे। पांच दस लोग हर सेकेंड पर एक दूसरे की ‘मां-बहन की’ कर रहे थे। सोशल मीडिया में बातचीत के हिमायतियों को जिस तरह से गंदी गालियों से नवाजा जा रहा था, उसी तरह से टीवी चरचा में हड़काया जा रहा था। फर्क था तो इतना कि सोशल मीडिया में गालियां प्रमुख थीं जबकि टीवी में सिर्फ ‘शिष्ट गालियां’ थीं कि तुम ‘पाकिस्तान के एजेंट’हो। कहना न होगा कि आजकल हर खबर चैनल पर ऐसी ही बदतमीज बहसें नजर आती हैं। और यह सब है सोशल मीडिया की हैशटेग कल्चर की मेहरबानी।

सुधीश पचौरी


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