आरबीआई विवाद : नये साल में भी रहेगा जिंदा

Last Updated 31 Dec 2018 06:07:39 AM IST

केंद्र सरकार ने 2018 में पूरे वर्ष अपनी वित्तीय योजनाओं और नीतियों को यह कहकर उचित ठहराने पर केंद्रित रखा कि ‘अच्छे दिन’ के लिए ये सारे कदम उठाए गए, जो वायदा 2014 आम चुनाव में मतदाताओं से किया था।


आरबीआई विवाद : नये साल में भी रहेगा जिंदा

इस बात को हर जनसभा में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कहते हैं। ‘अच्छे दिन’ के लिए सबसे पहले चाहिए पैसा और पैसे को नियंत्रित करने वाली संस्था भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) से सरकार का टकराव 2018 में अपने चरम पर रहा।

अब करीब आ गया 2019 आम चुनाव, जिसमें प्रधानमंत्री मोदी को अपनी पार्टी को प्रचंड बहुमत दोबारा दिलाने के लिए वोटरों को आस्त करना पड़ेगा कि आरबीआई से विवाद समेत वस्तु और सेवा कर (जीएसटी) और नोटबंदी जैसे सारे आर्थिक कदम जनहित में थे। कतारों में घंटों खड़े रहकर वोट डालने वाले आम वोटरों को अभी तक यह बात समझ में नहीं आ रही है कि रिजर्व बैंक से सरकार का टकराव क्यों हुआ?

2016 में प्रधानमंत्री के नोटबंदी एलान के बाद दो साल के अंदर दो रिजर्व बैंक गवर्नरों ने इस्तीफा दिया और 2018 के अंत में तीसरे गवर्नर भी सरकार के साथ डीलिंग में खुद को सहज नहीं पा रहे हैं। दरअसल, इसके बाद ही लोगों ने जाना कि रिजर्व बैंक एक स्वायत्त संस्था है और सरकार इसे अपने नियंत्राण में लेना चाहती है। पहली बार यह विवाद उसी समय सामने आया, जब प्रधानमंत्री मोदी ने नवम्बर, 2016 में अचानक 500 और 1000 के नोट का चलन रोकने का एलान कर दिया, जबकि इस योजना से असहमति के कारण अगस्त, 2016 में ही रिजर्व बैंक गवर्नर रघुराम राजन ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया था।

आम जनता में अराजक और आर्थिक पल्रय की स्थिति पैदा हो गई, जिससे लोग अभी तक उबर नहीं पाए हैं। सिपर्फ साक्षर वोटर ही जानते थे कि राष्ट्रीय मुद्रा का कस्टोडियन रिजर्व बैंक है। रघुराम राजन की जगह उर्जित पटेल आए और वह भी स्थिति संभाल नहीं पाए और दिसम्बर, 2018 में उन्हें भी आरबीआई गवर्नर पद से इस्तीफा देना पड़ा। प्रधानमंत्री मोदी और केंद्रीय वित्तमंत्री अरुण जेटली पूरे दो साल तक नोटबंदी को जनहित में ठहराते रहे और जनता में त्राहि-त्राहि मची रही।

इस दौरान आरबीआई गवर्नर अपने पूर्ववर्ती रघुराम राजन द्वारा उठाए गए मुद्दे को गलत नहीं बता पाए। बैंकों में अफरा-तफरी और जनता की तबाही का निदान आरबीआई नहीं खोज पा रही थी। उसी दौरान गवर्नर उर्जित पटेल को नये संकट का सामना करना पड़ गया। आम लोगों की समझ में सिर्फ इतनी सी बात आई कि सरकार रिजर्व बैंक की ‘संचित पूंजी’ हड़पकर छोटे और मझोले उद्योगों को आसान शतरे पर कर्ज देकर ‘अच्छे दिन’ का दूसरा चुनावी दांव खेलना चाहती है। क्योंकि रिजर्व बैंक ने सार्वजनिक उपक्रम के बैंकों को कर्ज देने में और वसूली में कड़ाई के निर्देश दिए। आरबीआई जब इसके लिए तैयार नहीं हुई, तब सरकार ने आरबीआई एक्ट के सेक्शन-7 का हवाला दिया।

इसके पहले लोग न तो आरबीआई एक्ट जानते थे और न ही सेक्शन-7 का नाम लोगों ने सुना था। सेक्शन-7 की जानकारी जनता के बीच एक नये विवाद के साथ पहुंची। यह विवाद एक्ट के इस प्रावधान से जुड़ा है- ‘आरबीआई एक्ट के सेक्शन-7 के अंतर्गत केंद्र सरकार आरबीआई को समय-समय पर गवर्नर के परामर्श से वैसे निर्देश दे सकती है, जो सरकार जनहित में आवश्यक  समझे।’ अब यह सवाल जनता के बीच है कि आरबीआई एक्ट के इस सेक्शन के इस्तेमाल की जरूरत क्यों पड़ी और जब आरबीआई गवर्नर उर्जित पटेल इससे सहमत नहीं थे तब भी सरकार इस पर क्यों अड़ी रही?
उर्जित पटेल की जगह नियुक्त गवर्नर शक्तिकांत दास कुछ स्पष्ट बोलने से कतराते हैं। 1934 में बने आरबीआई एक्ट के 83 वर्षो के इतिहास में कभी सेक्शन-7 का इस्तेमाल नहीं हुआ। आज नोटबंदी की तरह ही अचानक सेक्शन-7 के इस्तेमाल की जरूरत क्यों पड़ गई? इसका जवाब केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली के पास नहीं है। 12 नवम्बर को गवर्नर का कार्यभार ग्रहण करते ही शक्तिकांत दास ने सफाई दी कि ‘सरकार और आरबीआई के बीच बिल्कुल ‘स्वतंत्र निष्पक्ष और खुला विमर्श’ चल रहा है।

सरकार कोई दावेदार नहीं है, बस प्रमुख नीतिगत निर्णयों का प्रबंध करती है।’ इसका सीधा तात्पर्य यही निकलता है कि कहीं कुछ है जो स्पष्ट नहीं है और मतदाताओं के बीच सरकार-आरबीआई विवाद की सही तस्वीर नहीं पहुंच पा रही है। डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य ने मतदाताओं को स्पष्ट बता दिया कि केंद्रीय बैंक पर दबाव बनाने की सरकार की कोशिशों से आरबीआई की स्वायत्तता पर आंच आ सकती है और 2018 से पहले सरकार-आरबीआई संबंध इतना खराब कभी नहीं हुआ।

शशिधर खान


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