मुद्दा : आफत हैं आवारा मवेशी
इलाहबाद, प्रतापगढ़ से लेकर जौनपुर तक के गांवों में देर रात लोगों के टार्च चमकते दिखते हैं। इनकी असल चिंता वे लावारिस गोवंश होता है, जो झुंड में खेतों में आते हैं व कुछ घंटे में किसान की महीनों की मेहनत उजाड़ देते हैं।
![]() मुद्दा : आफत हैं आवारा मवेशी |
जब से बूढ़े पशुओं को बेचने को ले कर उग्र राजनीति हो रही है, किसान अपने बेकार हो गए मवेशियों को नदी के किनारे ले जाता है, वहां उसकी पूजा की जाती है फिर उसके पीछे कुछ रसायन लगाया जाता है, जिससे मवेशी बकाबू हो कर बेतहाशा भागता है। यहां तक कि वह अपने घर का रास्ता भी भूल जाता है।
भूखे, बेसहारा गौवंश के बेकाबू होने के चलते उत्तर प्रदेश में तो आए रोज झगड़े हो रहे हैं। ऐसी गायों का आतंक राजस्थान, हरियाणा, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश में इन दिनों चरम पर है। कुछ गौशालाएं तो हैं लेकिन उनकी संख्या आवारा पशुओं की तुलना में नगण्य हैं और जो हैं भी तो भयानक अव्यवस्था की शिकार, जिसे गायों का कब्रगाह कहा जा सकता है। अलीगढ़ में आवारा मवेशियों की समस्या से कैसे निबटें, इससे हताश प्रशासनिक अमले ने कुछ जिंदा गायों को ही दफना दिया। मथुरा में कई सरकारी स्कूलों में हजारों गायों को खदेड़ कर बंद कर दिया गया ताकि वे खेत में मुंह न मारें। इनमें कई गायें खाना-पीना ना मिलने से मर गई। देश के जिन इलाकों में आमतौर पर सूखा दस्तक देता रहता है, जहां रोजगार के लिए पलायन ज्यादा हो रहा है, वहां छुट्टा मवेशियों की तादाद सबसे ज्यादा है। इनके लिए पीने के पानी की व्यवस्था का गणित अलग ही है।
इसके अलावा मुस्लिम गौ पालक भयवश अपने मवेशी आवारा छोड़ रहे हैं। आए रोज गांव-गांव में कई-कई दिन से चारा ना मिलने या पानी ना मिलने या फिर इसके कारण भड़क कर हाईवे पर आने से होने वाली दुर्घटनाओं के चलते मवेशी मर रहे हैं। पूस की सर्दी में जहां किसान रातभर अपने खेतों की रखवाली कर परेशान है तो मवेशी भूख से बेहाल। बुंदेलखंड की मशहूर ‘अन्ना प्रथा’ यानी लोगों ने अपने मवेशियों को खुला छोड़ दिया हैं क्योंकि चारे व पानी की व्यवस्था वह नहीं कर सकते। सैकड़ों गायों ने अपना बसेरा सड़कों पर बना लिया। हजारों की संख्या में गायें जिस दिशा में निकलती है, किसान लाठी लेकर उन्हें खदेड़ने में लग जाते हैं। कई जगह पुलिस लगानी पड़ती है। प्रशासन के पास इतना बजट नहीं है कि हजारों गायों के लिए हर दिन चारे-पानी की व्यवस्था की जाए। एक मोटा अनुमान है कि हर दिन प्रत्येक गांव में लगभग 10 से 100 तक मवेशी खाना-पानी के अभाव में दम तोड़ रहे हैं। भूखे-प्यासे जानवर हाईवे पर बैठ जाते हैं और इनमें से कई सड़क दुर्घटना में मारे जाते हैं और कई चारे और पानी के अभाव में कमजोर होकर मर रहे हैं। किसानों के लिए यह परेशानी का सबब बनी हुई हैं क्योंकि उनकी फसल को मवेशियों का झुंड चट कर जाता है। पिछले दो दशकों से मध्य भारत का अधिकांश हिस्सा तीन साल में एक बार अल्प वष्रा का प्रकोप झेलता है। यहां से रोजगार के लिए पलायन की परंपरा भी एक सदी से ज्यादा पुरानी है, लेकिन दुधारू मवेशियों को मजबूरी में छुट्टा छोड़े देने का रोग अभी कुछ दशक से ही है। ‘अन्ना प्रथा’ यानी दूध ना देने वाले मवेशी को आवारा छोड़ देने के चलते यहां खेत व इंसान दोनों पर संकट है। यहां जानना जरूरी है कि अभी चार दशक पहले तक हर गांव में चारागाह की जमीन होती थी।
शायद ही कोई ऐसा गांव या मजरा होगा, जहां कम-से-कम एक तालाब और कई कुएं नहीं हों। जंगल का फैलाव पचास फीसद तक था। आधुनिकता की आंधी में बह कर लोगों ने चारागाह को अपना ‘चारागाह’ बना लिया व हड़प गए। तालाबों की जमीन समतल कर या फिर घर की नाली व गंदगी उसमें गिरा कर उनका अस्तित्व खत्म कर दिया। हैंड पंप या ट्यूबवेल की मृगमरीचिका में कुओं को बिसरा दिया। जंगलों की ऐसी कटाई हुई कि अब बुंदेलखंड में अंतिम संस्कार के लिए लकड़ी नहीं बची है। यह समझना जरूरी है कि गौशाला खोलना सामाजिक विग्रह का कारक बने बेसहारा पशुओं का इलाज नहीं है। वहां केवल बूढ़े या अपाहिज जानवरों को ही रखा जाना चाहिए। आज जिंदा जानवर से ज्यादा खौफ मृत गौवंश का है, भले ही वह अपनी मौत मरा हो। तभी बड़ी संख्या में गौपालक गाय पालने से मुंह मोड़ रहे हैं। देश व समाज के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले पशु-धन को सहेजने के प्रति दूरंदेशी नीति व कार्ययोजना आज समय की मांग है। जब तक ऐसी योजनाओं की क्रियान्वयन एजेंसी में संवेदनशील लोग नहीं होंगे, मवेशी का चारा इंसान के उदरस्थ ही होगा।
| Tweet![]() |