सामयिक : कांग्रेस की रैली-शैली
पटना के गांधी मैदान में आयोजित 3 फरवरी की कांग्रेस रैली पटना की रैलियों के इतिहास में भले ही महत्त्वपूर्ण न हो, मौजूदा कांग्रेस के लिए थी क्योंकि कोई अट्ठाइस वर्षो बाद बिहार कांग्रेस की हिम्मत हुई थी कि वह रैली कर सके।
सामयिक : कांग्रेस की रैली-शैली |
लोग इसकी सफलता को लेकर आशंकित थे। लेकिन कुल मिला कर रैली सफल रही, यह सबने स्वीकारा। राजद और भाजपा के सिवा किसी और में ऐसी रैली करवाने की कुव्वत नहीं है, नीतीश कुमार की सत्तासीन पार्टी में भी नहीं। दो दशकों से हताशा से गुजर रही पार्टी अब इससे मुक्त हो गई है, ऐसा कहा जा रहा है।
बहुत दिनों बाद पटना की सड़कों पर कांग्रेसी झंडे और बैनर दिखे। गांव-कस्बों से आए गरीबों के छिटपुट हुजूम भी नजर आए। महिलाएं भी थीं, और किसान-मजदूर भी। पुराने तर्ज के खद्दरधारी कांग्रेसी कम थे, लेकिन युवाओं की भागीदारी खासी थी रैली के होर्डिंग और पोस्टरों में राहुल तो थे ही, लेकिन उससे कहीं अधिक जोर प्रियंका पर था। युवा भागीदारों के हाथों में प्रियंका के पोस्टर अधिक थे। सबसे बड़ी बात थी कि वे उत्साह से भरे थे। मानो अपनी मंजिल के बेहद करीब पहुंच गए हों। यह उत्साह कांग्रेस में कहां से आया? सबको यह बात परेशान कर रही थी। पिछले दिसम्बर में राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में वह अरसा बाद सत्ता में वापस हुई। सबसे बड़ी बात कि इन प्रांतों में जोड़-तोड़ की सरकारें नहीं बनीं। इस उत्साह के बीच ही प्रियंका का कांग्रेस महासचिव के रूप में मनोनयन हुआ।
इन सबने मिल-मिलाकर उसे उत्साह से भर दिया। इस उत्साह का पहला सार्वजनिक प्रदशर्न पटना में हो रहा था। मंच पर राहुल के एक बाजू में मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ थे, तो दूसरे बाजू राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री बघेल से लेकर लगभग सभी दिग्गज मंचासीन थे। झालर की तरह महागठबंधन की सहयोगी पार्टियों के नेता भी थे। बिहार में पिछले दो दशकों से अप्रासंगिक और पिछलग्गू नजर आ रही इस पार्टी का इस तेवर में दिखना, निश्चय ही एक उपलब्धि थी। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि कांग्रेस की विसंगतियां उभर कर सामने नहीं आई। कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व ने इस पर वाजिब ध्यान नहीं दिया तो यह रैली आतिशबाजी सिद्ध होगी। कांग्रेस के पूरे देश में पिछड़ने के कारण दो स्तरों पर थे। कुछ कारण राष्ट्रीय थे, तो कुछ प्रांतीय। दोनों ने मिल कर कांग्रेस का बंटाधार किया था। राष्ट्रीय स्तर के कारण तो देश भर में सामान थे लेकिन प्रांतीय कारण अलग-अलग थे। आरंभ से ही कांग्रेस ने स्थानीय सोच और नेतृत्व को राष्ट्रीय सोच और नेतृत्व के साथ नत्थी करने की कोशिश की थी। इसीलिए बिहार में आदिवासियों, किसान जाति समूहों और पिछड़े मुसलमानों को कांग्रेस ने अपने साथ जोड़ने की पुरजोर कोशिश की थी। 1967 में पराजय के एक झटके के बाद इंदिरा गांधी के नेतृत्व में जब एक नई कांग्रेस उठ खड़ी हुई, तब भी उसने अपनी इस परंपरा का पालन किया। 1971 और 1972 के चुनावों में कांग्रेस की वापसी के पीछे यही सामाजिक समीकरण थे। बिहार में दबंग कही जाने वाली जातियों का समर्थन कांग्रेस ने खो दिया था। लेकिन मुस्लमान और दलित पूरी तरह और अगड़े-पिछड़े तबकों का एक-एक हिस्सा कांग्रेस के साथ था। इसके बल पर कांग्रेस बनी रही
