महागठबंधन : कवायद को धक्का

Last Updated 26 Nov 2018 03:04:07 AM IST

जो लोग नरेन्द्र मोदी एवं भाजपा विरोधी महागठबंधन के प्रयास में लगे नेताओं की दिल्ली में होने वाली बैठक की प्रतीक्षा कर रहे थे, उन्हें निश्चित ही धक्का लगा होगा।


महागठबंधन : कवायद को धक्का

महागठंधन के लिए सबसे ज्यादा कवायद करने वाले नेता आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चन्द्रबाबू नायडू ने कोलकाता में ममता बनर्जी से मुलाकात के बाद स्वयं यह बैठक स्थगित करने की घोषणा कर दी। आखिर, क्यों? अभी तो वे इस बैठक की तैयारी ही कर रहे थे। राहुल गांधी, शरद पवार, फारु ख अब्दुल्ला, शरद यादव, मायावती, मुलायम सिंह यादव, देवेगौड़ा, कुमारस्वामी, एमके स्टालिन आदि से मुलाकात करके उन्हें इकट्ठे होने का निमंतण्रदिया था। ग्यारह नवम्बर को राहुल गांधी का विशेष दूत बनकर अशोक गहलोत ने अमरावती जाकर नायडू से मुलाकात की थी। उसके बाद नायडू ने पत्रकारों से बातचीत में कहा था कि दिल्ली बैठक में भावी कार्यवाही और रूपरेखा तय होगी। ममता से भी संपर्क साधा गया था। ऐसे में बैठक स्थगन की घोषणा करनी पड़ी तो इसके पीछे गंभीर कारण होंगे।
वास्तव में यह इस मायने में भारतीय राजनीति की बड़ी घटना है कि मोदी और भाजपा को पराजित करने के लिए एकजुट होने के लिए उत्साहित नेताओं ने दिल्ली सम्मेलन को एक बड़े अवसर के रूप में देखा था। उन्हें लगता था कि मध्य प्रदेश, राजस्थान, तेलंगाना और मिजोरम चुनाव के पूर्व बैठक होती है, तो संदेश जाएगा कि विपक्षी एकता बयानबाजी तक सीमित नहीं है। यह साकार हो रही है। कांग्रेस की नीति हर हाल में बैठक को सफल बनाने की थी। कई नेता भी बैठक में कुछ विशेष घोषणाओं की तैयारी में थे। शरद पवार ने कहा था, ‘हमें एक न्यूनतम साझा कार्यक्रम तैयार करना है’। इन सबसे परे ऐसे जमावड़े का बड़ा प्रभाव माहौल निर्माण के रूप में होता। हालांकि सब जानते हैं कि इकट्ठा होकर भाजपा और मोदी को पराजित करने की बात करना तथा धरातल पर गठबंधन करने में जमीन आसमान का अंतर है। जिन पार्टयिों के गठबंधन से 2019 का चुनाव प्रभावित हो सकता है, उनके बीच मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में गठबंधन नहीं हो सका क्योंकि सीटों पर सहमति नहीं बनी। बावजूद इसके ऐसे जमावड़े का राजनीतिक महत्त्व तो होता ही है। यहां से एक गठबंधन को कोई औपचारिक नाम मिलता तो इसका औपचारिक स्वरूप ग्रहण करने की प्रक्रिया भी आरंभ हो जाती।

