पर्यावरण : पेरिस समझौते पर बनी सहमति
पोलैंड के शहर काटोविस में संयुक्त राष्ट्र के 24वें जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में पेरिस समझौते को लागू करने की दिशा में बड़ी सफलता मिली है।
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करीब 197 देशों के प्रतिनिधियों ने पेरिस जलवायु समझौते के लक्ष्य हासिल करने के लिए नियम-कायदों को अंतिम रूप दिया। 2015 में हुए पेरिस जलवायु समझौते में वैश्विक तापमान में हो रही वृद्धि को दो डिग्री सेल्सियस से कम पर रोकने का लक्ष्य तय किया गया था। मालूम हो, पेरिस समझौता 2020 से प्रभावी होगा। धरती को जिन पर्यावरणीय संकटों से जूझना पड़ रहा है, उनसे निपटने का यही रास्ता है कि दुनिया के सारे देश मिल कर पेरिस समझौते पर तेजी और ईमानदारी के साथ अमल करें। कोई देश अपने यहां विकास की रफ्तार नहीं रोकना चाहता, ऐसी पाबंदी नहीं चाहता जो उसके हितों पर असर डालने वाली हो।
आंकड़े बताते हैं कि 19वीं सदी के बाद से पृथ्वी की सतह का तापमान 3 से 6 डिग्री तक बढ़ गया है। हर 10 साल में तापमान में कुछ न कुछ वृद्धि हो ही जाती है। तापमान में वृद्धि के आंकड़े मामूली लग सकते हैं लेकिन इन पर ध्यान नहीं दिया गया तो यही परिवर्तन आगे चलकर महाविनाश का रूप ले लेगा। समुद्र का जल स्तर बढ़ता जा रहा है। जंगलों में भी भीषण आग, लू और तूफान जैसी खबरें आ रही हैं। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के अनुसार ग्रीन हाउस गैसों पर रोक नहीं लगाई गई तो वर्ष 2100 तक ग्लेशियरों के पिघलने के कारण समुद्र का जल स्तर 28 से 43 सेंटीमीटर तक बढ़ जाएगा। उस समय पृथ्वी के तापमान में भी करीब तीन डिग्री सेल्शियस की बढ़ोतरी हो चुकी होगी। ऐसी स्थितियों में सूखे क्षेत्रों में भयंकर सूखा पड़ेगा तथा पानीदार क्षेत्रों में पानी की भरमार होगी। भारत जैसे कम गुनहगार देशों को चिंतित करने वाला है कि विकसित देशों के मुकाबले कम ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जित करने वाले भारत जैसे विकासशील तथा दुनिया के गरीब देश इससे सर्वाधिक प्रभावित होंगे। इस विषय पर औधोगिक देशों का रवैया ढुल-मुल बना हुआ है। तथाकथित विकसित देशों ने अपना रवैया नहीं बदला तो पृथ्वी पर तबाही तय है। इस तबाही को कुछ हद तक सभी देश महसूस भी करने लगे हैं। भविष्य की तबाही का आईना हॉलीवुड फिल्म ‘द डे आफ्टर टूमारो’ के माध्यम से दुनिया को परोसा भी गया।
धरती पर बढ़ते तापमान के पीछे प्राकृतिक कारण नहीं हैं, बल्कि इंसान की उत्पादन और निर्माण की गतिविधियां ही असल में तापमान बढ़ा रही हैं। पेड़ों की अंधाधुंध कटाई, और कभी न खत्म होने वाले कचरे जैसे कि प्लास्टिक का इस्तेमाल जिस तेजी से हो रहा है, वो दिन दूर नहीं है, जब पूरी मानव जाति का ही अंत हो जाएगा। एक रिपोर्ट कहती है कि साल 2017 में इंसानों ने दुनियाभर में जितनी गर्मी पैदा की है, वह हिरोशिमा वाले 4 लाख परमाणु बमों के बराबर है। 1950 के बाद से इस गर्मी के बढ़ने का सबसे बड़ा कारण ग्रीनहाउस गैसें हैं। एक रिपोर्ट के मुताबिक, दुनिया में जलवायु परिवर्तन के चलते 153 अरब कामकाजी घंटे बर्बाद हुए हैं। लांसेट की यह रिपोर्ट भारत के लिए सबसे ज्यादा चेतावनी भरी है, क्योंकि इसमें अकेले भारत की क्षति 75 अरब कार्य घंटों के बराबर है। यह जलवायु परिवर्तन के चलते पूरी दुनिया में हुई कुल क्षति का 49 फीसदी है। इतना ही नहीं खराब मौसम से हुई घटनाओं से धन की भी काफी हानि होती हैं। बीते दो दशकों में भारत को 67.2 बिलियन डॉलर की हानि हुई है। वहीं, वैश्विक तौर पर 3.47 ट्रिलियन डॉलर का नुकसान हुआ है।
भारत जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में अहम देश है क्योंकि उसकी अर्थव्यवस्था तेजी से बढ़ रही है। वह चीन जैसे देशों के साथ मिलकर अमीर देशों पर दबाव डालता है कि कार्बन उत्सर्जन कम करें। भारत की मांग है कि अमीर देश विकासशील देशों को आर्थिक मदद के साथ-साथ और टेक्नोलॉजी दें ताकि वे भी साफ-सुथरी ऊर्जा के संयंत्र लगा सकें। भारत की 60 प्रतिशत आबादी अब भी गांवों में रहती है। जलवायु परिवर्तन से खेती, पशुपालन और ग्रामीण रोजगार पर बड़ा असर पड़ सकता है। इससे भारतीय अर्थव्यवस्था, हिमालयी और तटीय इलाकों में रहने वाली आबादी पर सबसे अधिक चोट पड़ेगी। यही वजह है कि अतीत में मौसम परिवर्तन की समस्या को लेकर जहां गरीब और विकासशील देश हमेशा ही दबाव महसूस करते रहे हैं, वहीं अमीर देश अपने यहां कार्बन का स्तर कम करने के लिए ठोस कदम उठाते नहीं दिखे हैं। पेरिस से लेकर मोरक्को सम्मेलनों में जितने भी मंथन हुए हैं, सब में अमृत विकसित व अमीर देशों के हिस्से ही आया है, जबकि विष का पान गरीब और विकासशील देशों को करना पड़ा है। ऐसे में पेरिस जलवायु समझौते पर विश्व का एकमत होना बड़ी सफलता है। यह एक ऐसी समस्या है, जिसमें बिना जनसमूह की भागीदारी के सफलता नहीं हासिल हो सकती।
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