सामयिक : क्या कह दिया कमलनाथ ने!
मध्य प्रदेश के नये मुख्यमंत्री कमलनाथ किस प्रदेश और बिरादरी से हैं, यह उनके लम्बे राजनैतिक कॅरियर के बावजूद बहुत लोगों को पता नहीं था।
![]() मध्य प्रदेश के नये मुख्यमंत्री कमलनाथ |
उनकी संजय गांधी से भी कैसी और कितनी दोस्ती थी, इसका भी खास जिक्र नहीं मिलता, पर कांग्रेस ने जब 1980 के आम चुनाव में हिन्दी पट्टी की सबसे सुरक्षित छिंदवाड़ा सीट (जिस अकेली सीट से 1977 में कांग्रेस जीती थी) इस बाहरी उम्मीदवार को दी, तब उसका कारण यही गुण बताया गया। वे व्यवसायी हैं, पैसे वाले हैं, एक बड़े प्रबंधन कॉलेज के मालिक हैं। जैसे परिचय के साथ धीरे-धीरे यह ख्याति भी जुड़ती गई कि वे छिंदवाड़ा को लेकर काफी सक्रिय रहते हैं।
कालांतर जब कांग्रेस के अन्दर उनका कद बढ़ा और वे मंत्री बने तब भी यह चर्चा रही कि वे अपने विभाग के कामकाज कुशलता से निपटाते हैं। नरेन्द्र मोदी की आंधी में भी मध्य प्रदेश में कांग्रेस जिन दो सीटों पर जीत हासिल कर पाई, उनमें छिंदवाड़ा भी एक था। और फिर सिंधिया बनाम दिग्विजय की लड़ाई के चलते ‘बाहरी’ कमलनाथ को प्रदेश कांग्रेस की बागडोर सौंपी गई। कांग्रेस जीत भी गई और इसी लड़ाई ने बुजुर्ग कमलनाथ को मुख्यमंत्री बनवा दिया। युवा और साफ छवि का होकर भी ज्योतिरादित्य मुंह ताकते रह गए। पर सत्ता संभालते ही कमलनाथ ने जो बयान दिया, वह कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी समेत कांग्रेसियों के मुंह छुपाने का कारण बना ही, खुद कमलनाथ का भी सारा ‘परिचय’ सामने ला दिया। उन्होंने किसानों की कर्ज माफी के साथ ही नौजवानों को रोजगार लायक बनाने की बात कहते-कहते यह भी कह दिया कि मध्य प्रदेश की नौकरियों पर बिहार-यूपी के लोग कब्जा कर लेते हैं। सो उन्होंने उद्योगों को तभी इंसेंटिव देने की घोषणा की जब वे सत्तर फीसद रोजगार स्थानीय लोगों को देंगे।
अब इस दूसरी वाली घोषणा की भी आलोचना हो रही है पर बात यहां तक रहती तो कोई हर्ज न था। आखिर रोजगार के अवसरों पर स्थानीय लोगों को प्राथमिकता देने का फैसला कई जगह चल रहा है और यह मांग स्थानीय बेरोजगारों की तरफ से उठती भी रही है। पर जैसे ही नाम लेकर बाहरी लोगों को निशाना बनाया गया राजनैतिक बवाल उठना स्वाभाविक है। उत्तर प्रदेश और बिहार का आर्थिक हाल किसी से छुपा नहीं है। और अगर इन राज्यों के नौजवान और मजदूर दूसरे राज्यों में जाकर काम करते हैं तो इसका कारण उनकी अपनी बदहाली है। सो यह बयान राजनैतिक रूप से गलत होने के साथ ही असंवेदनशीलता का प्रमाण भी मान लिया गया। इस पर प्रतिक्रिया देने से राहुल भी बचते दिखे। कुछ समय पहले गुजरात से पुरबिया मजदूरों को, जिनमें मध्य प्रदेश के लोग भी थे, भगाया जा रहा था, तब वे विरोध में आगे थे। जब एमएनएस ने महाराष्ट्र से पुरबिया लोगों को पीटकर भगाना शुरू किया तो राहुल ने मुंबई जाकर विरोध किया था। इस बार कमलनाथ ने उन्हें बैकफुट पर ला दिया है।
