विश्लेषण : मजबूत सरकार पर संशय
राष्ट्रीय राजनीति में क्षेत्रीय दलों के फिर से मुख्य भूमिका में आने की स्थिति निर्मिंत हो रही है।
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2014 के चुनाव परिणामों को ‘पाराडाइम शिफ्ट’ या ‘परिमाणात्मक परिवर्तन’ इसलिए कहा गया था कि लंबे समय बाद सरकार गठन में क्षेत्रीय दलों की आवश्यकता नि:शेष हो गई थी। तब माना गया था कि देश करवट ले चुका है। क्षेत्रीय दलों में ऐसे कम ही हैं, जो राष्ट्रहित के दृष्टिकोण से गठबंधन में अपनी भूमिका निभाते हैं। हमने क्षेत्रीय दलों की सरकार बनाए रखने में अपनी अपरिहार्यता के दंभ में गैरजिम्मेवार और दबावकारी भूमिका के कारण सरकार को विवश होते देखा है।
भारत और दुनिया की बहुआयामी गंभीर होती राजनीतिक, आर्थिक और सामरिक समस्याओं व चुनौतियों को देखते हुए केंद्र में एक मजबूत सरकार की आवश्यकता है। जिस दिशा में राजनीति जा रही है, उसमें ऐसा हो पाएगा इस पर गंभीर प्रश्नचिह्न खड़ा है। तीन राज्यों में कांग्रेस की विजय के बाद लगा था कि विपक्ष के बीच उसकी केंद्रीय भूमिका बढ़ेगी किंतु ऐसा हो नहीं रहा है। उल्टे महत्त्वपूर्ण राज्य उत्तर प्रदेश में बसपा एवं सपा की भूमिका से उसका भविष्य अधर में फंस गया है। इन तीन राज्यों में पराजय से भाजपा अजीब प्रकार के दबाव में है। दो सीटें जीतने वाली जद (यू) को बिहार में उसने अपने बराबर 17 सीटें दे दीं तो लोजपा को जीती हुई छह सीटों के साथ रामविलास पासवान को असम से राज्य सभा लाने का वायदा भी कर दिया। बिहार के इस समझौते के लिए उसे अपनी जीती हुई पांच सीटों की बलि चढ़ानी पड़ी। इसको आधार बनाएं तो ऐसा लगेगा कि भाजपा 2019 के चुनाव के लिए साथी व संभावी क्षेत्रीय दलों के सामने झुककर समझौता करेगी।
ऐसा होने का अर्थ ही है, एक पार्टी की बहुमत की संभावना खत्म होना। हम गठबंधन की कई गतिविधियां देख रहे हैं। तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव ने दोबारा सत्ता ग्रहण करने के बाद अपनी राजनीतिक चहलकदमी फिर आरंभ कर दी है। वे परंपरागत शिष्टाचार के तहत राजधानी में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से मिले। उसमें सामान्यत: राजनीतिक चर्चा नहीं होती। किंतु जो सूचना मिल रही है चंद्रशेखर राव ने प्रधानमंत्री से राजनीति पर भी बातचीत की। इस समय चंद्रशेखर राव एवं आंध्र के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू जिस तरह एक-दूसरे के विरु द्ध तीखी बयानबाजी कर रहे हैं, उनको भविष्य की राजनीतिक रूपरेखा के लिए एक बड़ा कारक मानना होगा। नायडू ने राहुल गांधी से नजदीकियां बढ़ाकर आंध्र एवं तेलंगाना से एक नई राजनीतिक धारा को जन्म देने की कोशिश की है। केसीआर का लक्ष्य स्पष्ट है, चन्द्रबाबू नायडू को केंद्रीय राजनीति में महत्त्वपूर्ण भूमिका से रोकना, कांग्रेस को सत्ता में आने से रोकना और स्वयं केंद्रीय राजनीति में आना। तेलंगाना में उन्होंने इनके गठबंधन का सपना चकनाचूर कर दिया। नायडू एवं केसीआर दोनों के बीच राष्ट्रीय राजनीति को लेकर जो प्रतिस्पर्धा है, उसका परिणाम क्या आएगा कहना कठिन है। केसीआर और नायडू दोनों तेलुगूदेशम में ही थे। एन. टी. रामाराव की मृत्यु के बाद केसीआर ने नायडू के एकछत्र नेतृत्व को चुनौती दी और अलग होकर तेलांगना राष्ट्र समिति बनाई।
