सामयिक : गडकरी के बोलने का मतलब

Last Updated 28 Dec 2018 06:56:00 AM IST

मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में हार के झटके से मोदी-शाह जोड़ी की छवि को बचाने की भाजपा की सारी कोशिशें नाकाम होती नजर आती हैं।


सामयिक : गडकरी के बोलने का मतलब

भाजपा के गढ़ माने जाने वाले तीन-तीन हिंदीभाषी राज्यों में, आम चुनाव से ऐन पहले हार का यह झटका इतना तगड़ा निकला है कि सत्ताधारी पार्टी और मोदी सरकार के प्रवक्ताओं की इस आश्य की तमाम दलीलें बेअसर साबित हो गई हैं कि राज्यों के चुनाव, राज्यों के मुद्दों पर होते हैं, उनमें हार-जीत को केंद्र सरकार पर जनादेश नहीं माना जा सकता है आदि।
इस बड़ी हार की आंच आखिरकार, भाजपा के मौजूदा केंद्रीय नेतृत्व तक पहुंचती लग रही है। पूर्व-भाजपा अध्यक्ष और मोदी सरकार में वरिष्ठ मंत्री, नितिन गडकरी के हाल के बयानों के इतने अर्थ से तो कोई इनकार कर ही नहीं सकता है। गडकरी ने पुणो में एक बैंक के आयोजन में प्रस्तुत प्रसंग से अलग हटकर, इसकी शिकायत की थी कि राजनीतिक नेतृत्व हार की जिमेदारी लेने से बचना चाहता है, जबकि विफलता की जिमेदारी लेने से ही नेतृत्व की संगठन के प्रति वफादारी का पता चलता है। उन्होंने इस पर भी खेद जताया था कि जीत का श्रेय लेने वाले कितने ही निकल आते हैं, जबकि हार लावारिस होती है। बेशक, इस बयान के चर्चा में आने के बाद, गडकरी ने मीडिया और विपक्ष पर अपने बयान को तोड़-मरोड़कर पेश करने की शिकायत ही नहीं की थी, उन पर अपने और पार्टी के बीच में खाई पैदा करने की कोशिश करने का आरोप भी लगाया था।

