राम मंदिर : शीघ्र हल की संभावना क्षीण
जैसे ही यह खबर आई कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का साक्षात्कार आने वाला है, पूरे देश की नजर उस पर टिक गई।
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वैसे तो प्रधानमंत्री से लोग बहुत कुछ सुनना चाहते थे पर ज्यादातर की रुचि दो विषयों में थी; अनुसूचित जाति-जनजाति कानून में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को संसद द्वारा पलटा जाना और अयोध्या में श्रीराम मंदिर का निर्माण। उन्होंने पहले विषय पर कुछ नहीं बोला। हालांकि इस बारे में पैदा हुई गलतफहमी तीन राज्यों में पराजय का सर्वप्रमुख कारण रहा है।
अयोध्या पर उन्होंने कुछ संदेश दिया। जब उनसे इस संबंध में प्रश्न किया गया तो उन्होंने पहले कहा कि मामला अभी सर्वोच्च न्यायालय के पास है। हमें उसकी कानूनी प्रक्रिया की प्रतीक्षा करनी होगी। उन्होंने कहा, ‘मैं कांग्रेस से अपील करता हूं कि वह राम मंदिर के मामले में अपने वकीलों के जरिए न्यायिक प्रक्रिया में देरी न करवाए। इस मामले को राजनीतिक रूप से न देखें। पहले न्यायिक प्रक्रिया पूरी हो जाए, उसके बाद सरकार की जो जिम्मेदारी है, सरकार निभाएगी।’ उनसे जब तीन तलाक पर अध्यादेश का संदर्भ याद दिलाते हुए अध्यादेश लाने की मांग पर प्रश्न पूछा गया तो उन्होंने कहा कि दोनों में अंतर है। तीन तलाक पर अध्यादेश सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद लाया गया, जबकि यह मामला अभी न्यायालय में चल रहा है। इन पंक्तियों का अर्थ लगाने के लिए हम अपने अनुसार स्वतंत्र हैं। हां, बिना स्पष्ट कहे हुए प्रधानमंत्री ने संदेश दिया कि अगर न्यायालय का फैसला अनुकूल नहीं आया तो वे अध्यादेश ला सकते हैं। चार जनवरी को सर्वोच्च न्यायालय ने कुछ सेकेंड में निपटाकर सुनवाई की तिथि 10 जनवरी निश्चित कर दी।
इसमें कहीं नहीं है कि प्रतिदिन सुनवाई होगी बल्कि प्रतिदिन सुनवाई की जनहित याचिका को न्यायालय ने तत्क्षण खारिज कर दिया। जैसे ही प्रधानमंत्री का साक्षात्कार आया राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबोले ने बयान जारी कर इसे भाजपा के वायदे के अनुरूप एक सकारात्मक बयान घोषित किया। उसके दूसरे दिन विश्व हिन्दू परिषद के कार्यकारी अध्यक्ष आलोक कुमार ने जो कुछ कहा, उससे साफ था कि उन्हें न्यायालय में मामला लंबा खींचने की आशंका है और इसलिए वे चाहते हैं कि मोदी अपने इसी कार्यकाल में संसद द्वारा कानून बनाकर मंदिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त करें। विहिप की चेतावनी साफ है कि सरकार ने ऐसा नहीं किया तो प्रयागराज कुंभ में 31 जनवरी और 1 फरवरी को होने वाले धर्म संसद में संत समाज अपना निर्णय करेगा। संघ प्रमुख मोहन भागवत ने लगभग यही बात कही। इस समय आप साधु-संतों से लेकर विहिप, बजरंग दल, संघ ही नहीं भाजपा के भी आम कार्यकर्ताओं से बातें करिए तो उसकी ध्वनि भी यही है कि सरकार को संसद में कानून बनाकर मंदिर का रास्ता बना देना चाहिए। हालांकि इसमें ऐसे लोग भी हैं, जिनको न तो पूरा मुकदमा मालूम है और न यह कि अध्यादेश आएगा तो क्या यह क्या कानून बन सकता है?
