स्मरण : उनको भूलना मुश्किल होगा

Last Updated 30 Jan 2019 04:24:22 AM IST

प्रख्यात मजदूर नेता, समाजवादी राजनेता, पत्रकार और सांसद जार्ज फर्नाडिस मंगलवार को दिवंगत हो गए।


स्मरण : उनको भूलना मुश्किल होगा

वह कई वर्षो से विस्मृति के शिकार हो, बिछौने पर पड़े थे, लगभग अटल जी की तरह। इसलिए कहा जाना चाहिए कि आज उनका देहावसान हुआ है, स्मृतिलोप तो वर्षो पूर्व हो चुका था।
3  जून 1930  को जॉन जोसफ फर्नाडिस  और ऐलिस मार्था के घर कर्नाटक के मंगलौर में जन्मे जॉर्ज के पिता उन्हें पादरी बनाना चाहते थे, लेकिन इस पढ़ाई में उनका मन नहीं लगा। वे घर से भाग कर मुंबई पहुंचे। मुंबई में पहली रात का ब्योरा उनने स्वयं मुझे बतलाया था कि कैसे जब वह फुटपाथ पर सोए थे, तब उन्हें एक लात पड़ी कि बे उठ! यह मेरी जगह है। इस तरह मुंबई ने उनका स्वागत किया था। लेकिन इस शहर ने उन्हें दिया भी बहुत। वह  टैक्सी ड्राइवर बने। फिर ड्राइवरों के नेता। समाजवादी बने। राममनोहर लोहिया से संपर्क हुआ और फिर उनके सहयोगी के रूप में अरसे तक सक्रिय रहे। 1967 में मुंबई के बेताज के बादशाह एस के पाटिल को हराकर लोक सभा पहुंचे और युवा संघर्ष के प्रतीक बने। ‘प्रतिपक्ष’ नाम से एक पाक्षिक निकाला। 1974 में  रेल मजदूरों की व्यापक हड़ताल के बाद वह  देश के सर्वाधिक मशहूर व जुझारू मजदूर नेता बन गए। जयप्रकाश आंदोलन में सक्रिय हुए और इमरजेंसी लगने पर कुछ वैसी भूमिका अपनाने की कोशिश की जैसी 1942 के आंदोलन के वक्त जेपी और लोहिया ने अपनायी थी।

व्यक्तिगत रूप से मैं इस विचार का विरोधी हूं मगर जॉर्ज ने तब सरकार के खिलाफ एक उखाड़-पछाड़ योजना बनाई थी। नतीजतन बड़ौदा डायनामाइट काण्ड में वह पकड़े  गए। 1977 में बिहार के मुजफ्फरपुर से लोक सभा के लिए चुने गए और जनता सरकार में उद्योग मंत्री बनाए गए।  कई चुनाव हारे और राजनैतिक रूप से भी कुछ ऐसा नहीं किया जो उल्लेखनीय हो। दशक के आखिर में चुपचाप नवनिर्मिंत जनता दल का हिस्सा बन गए। 1990 में वह विनाथ प्रताप सरकार में रेल मंत्री बने और 1994 में जनता दल से अलग हो समता पार्टी का गठन किया। 1996 में भाजपा के साथ मिलकर राजनीति की नई पारी शुरू की और बाद के समय में भाजपा के संकटमोचक के रूप में काम करना पसंद किया । 1998 से 2004  तक अटल बिहारी मंत्रिमंडल में रक्षा मंत्री बने रहे। 1999 में  पादरी ग्राहम स्टेंस और उनके बच्चों को जिन्दा जला दिए जाने की घटना पर प्रतिक्रिया और  2002  के गोधरा काण्ड के बाद संसद में उनके वक्तव्य से उनका एक नया ही चेहरा प्रकट हुआ। यह अमानवीय और गैर-जिम्मेदार वक्तव्य था। इसी बीच ताबूत मामले में भी उन पर ऊंगली उठी। कुल मिलाकर उनकी फजीहत हो गई । 2004  का चुनाव तो वह किसी तरह जीत गए, लेकिन 2009 में उनकी राजनैतिक हस्ती ऐसी हो गई कि उनकी पार्टी ने ही उन्हें टिकट देने से इनकार कर दिया। हालांकि साल भर बाद कुछ समय के लिए वह राज्य सभा भेजे गए। यह उनकी अंतिम पारी थी। अब तक वह स्मृति लोप के शिकार हो गए थे और सार्वजनिक जीवन से अलग होना मजबूरी हो गई थी। जार्ज साहब के साथ कुछ समय गुजारने का अवसर मुझे भी मिला है। कह सकता हूं कि उनका स्नेह-भाजन भी रहा; लेकिन मेरे दिल में उनके लिए  सम्मान कभी नहीं बन पाया। वह विलक्षण प्रतिभाशाली थे। कई भाषाएं (हिंदी, अंग्रेजी, मराठी, कन्नड़ आदि) धाराप्रवाह बोल सकते थे। भाषा के प्रति उनका विलक्षण अनुराग था। समय के बहुत पाबंद और सादगी के तो कहने ही नहीं। उनका आवास भी वैसा ही सादा। सब कुछ खुला-खुला। लेकिन यह सादगी विचारों की नहीं थी। उनके विचारों में पेचो खम होते थे। उनके समाजवाद पर मुझे संदेह रहा,आज भी है। भारतीय लोकायत दर्शन के वह अच्छे जानकार थे। इस विषय पर उनसे एक दफा लम्बी चर्चा हुई थी।
मार्क्‍सवाद के महत्त्व को भी वह स्वीकारते थे। लेकिन उनके अंध कम्युनिस्ट विरोध को मैं समझ नहीं पाया। वह कम्युनिस्टों और नेहरू परिवार को भाजपाइयों से अधिक खतरनाक समझते थे। इस कट्टरता ने उन्हें प्रतिगामी शक्तियों  का सहायक बना  दिया। 1980  के बाद देश में समाजवादी धारा के बीच से नई प्रवृत्तियां उभरने लगीं थी। इस बीच कर्पूरी ठाकुर ने आम्बेडकरवाद में दिलचस्पी लेनी शुरू  की। ख्यात समाजवादी मधु लिमये ने आंबेडकर पर नये सिरे से विमर्श किया और लेखों  की श्रृंखला लिखी जो अब पुस्तक रूप में विद्यमान है। लिमये ने तो स्वयं को  संसदीय राजनीति से अलग ही कर लिया था। लिमये पर लिखे एक लेख में जॉर्ज ने इस बात को स्वीकारा है कि उस समय मुझे भी चुनावी  राजनीति से अलग हो जाना चाहिए था। यदि ऐसा होता तो जॉर्ज का एक नया रूप ही हमारे सामने होता। जो भी हो, जार्ज साहब को भूलना मुश्किल होगा।

प्रेमकुमार मणि


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