इतना ही नहीं, गडकरी ने इसका एलान भी करना जरूरी समझा था कि उनकी नेतृत्व संभालने की कोई महत्त्वाकांक्षा नहीं है और भाजपा 2019 का चुनाव नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में ही लड़ेगी और जीतेगी। लेकिन, जैसा कि बाद में आए गडकरी के ही बयानों से बाद में स्पष्ट हो गया, उन्होंने कम-से-कम अपनी इस मांग का खंडन करने की कोई जरूरत नहीं समझी थी कि पार्टी नेतृत्व को हार की जिम्मेदारी स्वीकार करनी चाहिए और जिम्मेदारी दूसरों पर डालने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। वास्तव में ऐसा लगता है कि पुणो के बयान को लेकर गडकरी ने जो सफाई देना जरूरी समझा था, उसका उतना संबंध इस बयान में जो कहा गया था उससे नहीं था, जितना कि उसकी पृष्ठभूमि में रहे एक और प्रसंग से था। यह प्रसंग, महाराष्ट्र सरकार के एक कृषि संबंधी निकाय के अध्यक्ष किशोर तिवारी ने, जिन्हें संघ परिवार के काफी नजदीक समझा जाता है, तीन राज्यों की हार के फौरन बाद और इस हार के लिए मोदी-शाह जोड़ी को सीधे-सीधे जिम्मेदार ठहराते हुए, आरएसएस प्रमुख भागवत को और नंबर-दो भैयाजी जोशी को, चिट्ठी लिखकर मांग की थी कि इस जोड़ी को हटाकर, भाजपा नितिन गडकरी के नेतृत्व में चुनाव में उतरेगी, तो 2004 की हार को दुहराने से बचा जा सकेगा। कहने की जरूरत नहीं है कि तिवारी ने मोदी-शाह के नेतृत्व से संघ-भाजपा की कतारों के बढ़ते हिस्से की निराशा को ही स्वर दिया था, जिसका भाजपा के नेतृत्व पर हावी इस जोड़ी ने अवश्य काफी गंभीरता से नोटिस लिया होगा।
इसी संदर्भ में पुणो के बयान की सफाई के बहाने से गडकरी ने इस नेतृत्व को यह भरोसा दिलाने की कोशिश की थी कि उनके गिर्द प्रधानमंत्री के स्तर पर विकल्प रखने की कोई कोशिश नहीं की जा रही थी। इसीलिए उन्होंने प्रसंग से बाहर जाकर, इसका भरोसा दिलाना जरूरी समझा था कि 2019 चुनाव भाजपा नरेन्द्र मोदी के ही नेतृत्व में लड़ेगी। बहरहाल, पुणो के बयान की सफाई के बाद, सरकारी आयोजनों में और खासतौर पर खुफिया अधिकारियों को संबोधित करते हुए अपने बयान के जरिए गडकरी ने यह स्पष्ट कर दिया है कि वह अपने पुणो के बयान के इस मूल आशय पर कायम हैं कि नाकामी की जिम्मेदारी नेतृत्व को स्वीकार करनी चाहिए, जो वह नहीं कर रहा था। वास्तव में खुफिया अधिकारियों को संबोधित करते हुए गडकरी अपने पहले के बयान से एक कदम आगे बढ़ गए और उन्होंने सीधे पार्टी अध्यक्ष के पद का उल्लेख करते हुए कहा कि अगर पार्टी के विधायक या सांसद अच्छा काम नहीं कर रहे हैं, तो इसकी भी जिमेदारी पार्टी अध्यक्ष पर ही आती है। पुणो के बयान के बाद के  खंडन के साथ जोड़कर देखा जाए तो ऐसा लगता है कि गडकरी फिलहाल, मोदी को नहीं छेड़ना चाहते हैं और उन्होंने अपने हमले की धार, अपने उत्तराधिकारी अमित शाह पर ही केंद्रित कर रखी है। गडकरी और आरएसएस के संबंधों के जानकारों की यह धारणा शायद गलत नहीं है कि इस हमले के पीछे आरएसएस का अनुमोदन हो सकता है।
भले ही आरएसएस ने शाह को लेकर कोई नाराजगी नहीं जताई हो, फिर भी संघ-भाजपा के कार्यकर्ताओं में पैदा हुई निराशा को देखते हुए, उसने इस पर जोर देने में कोताही नहीं की है कि हार के कारणों की लीपापोती नहीं, पूरी गंभीरता से परीक्षा की जानी चाहिए।  संघ के कुछ जानकारों को तो लगता है कि बात सिर्फ इतनी भी नहीं है। असल में, तीन राज्यों की हार से पहले भी, मोदी राज की घटती लोकप्रियता की पृष्ठभूमि में, इसकी चर्चा होती रही थी कि 2019 के चुनाव में अगर भाजपा को बहुमत नहीं आता है और दूसरी पार्टियों के समर्थन के बिना सरकार नहीं चलाई जा सकती है, तो उसके लिए आरएसएस का प्लान-बी तैयार है। इस प्लान के तहत, अन्य पार्टियों के प्रति नरम रुख रखने वाले गडकरी को आरएसएस नेतृत्व के लिए आगे कर सकती है। बेशक, इस प्लान बी के रास्ते की मुश्किलें कम करने के लिए भी, भाजपा पर शाह-मोदी जोड़ी के शिकंजे को कमजोर करना जरूरी होगा। वर्ना चुनाव के बाद अगर अनिश्चिततापूर्ण हालात हुए तो मौजूदा नेतृत्व जोड़ी तो, प्लान-बी को लागू करना ही मुश्किल बना सकती है।
यह सब इसलिए और अहम हो जाता है कि तीन राज्यों में हार और उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, बंगाल आदि बड़े राज्यों के चुनावी आसार को देखते हुए, आरएसएस ने तो यह मान भी लिया लगता है कि 2019 में एनडीए को बहुमत मिलना कठिन है और त्रिशंकु लोक सभा आने की ही ज्यादा संभावना है। आरएसएस के मुखपत्र, आर्गनाइजर के ताजा अंक में त्रिशंकु लोक सभा की आशंका जताया जाना और उससे पैदा होने वाली कम-से-कम कुछ समय की राजनीतिक अस्थिरता के नुकसान गिनाया जाना, आरएसएस के इसे वास्तविक संभावना माने जाने को तो दिखाता ही है। ऐसा लगता है कि ऐसे हालात के लिए आरएसएस ने गंभीरता से गडकरी को आगे बढ़ाने की कवायद शुरू कर दी है। देखना दिलचस्प होगा कि मोदी-शाह की जोड़ी संघ के इस पैंतरे से कैसे निपटती है?

राजेन्द्र शर्मा


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