राफेल : एचएएल से ये दुश्मनी क्यों?

Last Updated 08 Jan 2019 07:01:01 AM IST

अगर नरेन्द्र मोदी की सरकार और भाजपा ने सोचा था कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद राफेल का प्रेत उनका पीछा छोड़ देगा तो ऐसा होता नहीं लग रहा है।


राफेल : एचएएल से ये दुश्मनी क्यों?

बेशक, इसका अनुमान लगाना जल्दबाजी होगी कि फ्रांसीसी कंपनी से लड़ाकू विमानों की खरीद का साठ हजार करोड़ रुपये से ज्यादा का यह सौदा, दूसरा बोफोर्स सौदा साबित होगा या नहीं और मोदी सरकार के लिए वैसा घातक साबित होगा या नहीं, जैसा घातक राजीव गांधी की सरकार के लिए बोफोर्स सौदा हुआ था? फिर भी लोक सभा में राफेल सौदे पर हुई चर्चा के बाद कम से कम इतना तो निश्चयपूर्वक कहा ही जा सकता है कि राफेल का मुद्दा, 2019 के चुनाव में विपक्ष के हाथों में मोदी को घेरने का एक बड़ा हथियार बनने जा रहा है।
बेशक, लोक सभा में प्रचंड बहुमत के बल पर मोदी सरकार ने राफेल सौदे की जांच के लिए संयुक्त संसदीय समिति के गठन की विपक्ष की मांग ठुकरा दी है। लोक सभा में राफेल पर  तीन दिनी चर्चा में खुद प्रधानमंत्री के आम तौर पर अनुपस्थित रहने के बावजूद भाजपा ने इस सौदे तथा प्रधानमंत्री के बचाव के लिए अरुण जेटली समेत अपने तमाम भारी-भरकम वक्ताओं को उतारा था। इसके बावजूद नहीं कहा जा सकता है कि बहस से विपक्ष निरुत्तर हो गया। उल्टे बहस से राफेल सौदे पर बहस को और बल ही मिल जाने का सच अगले दिन की खबरों से ही साफ हो गया जब बहस के दौरान रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमन के इस दावे की सत्यता पर ही बहस खड़ी हो गई कि सार्वजनिक क्षेत्र की नवरत्न कंपनी हिंदुस्तान एअरोनॉटिक्स कंपनी (एचएएल) को मोदी सरकार ने 1 लाख रुपये के ऑर्डर दिए हैं।

