स्वास्थ्य : उत्तराखंड की प्रेरक पहलकदमी
पच्चीस दिसम्बर, 2018 को उत्तराखंड सरकार ने ‘अटल आयुष्मान उत्तराखंड योजना’ की घोषणा की।
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राज्य की यह योजना आयुष्मान भारत कार्यक्रम (एबीपी) के आधार पर बनाई गई है। एबीपी में प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना (पीएम-जेएवाई) के तहत जनसंख्या के 40 प्रतिशत हिस्से को बड़े अस्पतालों में उपचार के लिए वित्तीय संरक्षण दिए जाने का प्रावधान है। लेकिन राज्य सरकार ने राज्य की शेष 60 प्रतिशत जनसंख्या को भी अटल आयुष्मान उत्तराखंड योजना के तहत लाने का फैसला किया है। इस तरह योजना को सही मायने में सुलभ बना दिया है। हिमाचल प्रदेश, मेघालय, पंजाब और कर्नाटक जैसे अन्य अनेक राज्य हैं, जो अपने यहां की बाकी साठ प्रतिशत आबादी तक योजना का विस्तार करने की तैयारी में हैं। लेकिन उत्तराखंड आयुष्मान भारत कार्यक्रम को ‘व्यापक’ बनाने वाला देश का प्रथम राज्य बन गया है। उम्मीद है कि आने वाले महीनों में अन्य राज्य भी इस दिशा में बढ़ेंगे।
हेल्थ एंड वेलनेस सेंटर (एचडब्ल्यूसी) का दूसरा हिस्सा पहले से ही शत प्रतिशत आबादी तक पहुंच बनाने का मंसूबा बांध चुका है। भारत जैसी संघीय प्रणाली, जहां स्वास्थ्य राज्य का विषय है, में स्वास्थ्य सेवाओं तथा स्वास्थ्य संबंधी नतीजों को बेहतर करने में राज्यों की निश्चित ही महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। इसके अलावा, एक आधुनिक समाज में लोगों की स्वास्थ्य प्रणालियों और सरकारों से कुछ उम्मीदें होती ही हैं। इनमें शामिल हैं-1) स्वास्थ्य सुविधा और इसे उपलब्ध कराना उनकी पहुंच में होना चाहिए; 2) कोई व्यक्ति स्वास्थ्य सुविधा तक पहुंचता है तो उसकी स्वास्थ्य जरूरतों के मुताबिक सेवाएं उसे मिलनी चाहिए; 3) सेवाएं या तो निशुल्क हों या उसके भुगतान की क्षमता के अनुरूप होनी चाहिए; और 4) किसी भी व्यक्ति को उसकी जरूरत के मुताबिक सेवाएं मिलनी ही चाहिए या ऐसी सेवाएं मुहैया नहीं कराएं जाएं जिनकी उसे जरूरत ही नहीं हो।
इन बिंदुओं से हमे इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि स्वास्थ्य सेवाएं 1) पहुंच में हों; 2) उपलब्ध हों; 3) वहनीय हों; और 4) गुणवत्तापूर्ण हों या समुचित स्वास्थ्य देखभाल करने वाली हों। इस संदर्भ में आयुष्मान भारत कार्यक्रम एचडब्ल्यूसी के दो हिस्सों और पीएमजेएवाई तथा नेशनल हेल्थ मिशन (एनएचएम) की सफलता के साथ लगता है कि भारत में स्वास्थ्य सेवाओं की पहुंच और सघनता को बढ़ाने अच्छी भूमिका निभाएगा। इसलिए आयुष्मान भारत कार्यक्रम में भारत की राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति (2017) में प्रस्तावित यूएचसी के वायदे को पूरा करने की क्षमता है। यह कार्यक्रम ज्यादा से ज्यादा जनसंख्या को स्वास्थ्य सेवाओं के दायरे में लाने तथा उसे वित्तीय संरक्षण पहुंचाने पर केंद्रित है। कहा जाता है कि आगाज अच्छा, तो अंजाम भी अच्छा। लेकिन स्वास्थ्य सेवाओं के मामले में यह कहावत अच्छे से प्रयास किए जाने पर ही चरितार्थ होगी। भारत अच्छी नीतियों का मसौदा तैयार करने के लिए जाना जाता है, और उनके कार्यान्वयन के विभिन्न स्तरों पर गच्चा खा जाता है। यूएचसी के क्रियान्वयन के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति जरूरी है। किसी नीति की घोषणा जितनी ही महत्त्वपूर्ण है, उसका क्रियान्वयन।
