सांसद निधि : उपयोग न होने की पेचीदगी
सांसदों की नीरसता के चलते सांसद निधि फंड का इस्तेमाल न होना चिंता का विषय है। क्षेत्र के विकास के लिए प्रत्येक सांसद को करोड़ों की राशि सालाना आवंटित होती है, लेकिन खबर है कि ज्यादातर सांसद उसका प्रयोग नहीं कर पा रहे।
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सांख्यिकी एवं कार्यान्वयन मंत्रालय की रिपोर्ट के मुताबिक ज्यादातर सांसदों ने अपनी सांसद निधि का इस्तेमाल नहीं किया। लोक सभा के 543 सांसदों में से मात्र 35 सांसद ही विकास निधि का उपयोग कर पाए। जनता बड़ी उम्मीद के साथ अपने पसंद के जनप्रतिनिधियों को चुनकर संसद में भेजती हैं ताकि उनके क्षेत्र का विकास हो सकें।
रिपोर्ट के बाद प्रतीत होता है कि सांसद सिर्फ शान-शौकत के लिए सांसद बनते हैं। जीतने के बाद अपने क्षेत्र और जनता से कोई लेना देना नहीं होता। ऐसे सांसदों पर भविष्य में चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध लगना चाहिए। जो नेता किसी काम का न हो उसे चुनने का क्या मतलब? इस बार कई सांसद ऐसे रहे जो अपने क्षेत्र में एकाध बार ही गए। रंगमंच की दुनिया से जुड़े सांसदों के पास अपने फील्ड का ही काम इतना होता है कि नेतागिरी में ज्यादा समय नहीं दे पाते। ऐसे व्यक्तियों को संसद में भेजने का क्या फायदा जो इलाके का विकास ही न कर सके। ऐसे व्यक्ति सिर्फ स्वार्थ और शौक के लिए सांसद बनते हैं। सूत्रों से पता चला है कि केंद्र सरकार में ऐसे सांसदों की एक लिस्ट तैयार हुई है, जिसे सार्वजनिक किया जाना है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपनी पार्टी के ऐसे सांसदों के टिकट भी काटने की तैयारी में हैं। दूसरे सियासी दलों को भी ऐसा करना चाहिए।
सांख्यिकी एवं कार्यान्वयन मंत्रालय की रिपोर्ट चिंतित करती है। इससे समाज में गलत संदेश जा रहा है। केंद्र सरकार की ओर से लोक सभा और राज्य सभा, दोनों सदनों के सदस्यों को उनके पूरे कार्यकाल में 21,125 करोड़ रुपये सांसद निधि के तौर पर खर्च करने को आवंटित किए जाते हैं। लेकिन पिछले दस सालों से देखने को मिला है कि यह राशि खत्म नहीं हो सकी। कुल राशि में करीब 12 हजार करोड़ रुपये अभी तक सरकारी सुस्ती के कारण सरकारी खजाने में सुरक्षित है। इस राशि को खर्च करने की सांसदों ने पहल ही नहीं की। इस मसले पर सांख्यिकी एवं कार्यक्रम क्रियान्यवयन मंत्रालय ने अपनी सालाना समीक्षा बैठक में गहरी चिंता जताई है।
गौरतलब है कि 1993 में जब प्रथमत: सांसद निधि का प्रावधान लागू किया गया था, तब इसका विरोध हुआ था। कहा गया था कि इससे भ्रष्टाचार में तब्दीली आएगी। वीरप्पा मोइली के नेतृत्व वाली प्रशासनिक सुधार समिति इस फंड को समाप्त करने की सिफारिश भी कर चुकी थी, लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने सांसद निधि की राशि एक करोड़ से बढ़ाकर दो करोड़ रुपये सालाना कर दी। जिस सांसद निधि को पीवी नरसिंह राव ने एक करोड़, अटल बिहारी वाजपेयी ने दो करोड़ और डॉ. मनमोहन सिंह ने पांच करोड़ किया, उसी निधि के लिए कई सांसद मांग कर रहे हैं कि अब यह राशि पचास करोड़ कर दी जाना चाहिए ताकि सांसद आदर्श ग्राम योजना का क्रियान्वयन किंचित सुविधाजनक हो सके। सवाल उठता है जब मौजूदा फंड ही खर्च नहीं होता तो फिर इसे बढ़ाने का मतलब ही नहीं बनता। दरकार इस बात की है कि इस फंड को सीधे केंद्रीय सांख्यिकी एवं कार्यान्वयन मंत्रालय के अधीन कर देना चाहिए। जिस सांसद को जितना पैसा चाहिए उसे मांगपत्र के आधार पर मुहैया किया जाए।
हालांकि सांसदों की राशि बढ़ाने की मांग प्रधानमंत्री मोदी ने नकार दी है। साथ ही, फंड का इस्तेमाल न करने वाले सांसदों की समीक्षा करने का प्लान तैयार किया है। आखिर, जनता के नाम पर आंवटित धन जब उस तक पहुंचेगा ही नहीं तो भला उसका विकास कैसे होगा। पिछले दो दशकों से घोटालों के लिए कुख्यात हो चुकी सांसद निधि ने राजनीति और लोकतंत्र में विश्वास को दागदार कर दिया है। इसे नियंत्रित करना शायद अब संभव नहीं रहा। इस फंड को खत्म करना ही मात्र विकल्प हो सकता है।
हालांकि सरकार सांसदों और राज्य सरकारों पर इस रकम को जल्द खर्च करने का दबाव बना रही है ताकि 2019 चुनावों से पहले विकास कार्यों का फायदा गरीब और जरूरतमंदों को मिल सके। लोक सभा के सांसदों को 13625 करोड़ रुपये और राज्य सभा के सांसदों को 7500 करोड़ रुपये आवंटित किए गए थे यानी सांसद निधि के तहत विकास योजनाओं के लिए 21125 करोड़ आंवटित हुए। इनसे विकास के काम किए जाने थे। सभी कागजी साबित हुए। फंड का इस्तेमाल न करने वालों उनकी पार्टी को एक्शन लेना चाहिए। उनको हिदायतें भी दी जाएं।
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