जार्ज फर्नाडिस : इमरजेंसी विरोधी चेहरा
जार्ज फर्नाडिस का सर्वाधिक चमकीला चेहरा आपातकाल में ही उभर कर सामने आया था। तब वे अपनी जान हथेली पर लेकर तानाशाही से लड़ रहे थे।
![]() जार्ज फर्नाडिस : इमरजेंसी विरोधी चेहरा |
यदि आपातकाल नहीं हटता तो राष्ट्रद्रोह के आरोप में उन्हें फांसी की भी सजा हो सकती थी। ऐसा ही मुकदमा हुआ था उन पर। उनके द्वारा तैयार एक अंडरग्राउंड बुलेटिन के यह अंश का आज पढ़ना दिलचस्प होगा-‘‘जब 26 जून 1975 को मैडम ने तानाशाही अख्तियार की, तब उनके सेंसर कानूनों ने कुछ ऐसा चमत्कार किया, जो बड़े-से-बड़े भारत विरोधी अंग्रेज शासक ने ब्रिटिश राज के दिनों में करने का साहस नहीं किया था। नागरिक स्वाधीनता पर, प्रेस की स्वतंत्रता पर फासिज्म पर नेहरू जी ने जो कहा था, उस पर तो प्रतिबंध लग ही गया, महात्मा गांधी के कथन पर भी रोक लग गई। हालांकि इन दोनों को अंग्रेजों ने गिरफ्तार किया था, पर उनके विचारों पर रोक कभी नहीं लगाई थी। पर एक व्यक्ति था, जिसे न उन्होंने कभी गिरफ्तार किया न उसके शब्दों पर रोक लगाई। वे थे गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर। गुरुदेव को अपनी मृत्यु के बाद 35 साल तक प्रतीक्षा करनी पड़ी, जब मैडम यानी इंदिरा गांधी ने 26 जून को उनकी पंक्तियों पर भी सेंसर लगा दिया।
‘गीतांजलि’ में उन्होंने लिखा था,
‘जहां ज्ञान मुक्त है,
जहां शब्द सत्य की गहराई से आते हैं
उस स्वाधीनता के दिव्यलोक में,
मेरे प्रभु मेरा यह देश जागे !’’
जार्ज फर्नाडिस की इस मन:स्थिति को समझते हुए आपातकाल में उनकी भूमिका को समझा जा सकता है, जो उन्होंने आपातकाल में अपनी जान हथेली पर रखकर अपनाई थी। उन पर और उनके करीब दो दर्जन साथियों पर बड़ौदा डायनामाइट षड्यंत्र का मुकदमा चला था। यह देशद्रोह का मुकदमा था, जिसके तहत यह आरोप लगा था कि वे हथियार के बल पर राज सत्ता पलटना चाहते थे। पूछताछ के दौरान इन्हें प्रताड़ित किया गया। कुछ खास बातें सीबीआई जार्ज से कहलवाना चाहती थी। पर जार्ज ने साफ मना कर दिया। हिरासत में रात-रात भर उन्हें तेज रोशनी में रखा जाता था ताकि वे सो भी न सकें। पर, जार्ज ने सीबीआई से कह दिया था कि चाहे मार दो, पर मैं नहीं बताऊंगा कि क्या किया? यह बात मुझे जार्ज ने बाद में बताई थी। जार्ज फर्नाडिस तो सिर्फ शांत तालाब में कंकड़ फेंक कर हलचल पैदा करना चाहते थे, जिस तरह भगत सिंह ने सेंट्रल एसेंबली में बम फेंका था-बहरी सरकार को सुनाने के लिए। दरअसल, जून 1975 में एक लाख से भी अधिक नेताओं-कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी व सारी प्रतिपक्षी राजनीतिक गतिविधियों पर कठोर प्रतिबंध के बाद देश में प्रतिपक्षी राजनीति की दृष्टि से श्मशान की शांति छा गई थी। अखबारों पर लगे कठोर सेंसरशिप ने वातावरण को और भी दमघोटूं बना दिया था। बंबई के मजदूर नेता के रूप में भी जार्ज फर्नाडिस का जीवन जुझारू व उथल-पुथल वाला रहा था। पर आपातकाल की तो बात ही कुछ और थी। सन् 1963 में जार्ज का नाम पूरे देश में गूंजा था, जब वे पूरी बंबई बंद कराने में सफल रहे थे। बसों, टैक्सियों व नगर निगम के कर्मचारियों में उनकी मजबूत यूनियन थी।
