दृष्टिकोण : नई सियासत की तरफ चला जाए

Last Updated 25 Nov 2018 04:32:56 AM IST

हमारे यहां एक कहावत है, बातों में कंजूसी कैसी। बातें तभी सार्थक होती हैं, जब उसे व्यवहार में उतारा जाए।


दृष्टिकोण : नई सियासत की तरफ चला जाए

गुरु परब पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने करतारपुर कॉरीडोर निर्माण की तुलना बर्लिन की दीवाल ढहने से की है। यह कॉरीडोर अपने पंजाब के गुरदासपुर में डेरा बाबा नानक से सीमा पार पंजाब के नरोवाल जिले में करतारपुर साहिब तक बनना है, जहां गुरु  नानक ने आपने आखिरी 18 बरस बिताए थे। पाकिस्तान ने भी 2019 में गुरु परब तक इस कॉरीडोर के निर्माण का वादा किया है। यकीनन, इस पहल का महत्त्व है, लेकिन तभी जब इसके साथ उग्र और आक्रामक राजनीति का शमन हो। एक तरफ धार्मिंक पहचान की कट्टर राजनीति को हवा देना जारी रखें और दूसरी तरफ आपसी सौहार्द का सांकेतिक इजहार करते रहें तो वह खास नतीजा नहीं देता।
बर्लिन की दीवार 9 नवम्बर, 1989 को ढही तो 1990 तक पूर्व और पश्चिम जर्मनी एक हो गए। अगर वैसा मंजर बना सके तो वाकई इतिहास बन जाएगा। लेकिन हालात तो एकदम विपरीत ही दिखते हैं। नफरत की हवाएं सीमा आर-पार तक ही नहीं, बल्कि देश के भीतर भी चुनावों में ध्रुवीकरण धधकाने की कोशिशों में देखी जा रही हैं। वैसे, पंजाब में हालात बिगाड़ने की नापाक हरकतों के मद्देनजर उम्मीद यही की जानी चाहिए कि करतारपुर कॉरीडोर वाकई सौहार्द और शांति का वाहक बने। हाल में अमृतसर के पास निरंकारी भवन में हमले से खालिस्तानी उग्रवाद के जिन्न की वापसी होने की आशंकाएं उभर आई हैं। याद करें, पंजाब में कट्टरतावाद की लहर भी निरंकारियों को निशाना बनाने के साथ ही शुरू हुई थी, जिसमें करीब दशक भर खून-खच्चर का सिलसिला चलता रहा था। मौजूदा हमले में कथित तौर पर अमेरिका और कनाडा स्थित गुट सिख्स फॉर जस्टिस (एसएफजे) और पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई का हाथ बताया जाता है। पंजाब सरकार के मुताबिक हथगोलों में पाकिस्तान की ऑर्डिनेंस फैक्टरी के निशान पाए गए हैं।

