कांग्रेस : अति का भला न बोलना..
अपनी रणनीतियां सफल होने पर उत्साहित होना स्वाभाविक है। किंतु उत्साह में अतिरेक हो जाए तो वही रणनीति घातक भी साबित हो सकती है।
![]() कांग्रेस : अति का भला न बोलना.. |
आवश्यक भी नहीं कि राजनीति में जो रणनीतियां एक समय कुछ स्थानों पर लाभ का कारण बनें, वही दूसरे समय दूसरी जगह या सभी स्थानों पर वैसे ही भूमिका निभाएं। उसकी ऐसी प्रतिक्रियाएं भी हो सकती हैं, जो आपको क्षति पहुंचा दें। कांग्रेस को तीन प्रमुख राज्यों के विधानसभा चुनावों में मिली सफलता के बाद आगे बढ़ने के लिए इन मूल सिद्धांतों का ध्यान रखना चाहिए।
वस्तुत: सफलता के उत्साह में जिस तरह उनकी प्रतिक्रियाएं आ रही हैं, और भविष्य की रणनीति का पार्टी जो संकेत दे रही है, उनमें खतरे और जोखिम ज्यादा हैं। दो मामले हमारे सामने हैं-हिंदुत्व विचारधारा और राफेल। राहुल गांधी को हिंदुत्व का चेहरा देने का असर कुछ लोगों पर हुआ है। भारत के मंदिरों से लेकर कैलाश मानसरोवर की यात्रा ने उनकी और कांग्रेस की हिंदू विरोधी छवि को निस्संदेह कम किया है। किंतु यह तात्कालिक परिणति है। आगे वही लोग यह भी विचार करेंगे कि जिन मुद्दों को ध्यान में रखते हुए हमने माना कि भाजपा हिंदुत्व पर कुछ कर रही है, या नहीं, उन पर राहुल और कांग्रेस कितने सक्रिय हैं।
अभी कांग्रेस की ओर से खबर दी गई कि राहुल अपनी सांसद निधि से मंदिरों का जीर्णोद्धार कराएंगे। एक टीवी चैनल ने इस पर बहस आरंभ कर दी। मंदिर का जीर्णोद्धार कराने में कोई समस्या नहीं है। मंदिर हमारी आस्था के केंद्र होने साथ-साथ सामाजिक-सांस्कृतिक उत्सवों और अनेक आवश्यक निजी कर्मकांडों के केंद्र भी हैं। किंतु इसका प्रचार करने की आवश्यकता क्यों है? यह संदेश देने की कोशिश है कि राहुल का हिंदुत्वनिष्ठ होना केवल दिखावा नहीं है, वे इस दिशा में सक्रिय हैं। आप इस दिशा में कितना करेंगे। धार्मिंक नगरों के अनेक पुराने मंदिर जीर्ण-शीर्ण अवस्था में हैं, जिनका उद्धार जरूरी है। उत्तर प्रदेश सरकार इस दिशा में काम कर रही है। भाजपा की अन्य प्रदेश सरकारों ने भी किया है। भाजपा के कुछ सांसदों ने भी ऐसा किया होगा तो वे पूरी सूची लेकर सामने आ सकते हैं। एक होड़ शुरू हो जाएगी।
धर्म एवं अध्यात्म में आस्था रखने वालों के लिए तो यह अच्छा है। किंतु यह दोधारी तलवार है। लोग हिंदुत्व के बड़े मुद्दों पर राहुल के स्पष्ट मत एवं सक्रियता की उम्मीद करने लगेंगे जो संभव नहीं हो सकता। उनके लिए यह बोलना कठिन होगा कि अयोध्या में विवादास्पद स्थान पर राममंदिर ही बनेगा। वे चर्च द्वारा हिंदुओं के धर्मांतरण के विरोध में मुखर नहीं हो सकते..मौलवियों के फतवे पर स्पष्ट राय नहीं दे सकते..गोहत्या के विरोध में आक्रामक नहीं हो सकते..। ऐसे अनेक पहलू हैं, जिनमें कांग्रेस की सीमाएं हैं। भाजपा इन पर मुखर और आक्रामक हो सकती है। ऐसा न हो कि राहुल और कांग्रेस के तेवर को देखते हुए नरेन्द्र मोदी और उनके सहयोगी इन मुद्दों पर बचकर मध्यमार्गी छवि बनाने की कोशिश छोड़ पूर्व चरित्र में आ जाएं। ऐसे में राहुल और कांग्रेस के लिए हिंदुत्व पर उनका मुकाबला करना कठिन होगा। इस सीमा तक जाने से अनेक राज्यों में कांग्रेस का अपना वोट ही कट जाएगा। भविष्य के भाजपा विरोधी गठबंधन के कुछ साथियों को भी कांग्रेस के हिंदुत्व पर अतिवादी रवैये से समस्या होगी। उन्हें लगेगा कि मुसलमान वोट कट जाएगा तो वे चुनाव-पूर्व साथ रहने में हिचकेंगे। भाजपा विरोध का जो आधार तथाकथित सेक्युलरवाद है, वो ही इससे खत्म हो जाता है। इस तरह लगातार आगे बढ़ने की सीमाएं और खतरे हैं। संदेश देकर उसी पर काम करते रहना ही कांग्रेस की सही रणनीति होती।