वास्तव में विपक्षी दल एक बड़ा अवसर चूके हैं। सामान्य कारण से इतनी तैयारी के बाद बैठक स्थगित या रद्द नहीं किी जा सकती थी। जाहिर है, कुछ बड़ा हुआ है। जो भूमिका अभी नायडू निभा रहे हैं, कुछ महीने पूर्व वही भूमिका ममता निभा रही थीं। किंतु उनकी शुरु आत गैर-भाजपा के साथ गैर-कांग्रेस गठबंधन की अवधारणा से हुई थी। पहले तेलंगाना के मुख्यमंत्री चन्द्रशेखर राव ने गैर-भाजपा, गैर-कांग्रेस मोर्चे की बात की। उसके बाद कोलकाता गए और ममता के साथ मिलकर इसकी घोषणा की। वे कांग्रेस का साथ किसी सूरत नहीं चाहते थे। तो ममता गठबंधन से कांग्रेस को बाहर रखने की सोच से काम कर रही थीं। अपनी पहली दिल्ली यात्रा में उन्होंने कांग्रेस को नजरअंदाज किया। सोनिया गांधी से मिलने अवश्य गई लेकिन बाहर निकलते ही बयान दिया कि उनके स्वास्थ्य का हालचाल पूछने आई थीं। राहुल से उन्होंने मिलना गंवारा नहीं किया। प. बंगाल में भाजपा की तरह ही कांग्रेस भी उनका तीखा विरोध कर रही है। फिर माकपा सहित वाम दलों को साथ लाने की भी समस्या है। वो घोषणा भी कर चुकी हैं कि प. बंगाल में कांग्रेस के साथ समझौता नहीं करेंगी। इस तरह भले ही उन्होंने नायडू के साथ बाहर आकर बयान दे दिया कि भाजपा को हराना हम सबका लक्ष्य है, और इसमें हम साथ हैं, पर उनके लिए दिल्ली बैठक में शामिल होना आसान नहीं था। यह भी ध्यान रखिए कि ममता स्वयं कोलकाता में विपक्षी दलों की एक रैली की तैयारी कर रही हैं। उसके लिए उन्होंने शिवेसना तक को निमंतण्रदिया पर कांग्रेस और वाम दलों को नहीं। राजनीति के आम मानवीय व्यवहार की दृष्टि से देखें तो हो सकता है कि उन्हें इससे भी समस्या हो कि जिस गठबंधन की पहल वो कर रही थीं,  उसका सेहरा चन्द्रबाबू के सिर पर बंध जाए।
जाहिर है, जो लोग नायडू के प्रयासों से उत्साहित थे, उन्हें अवश्य निराशा हुई होगी। पवार ने तो यहां तक कह दिया था कि नायडू ही गठबंधन और पार्टयिों के सीट समझौते की मध्यस्थता करेंगे। 1996 में संयुक्त मोर्चा का संयोकतत्व नायडू के हाथों में था। इससे भी कुछ नेताओं को समस्या होगी। हो सकता है कि कुछ ने ममता से बात भी की होगी। कम से कम चन्द्रशेखर राव ने तो अवश्य की होगी कि किस तरह तेलुगू देशम और कांग्रेस ने उनके खिलाफ मोर्चाबंदी की है। वैसे नायडू को मायावती ने भी सकारात्मक उत्तर नहीं दिया था। उन्होंने साफ कहा था कि कांग्रेस अपने प्रभाव वाले राज्यों में थोड़ी भी उदारता दिखाने के लिए तैयार नहीं है, तो गठबंधन हो कैसे सकता है। कहा था कि कांग्रेस मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में हमारे साथ गठबंधन करने को तैयार नहीं हुई तो उत्तर प्रदेश में हमें भी उनके बारे विचार करना होगा। जैसी भाषा अखिलेश यादव और मायावती कांग्रेस के खिलाफ असेंबली चुनावों में इस्तेमाल कर रहे हैं, उससे उनके कांग्रेस की भागीदारी वाली बैठक में भाग लेने का कोई कारण नहीं था। ममता, मायावती और अखलेश शामिल नहीं होते तो महागठबंधन के नाम से आयोजित बैठक ही उपहास बन जाती।
तात्पर्य यह है कि महागठबंधन की योजना वाली पूर्व निर्धारित दिल्ली बैठक का तत्काल रद्द होना साबित करता है कि कल्पना और वास्तविकता में काफी अंतर है। इसके रास्ते में अनेक बाधाएं हैं। इस बात से सब सहमत हैं कि भाजपा को हराएं पर इसके लिए किसी पार्टी या नेता के प्रति आग्रह-दुराग्रह कुछ समय के लिए परे रखने और अपने राजनीतिक हित का थोड़ा भी परित्याग करने की इच्छा किसी में नहीं है।
वस्तुत: भाजपा को पराजित करके सत्ता का भागीदार बनने की आकांक्षा सबकी है, और यह भी बिना शर्त एक साथ आने में बाधा है। अगर चुनाव परिणाम वैसा आता है, तो अंतत: अंकगणित ही मुख्य निर्धारक होगा तो कोई अपनी एक भी सीट कम करने के लिए आसानी से तैयार कैसे हो सकता है। बहरहाल, अब सूचना है कि यह बैठक जनवरी में होगी। तो यह उस समय की परिस्थितियों पर निर्भर करेगी। देखते हैं कि उस बैठक का स्वरूप क्या रहता है, उसमें शामिल कौन होते हैं, और क्या ठोस निकलता है, या वह बैठक केवल बयानबाजी तक ही सीमित रहती है। वैसे, अखिलेश कह रहे हैं कि कांग्रेस ने जो व्यवहार हमारे साथ किया है, वैसा ही हम उत्तर प्रदेश में उनके साथ करें तो उनकी क्या हालत होगी।

अवधेश कुमार


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