नागरिकता संशोधन विधेयक, 2016 : नहीं बन रही बात

Last Updated 28 Jan 2019 12:25:27 AM IST

लोक सभा में भाजपा सरकार द्वारा पारित नागरिकता संशोधन विधेयक, 2016 (सीएबी) की जनता दल (यूनाइटेड)-जदयू-जैसे एनडीए के सहयोगी दल समेत अनेक राजनीतिक दलों ने मुखालफत की है।


नागरिकता संशोधन विधेयक, 2016 : नहीं बन रही बात

असम के लोग भी मुखर होकर इसका विरोध कर रहे हैं। जदयू ने ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन (आसू) के साथ बैठक के उपरांत असमी ‘अस्मिता’ को समर्थन देने का फैसला किया है। सीएबी के विरोध का लब्बो-लुआब इल्लिगल माइग्रेशन डिटेक्शन बाई ट्राइब्यूनल (आईएमडीटी) मामले में सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट की इस टिप्पणी से रेखांकित होता है : बड़े पैमाने पर बांग्लादेश से आने वाले लोगों के खतरनाक असर, असम के लोगों और समूचे राष्ट्र पर, को ध्यान में रखा जाना चाहिए। ऐसा करते में किसी तरह की भ्रमित धर्मनिरपेक्षता को आड़े नहीं आने दिया जाना चाहिए।’

