वैश्विकी : काबुल पर सबकी निगाहें

Last Updated 30 Dec 2018 06:39:19 AM IST

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के सीरिया के बाद अफगानिस्तान से भी अपने चौदह हजार सैनिकों में से सात हजार सैनिकों को वापस बुलाने के फैसले से आने वाले दिनों में इस क्षेत्र में शून्यता पैदा हो सकती है।


वैश्विकी : काबुल पर सबकी निगाहें

दक्षिण एशिया में महाशक्तियां अपनी मौजूदगी का विस्तार कर रही हैं, ऐसे में अमेरिकी सैनिकों की वापसी के फैसले के बाद सबकी निगाहें अफगानिस्तान पर लगी हुई हैं। रूस और चार मध्य एशियाई देश-कजाकस्तान, किर्गिस्तान, ताजिकिस्तान, उज्बेकिस्तान समेत चीन, पाकिस्तान, ईरान और भारत सभी के काबुल में कूटनीतिक-राजनीतिक हित हैं। अफगानिस्तान में तालिबान का असर बढ़ रहा है। यही वजह है कि पिछले दिनों शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की बैठक में पाकिस्तान ने अफगानिस्तान की राजनीतिक व्यवस्था में तालिबान की भागीदारी का मुद्दा उठाया था। रूस मानकर चल रहा है कि अफगानिस्तान में अमेरिकी नीति असफल हो गई है। इसलिए वह यहां अपनी सक्रियता बढ़ा रहा है। पिछले महीने रूस की पहल पर मास्को में अफगानिस्तान सरकार और तालिबान के बीच बैठक हुई थी। इस बैठक में भारत, अमेरिका, चीन और पाकिस्तान समेत बारह देशों के प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया था।

रूस और पाकिस्तान, अफगानिस्तान में आईएसआईएस के विस्तार से चिंतित हैं। रूस सीरिया में असद सरकार के पक्ष में खुलकर खड़ा हो गया था। उसके इस कदम से आतंकी संगठन इस्लामिक स्टेट (आईएसआईएस) रूसी नेतृत्व से नाराज है। दो हजार सोलह में रूस के सेंट पीटर्सबर्ग मेट्रो में आईएस ने आतंकी हमला करके अपनी मौजूदगी दर्ज कराई थी। हमले के बाद रूस अपनी सुरक्षा को लेकर सावधान हो गया है। रूसी नेतृत्व जानता है कि आईएस ने अफगानिस्तान में विस्तार कर लिया तो वह मास्को और मध्य-एशियाई देशों तक आसानी से पहुंच जाएगा। पाकिस्तान अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा की खातिर हमेशा चाहेगा कि अफगानिस्तान में ऐसी सरकार का गठन हो जिसका इस्लामाबाद के साथ सहानुभूतिपूर्ण रिश्ता रहे। ऐसी सरकार के गठन से अमेरिका उससे नाराज हो भी जाए तो वह परवाह नहीं करेगा। जाहिर है, यदि ऐसा होता है तो अमेरिका और पाकिस्तान के रिश्ते और ज्यादा खराब हो सकते हैं। इसलिए सुरक्षा की दृष्टि से रूस और पाकिस्तान की साझी चिंताएं हैं, और इस नाते दोनों एक दूसरे का सहयोग करेंगे। दक्षिण एशिया का सबसे शक्तिशाली देश चीन इस क्षेत्र में अपने कूटनीतिक और आर्थिक हितों का विस्तार कर रहा है। इसे देखते हुए सहज ही यह अनुमान लगाया जा सकता है कि बीजिंग अफगानिस्तान में सीमित प्रभाव वाला अपना सैनिक अड्डा स्थापित कर सकता है। रूस अफगानिस्तान की शांति प्रक्रिया में तालिबान को शामिल करने को लेकर जिस तरह अपनी पहल पर बैठकें आयोजित कर रहा है, उससे लगता है कि आने वाले दिनों में शंघाई सहयेग संगठन अमेरिका के अफगानिस्तान से हटने के बाद उत्पन्न होने वाली शून्यता को भरने की जिम्मेदारी ले सकता है।
काबुल से अमेरिकी सैनिकों की वापसी भारत के सुरक्षा हितों पर असर डाल सकती है क्योंकि अफगान संकट के समाधान के बारे में नई दिल्ली का रूस तथा ईरान जैसे उसके क्षेत्रीय पारंपरिक सहयोगियों से अलग नजरिया है। रूस को आईएस का प्रेत डरा रहा है, और वह इससे लड़ने के लिए अफगानिस्तान में तालिबान की भूमिका सुनिश्चित करना चाहता है। इसके लिए भारत का सहयोग चाहेगा। लेकिन देखने वाली बात होगी कि नई दिल्ली किस सीमा तक इसमें शरीक होगा। अफगानिस्तान को लेकर भारत की सुरक्षा संबंधी चिंताएं हैं। भारत हमेशा चाहेगा कि काबुल में ऐसी सरकार का गठन हो जिसमें तालिबान के किसी भी धड़े का हिस्सा शमिल न हो। नई दिल्ली यह भी चाहेगा कि वहां ऐसी सरकार का भी गठन न हो जिसका झुकाव पाकिस्तान की ओर हो क्योंकि यदि अफगानिस्तान और पाकिस्तान की सरकारों के बीच सहयोग होगा तो भारत की सुरक्षा की दृष्टि से खतरा बन सकता है। अगर चीन, रूस और पाकिस्तान की पहल पर अफगानिस्तान में तालिबान की वापसी होती है, तो इसका सीधा असर जम्मू-कश्मीर पर पड़ेगा जो वहां सक्रिय आतंकी संगठनों का हौसला बढ़ाने में मददगार होगा। जाहिर है कि ट्रंप की नई अफगान नीति जहां भारत की चुनौतियां बढ़ाने वाली हैं, वहीं पाकिस्तान को इसका राजनीतिक फायदा मिल सकता है।

डॉ. दिलीप चौबे


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