1967 में तो जार्ज ने मुंबई के बेताज बादशाह व तत्कालीन केंद्रीय मंत्री एस.के.पाटिल को लोक सभा चुनाव में पराजित कर दिया था। इस कारण वे जाइंट किलर कहलाए थे। जब 1975 में आपातकाल लगा तो जार्ज का और भी क्रांतिकारी स्वरूप सामने आया। 25 जून को वे ओडिशा में थे। आपातकाल लगते ही उन्होंने तय किया कि वे गिरफ्तारी नहीं देंगे वरन संघर्ष करेंगे। लंबी व थकाऊ बस यात्रा करके वे ओडिशा से कोलकाता पहुंचे। वहां उन्होंने समाजवादी साथी व नेता विद्या बाबू से मुलाकात की। उनसे कुछ पैसे लिये और टैक्सी से पटना रवाना हो गए। कुछ दूर तक तो टैक्सी ड्राइवर ने गाड़ी चलाई। पर जब वह आगे बढ़ने को तैयार नहीं हुआ तो आधे रास्ते से जार्ज खुद टैक्सी ड्राइव कर पटना पहुंचे। पटना में दो-तीन दिन रु क कर साथियों को गोलबंद किया। फिर तो वह देश भर घूमते रहे। आपातकाल विरोधी गतिविधियां देश भर में चलाते रहे। वे निश्ंिचत तभी हुए, जब 1977 के चुनाव के बाद देश में मोरारजी देसाई की सरकार बनी। उन्होंने पहले संचार मंत्री और बाद में उद्योग मंत्री की जिम्मेदारी संभाली।
जार्ज के अंडरग्राउंड जीवन के दो प्रकरण पढ़ना रोमांचकारी होगा जिसका मैं गवाह व सहभागी रहा। आपातकाल में हम भूमिगत साथी जार्ज से मिलने कोलकाता गए थे। उल्टा डांगा में एक चाय दुकान पर बिठाकर हम बगल की झोपड़ी में एक अन्य साथी को खोजने निकले। दुकान पर बैठे जार्ज ने इस बीच चाय पी थी। जब हम लौटे और जार्ज चाय का पैसा देने लगे तो दुकानदार उनके सामने हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया। उसने कहा, ‘हुजूर हम आपसे पैसा नहीं लेंगे।’ इस पर जार्ज थोड़ा घबरा गए। उन्हें लग गया कि वे पहचान लिये गए। अब गिरफ्तारी में देर नहीं होगी। जार्ज को परेशान देखकर मैं भी पहले तो घबराया, पर मुझे बात समझने में देर नहीं लगी। मैंने कहा कि जार्ज साहब, चलिए मैं इन्हें बाद में पैसे दे दूंगा। मैं यहीं पास की झोपड़ी में टिका हुआ हूं। फिर काफी तेजी से हम टैक्सी की ओर बढ़े जो दूर हमारा इंतजार कर रही थी। तब जार्ज पादरी की पोशाक में थे और हाथ में एक अंग्रेजी किताब थी। दूसरा प्रकरण बेंगलुरू का है। पिछले कर्नाटक विधान सभा चुनाव को लेकर कर्नाटक के कई स्थानों की चर्चा मीडिया में हो रही थी। उसमें एक नाम रामगढ़ का भी है। वही रामगढ़ जहां ‘शोले’ फिल्म की शूटिंग हुई थी। बेंगलुरू-मैसूर मार्ग पर बेंगलुरू से 50 किलोमीटर दूर है रामनगरम यानी रामगढ़। इमरजेंसी में मैं बेंगलुरू गया था-लाड़ली मोहन निगम के साथ। करीब एक सप्ताह तक एक होटल में टिके थे।
एक ही कमरे में तीन जन-जे.एच.पटेल, लाड़ली मोहन निगम और मैं। पटेल बाद में वहां के मुख्यमंत्री बने और निगम राज्य सभा सदस्य। उन दिनों बेंगलुरू की आबोहवा इतनी अच्छी थी कि वातानुकूलित सिनेमा हॉल से निकलने के बाद बाहर ही अच्छा लगता था। गहरे भूमिगत जार्ज के साथ हर रात हम रामगढ़ की पहाड़ी के पास जाते थे। क्या करने जाते थे, यह बताना यहां जरूरी नहीं। आपातकाल विरोधी काम का ही वह हिस्सा था। एक प्रकरण आपातकाल से पहले का। एक पत्रिका में छपी किसी तथाकथित आपत्तिजनक सामग्री पर संसद में लगातार पांच दिनों तक गरमागरम चर्चा हो, ऐसा जार्ज के कारण ही हुआ। वह पत्रिका प्रतिपक्ष थी, जिसके प्रधान संपादक जार्ज थे। सामग्री ऐसी थी कि संसद कोई कार्रवाई नहीं कर सकी थी।
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