असम आंदोलन छह वर्षो-1979 से 1985 तक-तक राज्य में चला। यह बांग्लादेश से अवैध तरीके से असम में प्रवेश के खिलाफ भावनात्मक आंदोलन था। असम में बांग्लादेशियों का प्रवेश 1971 में बांग्लादेश की आजादी के बाद ज्यादा तेजी से बढ़ा। आंदोलन को समाप्त कराने के लिए 1985 में असम समझौता किया गया। लेकिन केंद्र तथा असम में कांग्रेस-नीत सरकारों ने असम के लोगों को धोखे में रखते हुए 1983 में आईएमडीटी एक्ट, अब असंवैधानिक, बनाया। इस एक्ट ने असम के लोगों के बलिदान बेमानी कर दिए। कांग्रेस का वोट बैंक अप्रभावित रहा। कांग्रेस की सरकार आंदोलन के नेतृत्व-जिसने आंदोलन के पश्चात असोम गण परिषद (एजीपी) का गठन कर लिया था-पर दबाव बनाने में भी सफल रही कि नागरिकता का निर्धारण करने के लिए लागू विच्छेदन वर्ष 1951 के बजाय 1971 की जनगणना के आधार पर अवैध बांग्लादेशियों  की पहचान की जाए।
इसके चलते पूर्वी पाकिस्तान से अवैध रूप से असम में प्रवेश कर चुके बांग्लादेशियों को भारतीय नागरिकता हासिल करने में मदद मिली। बांग्लादेश से आने वाले लोगों का बेतहाशा प्रवाह 1971 के बाद जारी रहा क्योंकि असम समझौते के किसी भी दबाव को कांग्रेस सरकार आईएमडीटी की आड़ लेकर निष्क्रिय करती रही। सुप्रीम कोर्ट में आईएमडीटी एक्ट को लेकर भारत सरकार के खिलाफ लंबी कानूनी लड़ाई चली। सरबानंद सोनोवाल-असम के वर्तमान मुख्यमंत्री-नेंयह लड़ाई जीती। सुप्रीम कोर्ट ने इस एक्ट को असंवैधानिक करार देते हुए कहा कि ‘इसने बड़ा अवरोध पैदा कर दिया है, और यह अवैध बांग्लादेशियों की पहचान और उनके निर्वासन में बड़ी अड़चन बन गया है।’ सुप्रीम कोर्ट के निर्देशानुसार 2013 में एनआरसी प्रक्रिया शुरू होने तक असम को प्रतीक्षा करनी पड़ी। 2011 की जनगणना ने असम के नागरिक समाज में नई चर्चा ही छेड़ दी। बोंगाईगांव, मोरीगांव और दारांग जिले जहां पहले हिंदू बहुसंख्यक जिले थे, लेकिन 2011 की जनगणना के मुताबिक, मुस्लिम बहुसंख्यक जिले हो गए हैं। जनसंख्या में बदलाव-बरपेटा, धुबरी, करीमगंज, ग्वालपाड़ा, हैलकांडी और नागांव समेत-निचले असम डिवीजन व बराक घाटी में भी देखा गया। वहां मुस्लिम आबादी में बढ़ोतरी की दर ने खतरे की घंटी बजा दी है।
ब्रिटिश काल में देश की आजादी से पहले मुस्लिम लीग सरकार ने इन जिलों में पूर्व बंगाल प्रांत के मैमनसिंह, पाबना, बोगरा और रंगपुर-जो अब बांग्लादेश का हिस्सा हैं-जिलों से मुस्लिम बंगालियों को इन जिलों में बसने के लिए प्रेरित किया था। यह कवायद इस कदर संकीर्ण थी कि लॉर्ड वॉवेल ने इसे ‘ज्यादा से ज्यादा मुस्लिम बढ़ाओ’ कार्यक्रम तक कह दिया था। असम के स्थानीय निवासी-जो दशकों से बांग्लादेश से अवैध प्रवेश का दंश झेलते रहे हैं-बड़े गौर से स्वयं को अपने ही घर में धार्मिक के साथ ही भाषायी अल्पसंख्यक होते देख रहे हैं। केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने असम समझौते के अनुच्छेद 6 पर विचार करने के लिए हाल में एक उच्चाधिकार प्राप्त समिति के गठन की घोषणा की ताकि ‘असमियों की विरासत और सांस्कृतिक, सामाजिक एवं भाषायी पहचान के संरक्षण, संवर्धन एवं प्रोत्साहन के लिए संवैधानिक, विधायी तथा प्रशासनिक व्यवस्था की जा सके।’ उम्मीद है कि राज्य विधानसभा में सीट आरक्षण, भाषा का संरक्षण, भूमि पर अधिकार के साथ ही सरकारी नौकरियों में आरक्षण जैसे उपायों से असम के स्थानीय लोगों को खासा लाभ होगा।
सीएबी को लेकर गुस्सा यह है कि इससे अपेक्षित संवैधानिक संरक्षण नहीं मिल पाएगा। आसू ने 27 जनवरी को विरोध रैली का आह्वान किया। जदयू और अन्य पार्टियों के इसमें शिरकत करने की उम्मीद है। राज्य सभा में भाजपा के अल्पसंख्या में होने के कारण एसीबी का पारित होना संभव नहीं दिखता। वैसे इस बिल का वैधानिक पक्ष भी कोई दमदार नहीं है। असम समझौते में जिन संवैधानिक उपायों की आस्ति थी, उन पर अब केंद्र सरकार विचार कर रही है। समझौते के अनुच्छेद छह के तहत यह वादा 34 वर्ष पूर्व किया गया था। पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री  जुल्फिकारी अली भुट्टो ने अपनी पुस्तक ‘माइथ ऑफ इंडिपेंडेंस’ में लिखा है कि कश्मीर ही नहीं बल्कि असम भी भारत के लिए इतना बड़ा सरदर्द है। सुप्रीम कोर्ट ने आईएमडीटी पर सुनवाई के दौरान कहा था कि ‘घुसपैठ से ये जिले मुस्लिम बहुसंख्यक क्षेत्र में तब्दील होते जा रहे हैं। ऐसा ही चलता रहा तो किसी रोज मांग उठ खड़ी होगी कि इन जिलों का बांग्लादेश में विलय किया जाए।’ पहले ही काफी समय बर्बाद हो चुका है। टालने से बात नहीं बनेगी। सीएबी-इस उम्मीद से कि यह वैधानिक जांच में खरा उतरेगा-की तरफ बढ़ते हुए चिंता बनी रहेगी कि असम भाषायी पहचान-जो भारत में राज्यों के निर्माण की बुनियादी शर्त है-ही न खो बैठे।
हमें गर्व है कि हमारे पूर्वजों ने असम को पाकिस्तान में मिलाने के ब्रिटिश के प्रयास को नाकाम कर दिया था। किसी दिन असम को बांग्लादेश में मिलाने के आंदोलन शुरू होता है, तो इससे ज्यादा दुर्भाग्य कुछ नहीं होगा। आशंका को नजरंदाज नहीं किया जा सकता। ‘चिकननेक’-भारत की मुख्यभूमि से पूर्वोत्तर को मिलाने वाली 17 किमी. की भूपट्टी-ही खतरे में पड़ गई है। 1985 में हम एक मौका खो चुके हैं, लेकिन अभी भी मौका है हमारे पास कि हम असम के स्थानीय निवासियों के हितों की रक्षा करने में कुछ भी न उठा रखें।

तितुराज कश्यप


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