1980 में कांग्रेस की वापसी तो हुई लेकिन यह अगड़ी जातियों की राजनीतिक अभिव्यक्ति का मंच बन कर रह गई। 1980 से 1990 के आरंभ तक बिहार में कांग्रेस की सरकारें रहीं। इस बीच पांच मुख्यमंत्री बदले गए। सभी अगड़ी जातियों के। इसी कांग्रेस से एक समय वीरचंद पटेल मुख्यमंत्री पद की दौड़ में रह चुके थे। दरोगाप्रसाद राय पिछड़े तबके से आने वाले कांग्रेसी मुख्यमंत्री थे। कांग्रेस के अब्दुल गफूर मुख्यमंत्री बने। लेकिन 1980 के बाद किसी पिछड़े-दलित-मुसलमान को मुख्यमंत्री होना नसीब नहीं हुआ। दूसरे स्तर से भी इन तबके के नेताओं की विदाई हो गई। कांग्रेस में आज कोई रामलखन यादव, कोई लहटन चौधरी, मुंगेरी लाल या अब्दुल कयूम अंसारी नहीं है। यह सब एक दिन में नहीं हुआ।
रामजन्मभूमि आंदोलन और भागलपुर दंगे के बाद मुसलमानों का कांग्रेस से मोहभंग शुरू हुआ। 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद मुसलमानों का कांग्रेस से पूरी तरह विश्वास उठ गया। नतीजतन मुसलमान लोकदली पार्टियों के साथ जुट गए। अब कांग्रेस औंधे मुंह गिरी, जो बिहार में अब तक नहीं उठ सकी है। कांग्रेस के विपरीत भाजपा तक ने विभिन्न तबकों को अपने साथ जोड़ने का अभियान चलाया। वह सफल भी हुई। हिंदी क्षेत्र में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने हिंदुओं के अगड़े और पिछड़े समूहों को साथ जोड़ने में कामयाबी हासिल कर ली। इसके बल पर मुसलमानों की उपेक्षा करते हुए भी उसने कांग्रेस को धारा सभाओं में अपने सबसे निचले स्तर पर पहुंचा दिया। इससे बाहर आना कांग्रेस की प्राथमिकता है। इसके लिए उसे कांग्रेस के पुराने समीकरण और उपकरण अपनाने होंगे। बिहार में कांग्रेस आज भी ऊंची जातियों का जमावड़ा है। बावजूद इसके इस तबके के वोट हासिल करने में वह विफल है। बहुत समय तक वह गठबंधन राजनीति से अलग रही। जब इस राजनीति के साथ हुई तब बिहार में उसने राजद से समझौता किया लेकिन जब तक वह अपना सामाजिक चरित्र नहीं बदलती तब तक उसके उद्धार की कोई सूरत नहीं है क्योंकि इस उच्चजातीय सामाजिक चरित्र के कारण राजद और अन्य पार्टियों को उसके साथ समझौते में कठिनाई हो सकती है। ठीक है कि राजद और कांग्रेस भाजपा की सांप्रदायिक राजनीति के खिलाफ हैं यानी वैचारिक तौर पर उनके बीच निकटता है। लेकिन यह निकटता सामाजिक आधारों के बीच नहीं हुई तो एक दूसरे का वोट स्थानांतरित कराना मुश्किल होगा। ऐसे में गठबंधन बहुत दिनों तक नहीं चल पाएगा।
कांग्रेस को अपने पैरों पर खड़ा होना है तो वह गठबंधन से मुक्त हो। तब तो यह और भी आवश्यक होगा कि उसके दल में सबकी भागीदारी सुनिश्चित हो। लेकिन ऐसा दिख नहीं रहा है। भाजपा की बढ़ती ताकत के दबाव में मुसलमानों का विश्वास तो उसके प्रति लौटा है लेकिन पिछड़े, दलित समूहों के लिए वह आज भी कोई आकषर्ण सृजित नहीं कर पाई है। रैली में कांग्रेस का कोई दबंग पिछड़ा नेता मंच पर नहीं था। सदानंद सिंह कांग्रेस में नीतीश के दूत समझे जाते हैं, और उनका कोई सामाजिक आधार नहीं है। इन विसंगतियों पर कांग्रेस ने ध्यान दिया तो यह रैली बिहार में उसकी नई राजनीति के लिए नया प्रस्थान बिंदु बन सकती है अन्यथा तीन प्रांतों में जीत का जलसा बन कर रह जाएगा।
| Tweet |