मीडिया : एंकरों के हलफनामे
एक हिंदी ऐंकर अपनी एंकरी की खासियत कुछ इस तरह से बताती है कि एंकर का काम है खबर देना।
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जिन खबरों का जीवन पर असर होता है, उनको बताना और समझाना..लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि खबरों का असर उस पर नहीं होता..यानी उस पर भी होता है।
ऐेसे ही एक अंग्रेजी एंकर कहता है कि खबर के बारे में उसका भी अपना एक ‘नजरिया’ (व्यू) है..
एंकरी के इतिहास में यह पहली बार है कि कुछ एंकर खुलकर बताने लगे हैं कि वे खबरों और चरचाओं को अपने नजरिए से पेश करते हैं यानी कि उनकी प्रस्तुति ‘तटस्थ’ नहीं है, यह आप अच्छी तरह जान लें! इस प्रकार की सफाई देने की जरूरत अचानक क्यों आन पड़ी? क्या एंकरों पर खबरों का ऐसा असर पहले नहीं होता था? या कि अब कोई मजबूरी है, जिसे आप पत्रकारिता के एक ‘न्यू नॉर्मल’ यानी ‘नया चलन’ की तरह चलाना चाहते हैं?
शायद हां!
यों अब भी अंग्रेजी के कई चैनल अपनी पत्रकारिता की ‘तटस्थता’ का दावा करते रहते हैं, लेकिन क्या वे एकदम ‘तटस्थ’ होते हैं, या हो सकते हैं। हरगिज नहीं! मीडिया की ‘तटस्थता’ एक मिथक ही है। हर मीडिया की अपनी ‘बिजनेस राजनीति’ होती है। कोई भी मीडिया पूरी तरह तटस्थ नहीं होता।
यह बात सब जानते हैं लेकिन उसे ‘कहते’ नहीं। संपादक या एंकर या रिपोर्टर के विचार खबर के चयन या उसकी व्याख्या में समाए रहते हैं, लेकिन जब तक वे देश और समस्त समाज के हित में माने जाते हैं, तब तक ‘तटस्थ’ ही माने जाते हैं।
एक मानी में तो हर पत्रकार किसी न किसी का पक्षधर होता ही है, या कि उसे वैसा सिद्ध किया जा सकता है। लेकिन फिर भी अधिकतर पत्रकार अपने आपको तटस्थ की तरह पेश करते हैं, तो सिर्फ इस कारण कि वे किसी का पक्ष खुलेआम नहीं लेते। एक राष्ट्रीय या व्यापक सामाजिक हित, एकता, अखंडता, सौहार्द और भाईचारे की ओर उनके विचार मुड़े होते हैं। आजादी मिलने के बाद से मीडिया का यह एक सर्वस्वीकृत ‘कोड’ है।
तब कुछ एंकरों को अचानक ये क्यों कहना पड़ा कि उनका भी एक ‘नजरिया’ है यानी कि आप उनकी बातों में उनके विचारों की गंध पाएं, उनको एक ओर झुका पाएं तो इसका बुरा मानें क्योंकि वे भी एक इंसान हैं, और आपको पहले ही बता चुके हैं कि वे ‘तटस्थता’ का झूठा ‘नाटक’ नहीं करना चाहते।
इस बेबाकी के लिए ऐसे ‘अ-तटस्थ’ एंकरों को धन्यवाद अवश्य दिया जाना चाहिए क्योंकि वे खबरों के प्रति अपनी ‘पक्षधरता’ को छिपा नहीं रहे!
पर, इन महानुभावों को अभी ऐसा ‘आत्मज्ञान’ क्यों हुआ? यह शायद इसलिए हुआ कि अब वक्त आ गया है कि ‘तटस्थता’ के ‘मिथक’ को तोड़ दिया जाए और एंकरों के अपने ‘नए एक्टिविज्म’ के लिए ‘वैधता’ प्राप्त कर ली जाए।
पिछले कुछ बरसों में खबर चैनलों में कुछ एक्टिविस्ट किस्म के रिपोर्टरों और एंकरों का अवतरण हुआ है, जो खुले आम एक खास पक्ष की ओर झुके दिखते हैं, और खबरों या बहसों को उसी की दिशा में चलाते हैं।
जब से कुछ एंकरों ने अपने को ‘राष्ट्र’ या ‘देश’ का या ‘न्याय’ का पर्याय बनाया है, तब से खबर और विचार एक खास दिशा में लुढ़काए जाते दिखते हैं।
ऐसी खबरें दिन भर बजाई जाती रहती हैं, जो समाज के सौहार्द, सामंजस्य, एकता, अखंडता में दरारें डालने वाली होती हैं। धर्म या अस्मिता संबंधी ज्यादातर बहसें आजकल विभाजनकारी दिशा में दौड़ती दिखती हैं।दो चार दिन तो ऐसे होते ही हैं, जब कट्टर धार्मिक पहचान वाले कुछ वक्ता-प्रवक्ताओं को विचारक के रूप में पेश किए जाता है। उनके बीच जमकर तू तू मैं मैं कराई जाती है। जब दोनों पक्षों की कट्टरता टीआरपी को चरम पर पहुंचा देती है, तब एंकर बीच बचाव करते हुए कहने लगता/लगती है कि मैं अपने चैनल का दुरुपयोग नहीं करने दूंगा/दूंगी। इनका माइक बंद करो..
जिस दौर में एक एक शब्द ‘विस्फोटक’ की तरह गिरता हो, जिसे लेकर चैनल पूरे दिन कट्टरताओं के वाक्युद्ध करवाते रहते हों, उस दौर में अगर एंकर भी कहने लगें कि हम भी तटस्थ नहीं तो फिर जनता से किस समझदारी की उम्मीद की जा सकती है?
लेकिन अपने एंकर करें भी तो क्या करें?
जब सुबह ही ब्रीफ कर दिया जाता है कि ये बजाना है, ये चलाना है, ये बहस करानी है, और ये निष्कर्ष निकालना है तो एंकर करें भी तो क्या करें? दस-पांच लाख रुपये महीने की पगार के लिए अगर किसी का ‘एक्टिविस्ट’ हो लिया जाए तो भला इसमें नुकसान ही क्या है। भविष्य तो इसी रास्ते बनना है।
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