जहां तक राजनीतिक इच्छाशक्ति की बात है, तो थाईलैंड से कुछ सबक सीखे जा सकते हैं। थाईलैंड 2001 में ही यूनिवर्सल कवरेज स्कीम (यूसीएस) को सफलतापूर्वक क्रियान्वित कर चुका है। उसके बाद से प्रधानमंत्री तथा स्वास्थ्य मंत्री स्तर पर अनके राजनैतिक बदलावों के बावजूद यह स्वास्थ्य सेवा पहले सतत आगे बढ़ती रही। एक के बाद एक आने वाली सरकारों के कार्यकाल के दौरान भी यह सिलसिला बढ़ता रहा। भारत में संघीय प्रणाली होने के कारण केंद्र सरकार के स्तर पर शुरू की जाने वाली किसी योजना शायद ही कभी आगाज समझा जाता हो। अब एबीपी को ही लें। इसका आगे बढ़ना राज्यों की सरकारों के हस्तक्षेपों और अतिरिक्त पहल या प्रयासों पर निर्भर करेगा। भारत में एनएचएम के अनुभव से देखा गया है कि इस मिशन के नतीजे और प्रभाव राज्य सरकार की क्षमता और नेतृत्व पर निर्भर रहे। उत्तराखंड जैसे राज्यों को अब तेजी से क्रियान्वयन की दिशा में बढ़ना चाहिए। अन्य राज्यों को उसका अनुसरण करते हुए अपने यहां ज्यादा से ज्यदा लोगों को स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया कराने की दिशा में बढ़ना चाहिए। राज्य सरकारों के बीच स्वस्थ प्रतिस्पर्धा को नीति आयोग की 2018 में जारी रिपोर्ट में दी की गई रैंकिंग के जरिए मापा गया है। हेल्थी स्टेट्स : प्रोग्रेसिव इंडिया-समूचे राष्ट्र की सही तस्वीर पेश करने वाली है।
यदि राज्य सरकारें पांच वर्ष के अपने कार्यकाल के पहले ढाई साल में पहल करती हैं, और बाकी के आधे कार्यकाल में क्रियान्वयन का लेखा-जोखा करती हैं तो यकीनन स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया कराने के उद्देश्य को पूरा करने में सहायता मिलेगी। एबीपी भारतीय राज्यों के ऐसा जरिया है, जिससे वे यूएचसी की तरफ अग्रसर हो सकते हैं। इसके लिए दूरदृष्टि, रूपरेखा, वित्त और पांच से दस साल की जरूरत होगी। राज्य चाहें तो अपने तई इस दिशा में प्रयास कर सकते हैं, और चाहें तो ‘पंच पक्षीय रणनीति ‘मेक-बिल्ड-चूज-लॉन्च-कन्वर्ज’ के जरिए भी आगे बढ़ सकते हैं। मेक यानी राजनीतिक और सार्वजनिक रूप से प्रतिबद्ध होकर मसौदा बनाकर निश्चित अवधि में यूएचसी को हासिल करने की दिशा में बढ़ें।
बिल्ड यानी मौजूदा कार्यक्रमों और पहल की पहुंच और सघनता बढ़ाएं। चूज यानी किस दिशा में बढ़ना है, यह तय करें। लेकिन यूएचसी हासिल करने के लिए तीन आयाम (जनसंख्या पहुंच, सेवा पहुंच और वित्तीय संरक्षण) पूरे करने जरूरी हैं। लॉन्च यानी पहले से की जा चुकी पहल और स्वास्थ्य संबंधी उभरतीं चुनौतियों का समाधान और असमानता से निजात पाई जाए। कन्वर्ज यानी स्वास्थ्य क्षेत्र की सभी पहल के साथ सभी पक्षों और गैर-स्वास्थ्य क्षेत्रों को एकजुट किया जाए ताकि स्वास्थ्य प्रणाली में साझा लक्ष्यों को हासिल किया जा सके। भारत में सभी स्तरों पर तकनीकी और सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञता के मामले में पर्याप्तता की स्थिति है। ऐसी कि मंसूबों को पूरा किया जा सकता है।
आयुष्मान भारत एक साहसी और महत्त्वाकांक्षी कार्यक्रम है। लेकिन क्या सभी को स्वास्थ्य सेवाओं की परिधि में ला पाएगा? यह निर्भर करेगा उत्तराखंड के अलावा राज्यों द्वारा उठाए जाने वाले कदमों पर। देखना होगा कि कितने अन्य राज्य इस चुनौती और भारत के लोगों की अपेक्षा पर खरे उतरते हैं।
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