कॉल ड्रॉप : सरकार और कंपनियां बेफिक्र
भारत अकेला देश है जहां एक मोबाइल टावर से कनेक्ट होकर एक वक्त में 400 लोग बात कर रहे होते हैं।
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अब तो मोबाइल इंटरनेट का बोझ भी ये टावर उठा रहे हैं। ऐसे में कॉल ड्रॉप का वह मर्ज बदस्तूर जारी है, जिसके लिए सरकारें पिछले कई सालों से दावे करती रही हैं कि वे टेलीकॉम कंपनियों की एक नहीं सुनेंगीं और उन्हें उपभोक्ताओं के हित को सर्वोपरि मानते हुए हर हाल में इस समस्या का इलाज निकालना होगा।
कॉल ड्रॉप यानी मोबाइल फोन पर बात करते वक्त कनेक्शन अचानक बार-बार टूटना या नेटवर्क ही नहीं मिलना कितनी बड़ी समस्या है-इसका अंदाजा ग्राहकों की शिकायतों से लगता है। एक सर्वेक्षण (संस्था-लोकल सर्कल्स) के मुताबिक देश में 56 फीसद लोग कॉल ड्रॉप से बुरी तरह दुखी हैं। सर्वेक्षण 240 शहरों में 32 हजार मोबाइल फोन उपभोक्ताओं पर किया गया। इसके निष्कर्ष में कहा गया है कि भारतीयों के लिए बड़ी समस्या कॉल कनेक्ट न होने और बात बीच में टूट जाने की है। सरकार को इसकी थोड़ी-बहुत फिक्र हाल में हुई है। इस साल दूरसंचार कंपनियों ने सरकार से कॉल ड्रॉप को रोकने के लिए 74 हजार करोड़ रुपये का वादा किया था।
इस मामले में बुलाई गई बैठक में ज्यादातर दूरसंचार कंपनियों ने मोबाइल टावरों की संख्या बढ़ाने के लिए पैसा खर्च करने की बात कही थी। पर जितने लंबे-चौड़े वादे ये कंपनियां करती हैं, और सरकार इन पर सख्ती बरतने के जितने तीखे तेवर दिखाती है, आम ग्राहकों का अनुभव बताता है कि कॉल ड्रॉप के मामले में स्थितियां कतई बेहतर नहीं हुई हैं। अजीब बात यह भी है कि जब भी भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (ट्राई) की तरफ से कॉल ड्रॉप पर अंकुश के लिए कोई फरमान जारी किया जाता है, दूरसंचार कंपनियां अपने बचाव का कोई नया तर्क लेकर सामने आ जाती हैं। कई बार तो ट्राई भी साजिश में खुद शामिल दिखता है, नहीं तो अपने पिछले निर्देशों पर सख्ती से अमल क्यों नहीं करता। उल्लेखनीय है कि पिछले साल ट्राई ने नये दिशानिर्देश जारी कर कहा था कि कोई ऑपरेटर लगातार 3 तिमाहियों में कॉल ड्रॉप के लिए तय मानकों पर खरा नहीं उतरता है, तो उस पर डेढ़ लाख से 10 लाख रुपये तक का जुर्माना लगाया जाएगा। यह ग्रेडेड जुर्माना प्रणाली है, जो किसी नेटवर्क के प्रदशर्न पर निर्भर करेगी यानी कोई ऑपरेटर लगातार तिमाहियों में कॉल ड्रॉप के मानकों को पूरा करने में विफल रहता है, तो जुर्माना राशि बढ़ती जाएगी। हालांकि अधिकतम जुर्माना 10 लाख रुपये तक रहेगा। ऐलान तो दमदार था, लेकिन इसके अधीन कोई कार्रवाई हुई हो, ऐसा कोई समाचार आज तक नहीं मिला। उल्लेखनीय है कि पिछले साल संचार मंत्रालय से संबंधित स्थायी समिति ने कॉल ड्रॉप पर संसद में जो रिपोर्ट पेश की थी, उसमें साफ कहा गया था कि इस समस्या के लिए सरकार, ट्राई और निजी टेलीकॉम कंपनियां, तीनों ही जिम्मेदार हैं। सरकार और ट्राई नियम-कायदों पर गंभीरता से ध्यान नहीं देते। एकतरफा फैसले-जुर्माने सुझाते हैं, और टेलीकॉम कंपनियां उनकी अनदेखी करके धांधली पर धांधली किए जाती हैं। जैसे एक परीक्षण दिल्ली में ढाई साल पहले (3 से 6 मई, 2016 के बीच) किया गया था, जिसमें कॉल ड्रॉप से जुड़े एक और घपले का खुलासा हुआ था।
पता चला कि कंपनियां कॉल ड्रॉप पर परदा डालने के लिए रेडियो लिंक टाइमआउट (आरएलटी) जैसी तकनीक का इस्तेमाल कर रही हैं। इस तकनीक के इस्तेमाल से कॉल के बीच में कट जाने या दूसरी से ओर कोई आवाज नहीं सुनाई देने के बावजूद कनेक्शन जुड़ा हुआ रहता है, और कॉल करने वाले का बिल तब तक बढ़ता रहता है, जब तक कि वह परेशान होकर खुद फोन न काट दे। चूंकि ऐसी स्थिति में ग्राहक खुद फोन काटता है, इसलिए मोबाइल कंपनियों पर कॉल ड्रॉप का आरोप नहीं लगता। हम यह नहीं भुला सकते कि बदलते वक्त के साथ अब मोबाइल और इंटरनेट सेवाएं आम नागरिकों की बुनियादी जरूरतों में शामिल हो गई हैं। ऐसे में समस्या की अहम वजह है नेटवर्क मुहैया कराने वाले मोबाइल टावरों का नदारद होना। जैसे मौजूदा समय में दिल्ली में 34000 मोबाइल टावर हैं, जबकि 50000 से अधिक की जरूरत है। देश में 425000 टॉवर लगाए जा सके हैं, जबकि अभी कम से कम डेढ़ से दो लाख टॉवर और लगाए जाने की जरूरत है। साफ है कि मोबाइल कंपनियों ने ज्यादा कमाई के लालच में कनेक्शन तो बांट दिए लेकिन उपभोक्ताओं को बेहतर सेवाएं देने का कोई प्रबंध नहीं किया।
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