रक्षा मंत्री विपक्ष के आरोपों का जवाब देने की कोशिश कर रही थीं कि सीधे प्रधानमंत्री की पहल पर हुए तैयारशुदा 36 राफेल विमानों की खरीद के सौदे में एचएएल की कीमत पर अनिल अंबानी की रक्षा कंपनी को दसियों हजार करोड़ का फायदा पहुंचाया गया था। याद रहे कि वायु सेना की चौथी पीढ़ी के लड़ाकू विमानों की जरूरत पूरी करने के लिए पिछली यूपीए सरकार ने वायु सेना के आकलन के आधार पर 126 राफेल विमानों की खरीद की लंबी प्रक्रिया शुरू की थी। उस सौदे का एक महत्त्वपूर्ण पहलू यह था कि इनमें से 18 विमान ही तैयारशुदा हालत में भारत में आने थे, जबकि शेष विमानों का राफेल की निर्माता कंपनी दॅसां से लाइसेंस के अंतर्गत भारत में ही एचएएल द्वारा निर्माण किया जाना था। यूपीए-द्वितीय के कार्यकाल के आखिर तक करीब-करीब अमल शुरू होने के चरण में पहुंच चुके इस प्रस्तावित सौदे को मोदी की सरकार ने एकाएक निरस्त कर दिया और इसकी जगह पर राफेल के ही 36 विमान तैयारशुदा हालत में खरीदने के जिस सौदे पर दस्तखत किए उसमें एचएएल को इस सौदे से पूरी तरह से बाहर कर दिया गया और आफसैट्स के लिए प्रमुख भारतीय साझीदार के तौर पर दसियों हजार करोड़ रुपये के सौदे अनिल अंबानी की रक्षा क्षेत्र में नौसिखिया तथा कर्ज में डूबी कंपनी को मिल गए।
इसी के आधार पर विपक्ष प्रधानमंत्री की पहल पर किए गए नये सौदे पर अनिल अंबानी को फायदा पहुंचाने के लिए किया गया सौदा होने का आरोप लगाता रहा है। हालांकि आरोपों के जवाब में सरकार की ओर से दलील दी जाती रही है कि आफसैट्स साझीदार के रूप में अनिल अंबानी की कंपनी का चुनाव इसी सरकार द्वारा किए गए रक्षा खरीद प्रक्रिया में संशोधन के अनुरूप राफेल की निर्माता कंपनी दॅसां का अपना स्वतंत्र चुनाव था, जिसके बारे में मोदी सरकार को पता तक नहीं था। फिर भी विपक्ष नये सौदे की पेरिस में घोषणा के समय  अनिल अंबानी की उपस्थिति समेत अनेक साक्ष्यों के आधार पर तथ्य के रूप में सरकार के दावे पर बराबर सवाल खड़े करता रहा है। इन सवालों को फ्रांस के तत्कालीन राष्ट्रपति ओलांद के इस बयान ने और बल दिया है कि नये सौदे में ऑफसैट्स साझीदार के चयन में फ्रांस का कोई हाथ नहीं था और मोदी सरकार ने जो नाम दिया था, उसे ही स्वीकार कर लिया गया था। रक्षा मंत्री ने मोदी सरकार द्वारा एचएएल को 1 लाख करोड़ के ऑर्डर दिए जाने का दावा भी किया था। हालांकि रक्षा मंत्री का यह दावा भी इस सचाई को नकारने में नाकाम था कि यूपीए के दौर के प्रस्तावित सौदे के मुकाबले में नये सौदे में एचएएल को नुकसान हुआ है, अंबानी की कंपनी को फायदा हुआ है, फिर भी रक्षा मंत्री के दावे ने खुद ही नये सवाल खड़े कर दिए।
इन नये सवालों को रक्षा मंत्री के  उक्त दावे के अगले दिन ही आई इस खबर ने और हवा दे दी कि एचएएल ने अपने कर्मचारियों के वेतन के भुगतान के लिए 1000 करोड़ रुपये का ऋण लिया है। विपक्ष के एचएएल को 1 लाख करोड़ रुपये के ऑर्डर दिलाने के रक्षा मंत्री के दावे को झूठा करार देने और इसे एक मंत्री द्वारा संसद को गुमराह करने का मामला करार देने के बाद से, रक्षा मंत्रालय द्वारा इसकी सफाई दी गई है कि रक्षा मंत्री ने उक्त दावे में 20 हजार करोड़ से ज्यादा के मौजूदा ऑर्डरों के साथ 70 हजार करोड़ रुपये से ज्यादा के ऐसे ऑर्डरों को भी जोड़ लिया था, जो अभी ‘पाइपलाइन’ में ही हैं। लेकिन इस बहस के क्रम में सार्वजनिक क्षेत्र की प्रतिष्ठित से प्रतिष्ठित कंपनियों के साथ हमारे शासकों द्वारा पिछले कुछ दशकों से किए जा रहे सौतेले बर्ताव के और बड़े सवाल भी उठ गए हैं। इसी सौतेले बर्ताव का हिस्सा है कि जिस मोदी सरकार ने फ्रांसीसी कंपनी से विमानों की खरीद के लिए दसियों हजार करोड़ रुपये का अग्रिम भुगतान करना जरूरी समझा है, एचएएल से खरीदे गए उपकरणों का 15,7000 करोड़ बकाया ही रखा है, जो चालू वित्त वर्ष के आखिर तक 20,000 करोड़ रुपये पर पहुंच जाने का अनुमान है। ऊपर से इस सार्वजनिक क्षेत्र कंपनी के स्वामी के तौर पर केंद्र सरकार ने लाभांश तथा बॉइबैक के नाम पर इसी कंपनी से 11,000 करोड़ वसूल भी किए हैं।
साफ है कि मौजूदा सरकार की दिलचस्पी सिर्फ यह है कि विरासत में मिली इन सार्वजनिक परिसंपत्तियों को अंधाधुंध निचोड़ा जाए और अंतत: उन्हें निजी हाथों में बेच दिया जाए। इसीलिए अपने स्वदेशी तथा ‘मेक इन इंडिया’ के सारे दावों के बावजूद मोदी सरकार को विवादास्पद राफेल सौदे के जरिए लाइसेंस के तहत देश में राफेल विमान बनाने के क्रम में एचएएल को संबंधित उच्च विमानन प्रौद्योगिकी को पचाने का जो मौका मिला होता उससे ही वंचित करते हुए कोई हिचक ही नहीं हुई। अचरज नहीं कि देश के मजदूरों की दो दिनी देशव्यापी हड़ताल में सरकार के चौतरफा हमलों का मुद्दा भी प्रमुखता से उठाया जा रहा है।

राजेन्द्र शर्मा


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