स्कूली बस्ता : जरूरी है बोझ घटाना
बचपन और बोझ, ये दोनों शब्द एक-दूसरे के साथ अजीब ही नहीं गैर-जरूरी भी लगते हैं। लेकिन भारत में अनगिनत अपेक्षाओं और महत्वाकांक्षाओं के बोझ तले दबे बच्चे हर दिन बस्ते का भारी बोझ भी ढो रहे हैं।
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शिक्षा व्यवस्था का बेहद निराशाजनक पहलू है कि सहजता से सीखने-समझने और शिक्षा पाने के मासूमियत वाले पड़ाव में बच्चे किताबों का वजन ढो रहे हैं। इससे भी दुखद यह कि बच्चों की पीठ पर लदे बस्ते के वजन को कम करने के लिए कई बार दिशानिर्देश जारी किए गए पर हालात जस के तस हैं।
अब मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को सकरुलर जारी कर दसवीं कक्षा तक के विद्यार्थियों के स्कूली बस्ते का बोझ भी कम करने के दिशानिर्देश दिए हैं। पहली और दूसरी कक्षा के विद्यार्थियों को होमवर्क से मुक्त करने के निर्देश हैं। कहा गया है कि स्कूलों में विभिन्न विषयों की पढ़ाई और स्कूली बस्ते के वजन को लेकर नियम बनाए जाएं। पहली से दूसरी कक्षा के छात्रों के बैग का वजन अधिकतम डेढ़ किग्रा., तीसरी से 5वीं कक्षा तक के विद्यार्थियों के बस्ते का वजन दो-तीन किग्रा., छठी से 7वीं के विद्यार्थियों के बस्ते का वजन चार किग्रा., 8वीं और 9वीं के छात्रों के स्कूल बैग का वजन साढ़े चार किग्रा. और 10वीं के छात्र के बस्ते का वजन पांच किग्रा. से ज्यादा नहीं होना चाहिए। पहली और दूसरी कक्षा के छात्रों को सिर्फ गणित और भाषा ही पढ़ाने को कहा गया है। तीसरी से पांचवीं के विद्यार्थियों को राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) द्वारा मान्यताप्राप्त गणित, भाषा और सामान्य विज्ञान जैसे विषय ही पढ़ाने का निर्देश दिया गया है।
दरअसल, पहली बार नहीं है कि जब बस्ते के बोझ तले दबते बचपन की परेशानियों को लेकर सोचा गया है। कई बार ऐसे दिशानिर्देश जारी किए जा चुके हैं, लेकिन व्यवहारिक रूप से बस्ता हल्का करने की कोशिशों का असर ना के बराबर रहा। केंद्रीय केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई) भी इस संबंध में लंबे समय से चिंतित है। बस्ते में से पाठय़पुस्तकों को कम करने के सुझाव कई बार जारी कर चुका है। कह चुका है कि बस्ते के भारी वजन की वजह से बच्चे के समग्र विकास पर प्रभाव पड़ता है । वे माइल्ड मस्कुलर पेन के मरीज बन रहे हैं। सीबीएसई एवं मानव संसाधन विकास मंत्रालय को सौंपी गई एक रिपोर्ट के अनुसार बस्ते के बोझ की वजह से 10 से 12 साल के बच्चे ज्यादा बीमार हो रहे हैं। इसीलिए सीबीएसई ने स्कूलों को हिदायत दी थी कि इस समस्या के निदान के लिए संचार प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल को बढ़ावा दें और टाइम टेबल को इस तरह से तैयार करें कि बच्चों को रोजाना सभी किताबें स्कूल लाने की जरूरत ही न रह जाए। लेकिन देखने में आ रहा है कि बच्चों के बैग का वजन अब भी विशेषज्ञों द्वारा नियत भार से ज्यादा ही है।
गौरतलब है कि 1990 में यशपाल समीति ने भी स्कूली बच्चों के पाठय़क्रम में बोझ की कमी सिफारिश की थी। महाराष्ट्र में कुछ समय पहले मानवाधिकार आयोग भी इस मामले में दखल दे चुका है। आयोग के मुताबिक निचली कक्षाओं का बस्ता पौने दो किलो और ऊंची कक्षाओं का बस्ता साढ़े तीन किलो से भारी नहीं होना चाहिए। सोशल डवलपमेंट फाउंडेशन के तहत करवाए गए ऐसोचैम के एक सर्वेक्षण के अनुसार भारत में पांच से बारह वर्ष के आयु वर्ग के 82 फीसदी बच्चे अत्यधिक भारी स्कूल बैग ढोते हैं। चिंतनीय है कि बस्ते का बोझ बच्चों में पढ़ाई के प्रति वितृष्णा का भाव तो ला ही रहा है, बीमारियां भी नई पीढ़ी को गिरफ्त में ले रही हैं। गांवों से लेकर शहरों तक बच्चों का एक बड़ा प्रतिशत इस बोझ के चलते मानसिक तनाव और शारीरिक व्याधियों का शिकार बन रहा है। दूरदराज के गांवों-कस्बों की परिस्थितियां तो भयभीत करने वाली हैं, जहां बच्चे बस्ता पीठ पर लादे कोसों पैदल चलकर स्कूल पहुंचते हैं।
अंक तालिका में अव्वल जगह बनाने की दौड़ बनी हमारी शिक्षा व्यवस्था में सरकार, शिक्षक और अभिभावक बच्चों की समस्याओं लेकर उतनी गंभीरता से सोच ही नहीं पाए, जितना भावी नागरिकों के लिए सोचना जरूरी था। यही वजह है कि दिशानिर्देशों के बावजूद ठोस फैसला नहीं किया जा सका है। शिक्षा प्रणाली को लेकर अनगिनत प्रयोग तो हुए पर बच्चों की पीठ पर लदे किताबी वजन को लेकर कोई सार्थक निर्णय नहीं लिया गया। नतीजा यह कि स्कूली बच्चे बस्तों का बोझ अपने कांधों पर लादकर चल रहे हैं।
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