केसीआर गैर भाजपा, गैर कांग्रेस संघीय मोर्चा की बात कर रहे हैं और उनका यही उद्देश्य है भी, परंतु नायडू के भाजपा विरोध के कारण मोदी के प्रति उनका वैसा विरोध नहीं है जैसा कांग्रेस को लेकर। वे नवीन पटनायक, ममता बनर्जी के साथ सपा-बसपा को कांग्रेस-नायडू गठजोड़ के निकट नहीं आने देना चाहते। केसीआर के पुत्र केटी रामाराव उनकी सरकार में मंत्री हैं और बेटी कविता सांसद। कविता हिन्दी अच्छी तरह बोलती हैं और अखिलेश यादव की पत्नी डिम्पल से उनके अच्छे संबंध हैं। वो अखिलेश से भी संपर्क में हैं और मायावती के साथ भी उनका संवाद है। वह भी अपने पिता के अभियान में सहयोग कर रही हैं। केसीआर अपने बेटे पर विश्वास कर तेलंगाना के बाहर राजनीतिक अभियान में पूरा समय लगा सकते हैं। केसीआर की भूमिका से 2019 के चुनावी गठजोड़ एक सीमा तक ही सही प्रभावित होंगे। ममता कांग्रेस को अभी भी महत्त्व देने की मनोस्थिति में नहीं है। अगर आप उत्तर प्रदेश, बिहार, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल, केरल, तमिलनाडु की राजनीति देखें तो इनमें कांग्रेस कहीं भी मुख्य भूमिका में नहीं है। माकपा केरल की अपनी एकमात्र ठोस आधार वाले राज्य में कांग्रेस से समझौता नहीं कर सकती।
इन सबमें कांग्रेस का भविष्य क्षेत्रीय दलों की कृपा पर निर्भर है। तो कांग्रेस लड़ेगी कितनी सीटों पर जिससे वह केन्द्रीय भूमिका में आ सके? भाजपा ने पश्चिम बंगाल, उड़ीसा एवं केरल में अपनी स्थिति मजबूत कर कांग्रेस को हाशिये पर धकेल दिया है। जो लोग कांग्रेस को लेकर उत्साहित हैं, उन्हें जमीनी यथार्थ का निष्पक्ष आकलन करना चाहिए। अगर चुनाव के बाद यूपीए जैसे प्रयोग की आवश्यकता पड़ी तो कैसी सरकार बनेगी इसकी कल्पना हम आसानी से कर सकते हैं? आज की राजनीति का क्रूर सच यह है कि क्षेत्रीय दल दोनों राष्ट्रीय दलों को दबाव में लाकर अधिक-से-अधिक सीटें पाने और उनकी बदौलत जीतने की स्वार्थी राजनीति कर रहे हैं। 2014 के विपरीत यह बदला हुआ मनोविज्ञान है, जो 1996 और 1998 की स्थिति की याद दिलाता है। भाजपा विरोधी जो क्षेत्रीय दल कांग्रेस के साथ गठबंधन करने के मूड में हैं, वे उसे बड़ा दल नहीं बनने देना चाहते। ज्यादातर का उद्देश्य यही है कि कांग्रेस कमजोर रहे। दूसरी ओर भाजपा नेतृत्व के अंदर लगता है तीन राज्यों के परिणामों ने सत्ता खोने का भय पैदा कर दिया है। रामविलास पासवान की पार्टी के आगे भाजपा की पस्त हालत का नजारा सामने है।
शिवेसना केंद्र एवं महाराष्ट्र दोनों सरकार में भागीदार रहते हुए भी ऐसे बयान दे रही है जैसे विरोधी पार्टी हो। उद्धव ठाकरे ने अलग चुनाव लड़ने का ऐलान किया तो उसका लक्ष्य क्या हो सकता है? उत्तर प्रदेश में अपना दल और सुहेलदेव पार्टी तक आंखे दिखा रहे हैं। इनको भी लगता है कि दबाव बढ़ाकर ज्यादा से ज्यादा सीटें पाई जाए। कांग्रेस और भाजपा में अंतर यह है कि भाजपा को ज्यादातर जगह अपने कारणों से वोट मिलेगा या नहीं मिलेगा। तो दोनों पक्षों का दृश्य चिंताजनक है। इसमें साहस के साथ निर्णय लेने वाली सरकार की जगह दबाव के सामने लाचार सरकार देखने को मिलेगा। क्या हम ऐसी स्थिति चाहते हैं?
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