एसएफजे का मुखिया न्यूयॉर्क स्थित वकील गुरपतवंत सिंह पन्नू बताया जाता है, जिसने स्वतंत्र खालिस्तान के लिए 2020 तक दुनिया भर में रायशुमारी करने का अभियान चला रखा है। उसने जून, 2014 में अपने अभियान की शुरु आत की। वह 20 देशों में सिख आप्रवासियों के बीच यह अभियान चला रहा है। उसकी वेबसाइट पर नौजवानों को भिंडरावाले की तस्वीर वाली टी-शर्ट बांटने का अभियान भी देखा जा सकता है। इसी जिक्र के साथ कुछ दिन पहले ही सेना प्रमुख बिपिन रावत ने भी इस खतरे के प्रति आगाह किया था। उन्होंने कहा था, ‘नये घटनाक्रमों के प्रति हमें आंखें मूंदे नहीं रहना चाहिए।’
यह खतरा इसलिए भी बड़ा है कि देश में ध्रुवीकरण तेज करने की कोशिशों के बीच पाकिस्तानी फौजी प्रतिष्ठान भी अपनी हरकतें तेज कर सकता है। इसके नजारे कश्मीर और सीमा पर भी दिख ही रहे हैं। अरसे से देखा गया है कि पाकिस्तानी फौजी हुक्मरानों को पंजाब में आतंकी हमलों को शह देना कश्मीर की बनिस्बत आसान लगता है। यहां तकरीबन तीन साल पहले गुरदासपुर में ही थाने पर हमले और पठानकोट वायु सेना ठिकाने पर आतंकी हमले का जिक्र किया जा सकता है। लेकिन असली सवाल यह है कि क्या हमारा मौजूदा सत्ता-प्रतिष्ठान इस खतरे के प्रति सचेत दिखता है। क्या वह ऐसे हालात पैदा करने की कोशिश कर रहा है कि सीमा पार से नापाक मंसूबों को नाकाम किया जा सके। उसका अभी तक तेवर यही दिखा है कि सेना और पुलिस की आक्रामक कार्रवाइयों से ही जवाब दिया जाए।
लेकिन इस रवैये से खासकर कश्मीर में क्या हश्र हुआ है, यह सबकी नजर में है। एनडीए सरकार बनने के बाद कश्मीर में जो चुनाव हुए तो मतदान प्रतिशत सत्तर के पार पहुंच गया था, घाटी में भाजपा तक के उम्मीदवार खड़े हो गए थे और भाजपा से गठजोड़ के बावजूद सज्जाद लोन की पार्टी के उम्मीदवार जीत गए थे। यह किसी आश्चर्य से कम नहीं था यानी यूपीए सरकार बिना आक्रामक नीति के वह माहौल बनाने में कामयाब रही थी, जिसमें पाकिस्तान की नापाक हरकतें सिर्फ सीमा तक ही सीमित हो गई थीं। उसने 2010 में पत्थरबाजी की घटनाओं से भी काफी सलीके से निपटा था। लेकिन एनडीए सरकार की आक्रामक पुलिसिया कार्रवाई की नीति ने घाटी में भारी मोहभंग की स्थिति पैदा कर दी है। इसके नजारे हाल के स्थानीय निकाय चुनावों में दिखे हैं। हाल में विधानसभा भंग करने के तरीके भी अविश्वास को गहरा ही करेंगे।
इसलिए अगर बर्लिन की दीवाल ढहने जैसा वाकई मंजर पैदा करना है, तो उसके लिए सियासत को किसी और दिशा में मोड़ना होगा। सिर्फ  चुनावी फायदों की सोचकर नहीं, यकीनन किसी बड़े राजनेता की तरह बड़े जिगरे के साथ नीतियों का रुख मोड़ना होगा वरना प्रतिष्ठित लेखिका और शायरा फहमीदा रियाज की उस बात को हम लगातार सच साबित करते रहेंगे कि ‘तुम बिल्कुल हम जैसे निकले/अब तक कहां छिपे थे भाई/ वो मूर्खता, वो घामड़पन/जिसमें हमने सदी गंवाई/आखिर, पहुंची द्वार तुम्हारे/अरे, बधाई, बहुत बधाई।’ हाल ही में उनका निधन हुआ है।
तो, समाधान इसी में है कि हम उन जैसे न दिखें। ऐसी सियासत यकीनन उस धारा से तो नहीं निकलेगी जो बहुसंख्यकवाद पर जुनून की हद तक जोर देती हो। हमारे प्रधानमंत्री भले इस पर जोर देते हों कि उनका एकमात्र मंत्र विकास, विकास और विकास है, मगर उन्होंने या सत्तारूढ़ बिरादरी ने देश में कट्टरता की धारा की रोकथाम में न्यूनतम योगदान भी शायद ही किया हो। खासकर हर बार चुनाव नजदीक आते ही ध्रुवीकरण तेज करने की कोशिशें भी बढ़ा दी जाती हैं। फिलहाल जारी विधानसभा चुनावों में ही कम से कम भाजपा अध्यक्ष अमित शाह तो घुसपैठियों को बाहर निकालने की टेर लगाते रहे हैं।
यही नहीं, अब अयोध्या मुद्दे को धधकाने की कोशिश भी की जा रही है। ऐसी फिजा बनाई गई है कि अभी नहीं तो कभी नहीं। आखिर, इस मौके पर यह सब क्यों हो रहा है, क्या यह लोगों को समझ में नहीं आ रहा होगा। संकेत ये हैं कि छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, राजस्थान में एंटी-इंकंबेंसी लहर काफी तेज बह रही है। इसमें सिर्फ  राज्य सरकारों के खिलाफ ही नहीं, बल्कि केंद्र सरकार के खिलाफ भी नाराजगी काफी दिख रही है। ऐसे में शायद अयोध्या में राम मंदिर के लिए आक्रामक पहल से फिजा बदलने की कोशिशें हो रही हैं। ऐसे में सवाल यह है कि क्या लोगों की धार्मिंक भावनाओं का दोहन सत्ता में जाने के लिए करना चाहिए? होना तो यह चाहिए था कि चुनाव में सरकारों के कामकाज का हवाला दिया जाता और लोगों से उस पर जनादेश हासिल किया जाता।
लेकिन अफसोस! प्रधानमंत्री भी अपने भाषणों में सरकार के कामकाज पर कम, कांग्रेस की पुरानी बातों पर ही जोर दे रहे हैं। लेकिन इससे भी बढ़कर यह सालता है कि संघ परिवार की ध्रुवीकरण और कट्टरता को हवा देने की कोशिशों पर वह मौन साधे रहते हैं। ऐसी सियासत से तो बर्लिन की दीवाल ढहने जैसी फिजा पैदा करने की तो उम्मीद शायद ही की जा सकती है। उसके लिए तो नई धारा ही बहानी पड़ेगी। ऐसी धारा जिसमें कट्टरता का शमन हो और सामाजिक सौहार्द कायम हो ताकि देश में हर वर्ग और हर समुदाय विकास का लाभ महसूस कर सके। ऐसी फिजा ही वह माहौल पैदा कर सकती है, जिससे पाकिस्तान को भी अपनी नापाक हरकतों से बाज पर मजबूर होना पड़े। उम्मीद कीजिए कि नेताओं को अगर न समझ में आ रहा हो तो देश के लोग ही नई सियासत की ओर बढ़ने का जनादेश सुना दें।

हरिमोहन मिश्र


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