कमलनाथ का वास्ता खेती से कम है वरना उनको मालूम होता कि आज मध्य प्रदेश गेहूं और सोयाबीन समेत कई फसलों के उत्पादन में तेजी से अगुआ बना है तो इसका कारण बाहरी कुशल मजदूर भी हैं और स्थानीय बनाम बाहरी का सवाल हर जगह रहता है पर मध्य प्रदेश में अब तक ऐसी कोई बात सुनाई नहीं देती थी। हम सब जानते हैं कि असम को खेती और बागान लायक बनाने, पंजाब को धान उगाना बताने से लेकर हर तरह के काम से आगे करने और मुम्बई (कोलकाता को जमाने तक) को देश की आर्थिक राजधानी बनाए रखने में अप्रवासी मजदूरों की क्या भूमिका रही है, यह बताने की जरूरत नहीं है। पर स्थानीयता का सवाल तो रहता है, भले उसकी आड़ में राजनीतिक लाभ लेने वाले दंगा भड़काने की सोचते हैं और राज ठाकरे जैसों की तो पूरी राजनीति इसी सवाल पर चलती है। असम में भी यह सवाल बड़ा बना तो राजनीति के चलते। गुजरात समेत कई राज्यों में 70-80 फीसद स्थानीय और बीस-तीस फीसद बाहरी का कानून है। और इस बार के दंगों में यह सवाल उठा कि कई मालिक फायदे के लिए इसका पालन नहीं करते या ठेके की मजदूरी के सहारे इस प्रावधान का उल्लंघन करते हैं। इस कानून पर जरूर अमल होना चाहिए। पर इनसे भी बड़े सवाल हैं, जिनको इस अवसर पर उठाना चाहिए और उनकी चर्चा होनी चाहिए। असमान क्षेत्रीय विकास और व्यक्तियों के साथ-साथ राज्यों के बीच भी तेजी से बढ़ती असमानता भी हमारी अर्थव्यवस्था और राजनैतिक चर्चा का मुद्दा बनना चाहिए।
जब से नीतीश कुमार बिहार के अगुआ बने हैं, बिहार लगातार रिकार्ड दर से अपना जीडीपी बढ़ाए जा रहा है। सब ताली पीटते हैं पर कोई नहीं पूछता कि यह विकास कहां तक पहुंचा? बिहार राज्यवार विकास की सूची में अंतिम पायदान पर बना ही हुआ है। उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश या पूरा हिन्दी इलाका उसी गति को प्राप्त है। दिल्ली से लगे उत्तर प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान के इलाकों को छोड़कर पूरी हिन्दी पट्टी उद्योगों से वीरान हो गई है। कानपुर तक डूब गया, बिहार के रोहतास इलाके के उद्योग तो कब के समाप्त हो गए? पलायन छोड़कर बिहार की कोई आमदनी नहीं है-सुशासन के बावजूद कोई नया उद्योग, कोई नया कारोबार नहीं शुरू हुआ है। खेती सुधरी है तो लोगों के अपने दम से..। और इस बार का मसला यह है कि किसी गैर-हिन्दी वाले प्रदेश ने और किसी टुटपूंजिया समूह ने यह मसला नहीं उठाया है।
एक मुख्यमंत्री ने और वह भी हिन्दी पट्टी के ही एक बीमारू माने जाने वाले प्रदेश के मुख्यमंत्री ने ही मसला उठाया है। जब मजदूर बिना पढ़े-लिखे या तकनीकी ज्ञान के अपने से उन्नत इलाके के श्रम बाजार में पहुंचता है तो उसकी क्या दुर्गति होती है, उसे अनजान इलाके की बोली, खान-पान, नरक जैसे रहने वाले हालात में क्या-क्या भुगतना पड़ता है, उसके परिवार की औरतों को कितने बलात्कार झेलने पड़ते हैं, इसकी गिनती उन लोगों के पास नहीं होती, जो एक अपराधी मानसिकता के मजदूर के अपराध के चलते पूरे हिन्दीभाषी मजदूरों को निशाना बनाने से बाज नहीं आते। प्रवासी मजदूर किसी भी मालिक के दुलारे नहीं होते-वे सस्ता श्रम करने, सौदेबाजी की हालत में न रहने, लाल झंडा देखकर भागने और श्रम नियमों को आसानी से भुलाने के चलते मालिकों के प्रिय होते हैं। विकास के सारे मानकों पर पीछे आकर घर छोड़ने को मजबूर ये लोग किस तरह श्रमिक आंदोलन की सारी उपलब्धियों पर पानी फेरते हैं; ये नहीं जानते और कांग्रेस भाजपा जैसी पार्टयिां कब उन्हें अपनी राजनीति में इस्तेमाल करती हैं, इसका भी उन्हें पता नहीं होता।
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