एक माहौल बना हुआ है। वे तो कह रहे हैं कि मंदिर निर्माण कराएं और संसद में 350 सीट पाएं। अगर ऐसा ही होता तो बाबरी विध्वंस के बाद भाजपा प्रदेश चुनावों में पराजित नहीं होती। भाजपा विरोधी पार्टयिों ने इस पर चुप्पी साध ली है। प्रश्न है कि अब होगा क्या और केंद्र सरकार क्या कर सकती है? या क्या करना चाहिए? पहले न्यायिक संभावनाओं पर विचार करें। तीन सदस्यों की पीठ सुनवाई कर किसी निष्कर्ष पर पहुंचती है तो उसे पांच सदस्यों की पीठ को सुपुर्द करने की मांग की जा सकती है। फिर वहां मामला चलेगा। मान लीजिए दोनों पीठ ने वही फैसला दिया, जो 30 सितम्बर 2010 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने दिया था तो क्या होगा? यह भी संभव है सर्वोच्च न्यायालय सुनवाई करते हुए उच्च न्यायालय के पास ही फिर से विचार करने के लिए मामला भेज दे। उस समय तीन न्यायाधीशों की पीठ ने फैसला किया था। तो यह पांच सदस्यों की पीठ के पास जाएगा। उसके फैसले के बाद फिर यह सर्वोच्च न्यायालय में आएगा। इस तरह देखें तो मामला के लंबा खींचने के पूरे आसार हैं। इस परिप्रेक्ष्य में विचार करें तो मंदिर समर्थकों की यह मांग जायज लगेगी कि सरकार को आगे आकर कानून के लिए संसद में प्रयास करना चाहिए।
सरकार ने पौने पांच वर्ष में राम मंदिर मामले पर कभी भी विचार किया ही नहीं। कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद टीवी कैमरे के सामने तो सर्वोच्च न्यायालय से अपील करते हैं कि इसकी तेजी से सुनवाई की जाए, लेकिन केंद्र सरकार यही अपील लेकर सर्वोच्च न्यायालय नहीं जाती। बाहर के बयानों से न्यायालय की कार्रवाई का क्या मतलब है? यह भंगिमा साबित करता है कि केंद्र सरकार अयोध्या मामले को लेकर अंधेरे में है। सरकार में होते हुए सर्वोच्च न्यायालय के परे कदम उठाने में हिचक समझ में आती है। यह भी समझ में आती है कि नरेन्द्र मोदी की जो वैश्विक छवि बनी है, उसे विरोधी बिगाड़ने की कोशिश करेंगे। किंतु जब आपके वायदे में था तो आपने अभी तक इस पर विचार क्यों नहीं किया? भाजपा प्रवक्ता कहते हैं कि उत्तर प्रदेश सरकार बाजाब्ता अपील लेकर सर्वोच्च न्यायालय गई है। यह तर्क इसलिए हास्यास्पद है, क्योंकि उत्तर प्रदेश सरकार इसमें पार्टी नहीं हो सकती। केंद्र ही इसमें पार्टी हो सकती है। केंद्र सरकार ने मार्च 1993 में अयोध्या कानून के तहत विवादास्पद जमीन सहित 67.7 एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया था। न्यायालय ने इसके दो उपबंधों को तो रद्द कर दिया मगर अधिग्रहण को बनाए रखा। इस तरह अभी भी उतनी जमीन का स्वामित्व केंद्र सरकार के पास है और इस नाते वह मुकदमे में पार्टी बन सकती है। केंद्र एक बार भी सर्वोच्च न्यायालय गई ही नहीं। मुकदमा भी अजीब है।
आज न बाबर का कोई अधिकृत कानूनी वारिस है और राम का तो कोई कानूनी वारिस हो ही नहीं सकता। तो फिर जमीन की मिल्कियत का मामला हो कैसे हो गया? अगर है तो फिर केंद्र ने जमीन का अधिग्रहण किया है उसे छाती ठोककर न्यायालय जाना चाहिए था। प्रधानमंत्री के बयान एवं न्यायालय के आचरण को देखते हुए यह साफ लग रहा है कि अयोध्या विवाद न्यायालय में अभी लंबा चलेगा। न्यायालय से अंतिम फैसला आ गया तो उसको क्रियान्वित करने के समय कौन सी सरकार केन्द्र एवं प्रदेश में रहती है यह बहुत मायने रखेगा। संत समाज क्या कर सकता है? मंदिर निर्माण कुछ घंटों का काम तो है नहीं कि निर्माण कर दें। इसलिए मंदिर निर्माण का भविष्य अधर में ही समझिए।
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