राफेल के साथ भी ऐसा ही है। राहुल ने मोदी को चोर कहकर उनकी ईमानदार छवि को धक्का पहुंचाने की कोशिश की। राफेल सौदे पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के बाद पहले कांग्रेस पार्टी और बाद में राहुल की प्रतिक्रियाएं तथा दिख रही आक्रामकता का अर्थ यही है कि वे इसे परवान चढ़ाना चाहते हैं। कांग्रेस के रणनीतिकारों तथा राहुल के सलाहकारों ने मोदी एवं भाजपा का मुकाबला करने के लिए कुछ रणनीतियां बनाई जिनमें भ्रष्टाचार पर जवाब देने की जगह आक्रामक होना प्रमुख है। कांग्रेस को 2014 के आम चुनाव या उसके पूर्व के चुनावों में जो क्षति हुई उसका बड़ा कारण यूपीए सरकार पर लगे भ्रष्टाचार के कलंक थे।
कांग्रेस के प्रमुख नेताओं के समानांतर मोदी की छवि निष्कलंक नेता की थी। इसको तोड़ना था तो कोई ऐसा मुद्दा चाहिए जिससे उस पर बट्टा लगाया जाए। इस दृष्टि से कांग्रेस और राहुल का राफेल सौदे पर मोदी को घेरना सही लगता है। कारण, रक्षा सौदे इतने संवेदनशील होते हैं कि पूरी जानकारी कोई सरकार सार्वजनिक नहीं कर सकती। आप सरकार को संदेह के घेरे में खड़ा करते रह सकते हैं। हालांकि इसमें नैतिक प्रश्न अपनी जगह कायम है। बिना आधार आरोप अनैतिक राजनीति के दायरे में आता है। खैर, इसे यहीं छोड़ें। समझें कि 14 दिसम्बर से काग्रेस ने जो रवैया अपनाया है, अब उनके लिए लाभकारी होगा या नहीं? कांग्रेस को लगता है कि पीछे हटते ही 2014 के लिए बनाया आधार कमजोर हो सकता है। किंतु यह खतरा अति तीखापन और आक्रामक बने रहने में भी है। तीन राज्यों में किसी सर्वेक्षण में नहीं आया है कि लोगों ने काग्रेस का साथ इसलिए दिया कि वे मोदी को राफेल सौदे में भ्रष्टाचार का दोषी मानते हैं। भाजपा राफेल पर जनता को आस्त करने में सफल नहीं रही पर लोगों ने मोदी को चोर मान लिया, इसके भी प्रमाण नहीं हैं।
सर्वोच्च न्यायालय के स्पष्ट मत पर कांग्रेस को जरा रु ककर रणनीति बनानी चाहिए थी। लेकिन वे इसे अतिवाद की सीमा तक ले जाने को आतुर हैं। मल्लिकार्जुन खड़गे ने कह दिया कि लोक लेखा समिति के अध्यक्ष होने के नाते वे कैग एवं महाधिवक्ता को सम्मन करेंगे। विधान इसके आड़े है। इस बाबत समिति के सदस्यों में ही समर्थन नहीं हैं। ऐसी अतिवादिता के खतरे बहुत हैं। चुनाव में मार खाने के तुरंत बाद आए फैसले से भाजपा ज्यादा आक्रामक हो गई है। हो सकता है राहुल को न्यायालय में भी घसीटा जाए। एक संयमित बयान दे देना ही उचित होता कि न्यायालय के फैसले पर हम कोई टिप्पणी नहीं करेंगे। वस्तुत: हिंदुत्व और राफेल पर जितना चुनावी लाभ मिलना चाहिए उतना मिला है। अतिवाद तक ले जाने से इनकी प्रभाविता खत्म हो जाने तथा इसके प्रतिकूल परिणामों के खतरे बढ़ रहे हैं। कांग्रेस अ™ोय की यह पंक्ति याद रखे कि ‘कभी वासन अधिक घिसने से मुलम्मा छुट जाता है’।
| Tweet![]() |