रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया : नौ दिन चले अढ़ाई कोस

Last Updated 22 Nov 2018 06:01:55 AM IST

रिजर्व बैंक की हालिया बोर्ड बैठक उसके इतिहास की पहली बैठक है, जिसके बारे में आम जनमानस में इतनी उत्सुकता नजर आई।


रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया : नौ दिन चले अढ़ाई कोस

वजह कुछ समय से विभिन्न मुद्दों पर सरकार और रिजर्व बैंक के बीच तू तू मैं मैं रही। ट्विटर को तू तू मैं मैं का आधुनिक डिजिटल पर्याय माना जा सकता है। जिन गंभीर मुद्दों पर चर्चा होनी थी वो स्वयं में इतने गंभीर नहीं थे। जितना उन्हें  विभिन्न राजनैतिक दलों एवं भूतपूर्व गवर्नरों के बयानों ने बना दिया। किसी ने रिजर्व बैंक को बातचीत के लिए बुलाने को ‘न्यूक्लियर बटन’ को दबाना बता दिया तो किसी ने रिजर्व बैंक की तुलना कार की सीट बेल्ट से की।
बिजनेस चैनलों ने रिजर्व बैंक के गवर्नर के इस्तीफों की संभावित घोषणा को प्रचारित-प्रसारित करके स्टॉक मार्किट को चक्करा दिया। दस घंटे चली बैठक के बाद  ‘कैपिटल कंजव्रेशन बफर’ को एक साल खिसकाने एवं रिजर्व बैंक की पूंजी आवश्यकताओं का अध्ययन करने हेतु एक कमेटी के गठन इत्यादि घोषणाओं तक सीमित रहा। बयान भर आया जो ब्रेकिंग न्यूज को तरसते मीडिया को ऊंट के मुंह में जीरा समान ही था। कुल मिला के कहा जाए तो इस बोर्ड मीटिंग का नतीजा था ‘नौ दिन चले अढ़ाई कोस’। विचारणीय बात है कि रिजर्व बैंक एवं सरकार के संबंधों में ऐसी खटास क्यों नजर आई? एवं बासेल 3 के निर्देशों का क्या महत्त्व है? आज जब  मूडी रेटिंग्स ने  ‘कैपिटल कंजव्रेशन बफर’ को एक साल खिसकाने को नेगेटिव बताया है, तो उसका क्या मतलब है। आइए, सिलसिलेवार समझते हैं। कई टीकाकार वर्तमान घटनाओं को  स्वायत्त आरबीआई के मामलों में सरकार की दखलंदाज़ी बता रहे हैं। जो मेरे विचार से उचित नहीं है। सरकार ने आरबीआई को कठपुतली बना के रखा होता तो इतने साधारण से निर्णयों के लिए इतना बखेड़ा खड़ा ही नहीं होता। शायद इस बोर्ड बैठक की आवश्यकता ही न होती।

क्या यह पहले कभी माना जा सकता था कि रिजर्व बैंक के गवर्नर सरकार के इशारे को न समझें? यही बात आजकल सीबीआई में चल रहे घटनाक्रम के संदर्भ में भी ध्यान देने योग्य है। ये दोनों घटनाएं इस बात की और इशारा करती हैं कि संस्थाओं को पूर्ण स्वायत्तता प्राप्त है। ध्यान देने वाली बात है कि इन संस्थाओं के मुखिया कठपुतली होते तो यह सब ड्रामा नजर ही नहीं आता। संबंधों में खटास या खींचतान एक पॉजिटिव बात है।  इसी तरह की खींचतान विश्व के सबसे मजबूत देश अमेरिका में भी नजर आती है। रिजर्व बैंक ने कैपिटल आवश्यकताओं को एक साल आगे बढ़ा कर सही कदम उठाया है। शुरू से ही बासेल कमेटी के सुझाव विकासशील देशों के साथ अन्याय हैं। विकसित एवं विकासशील देशों के लिए एक से कैपिटल मानक किस प्रकार उचित कहे जा सकते हैं। विकासशील राष्ट्र जैसा कि भारत है, घाटे की अर्थव्यवस्था पर ही बढ़ सकता है और राजकोषीय घाटे की चिंता एक बहुत आवश्यक घटक है। दिक्कत का असली कारण बैंकों का खराब प्रदशर्न है,  जिसकी वजह से उनका कैपिटल को अपने प्रॉफिट से सहारा दिए बिना  सरकार से पूंजी की आशा करना बुरी स्थिति है। इस बात को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि ऐसी स्थिति में सरकार और आरबीआई का आपस में सहमत होना राष्ट्रहित का प्रश्न है। 
हालिया बोर्ड मीटिंग में इस सहमति का होना किसी की हार-जीत से अधिक राष्ट्रहित का निर्णय है।  सारे झगड़े की जड़ शायद ‘बासेल’ है। जब बासेल सुझाव अमल में नहीं थे। बैंक तब भी थे और काफी अच्छी स्थिति में थे। आज समस्त घाटे के बावजूद सिर्फ  9 प्रतिशत कैपिटल पर्याप्तता को बनाए रखना मुख्य कार्य बन गया है। बैंकों की सुरक्षा उनके लाभप्रद बने रहने में है, न कि सिर्फ  कैपिटल बनाए रखने में। अब वो समय आ गया है कि डेट मार्किट के विकास को तेज किया जाए। वैसे भी छोटे और मझोले व्यापारों को बैंक सिर्फ  20 प्रतिशत कर्ज ही दे पाते हैं। ऐसे व्यापारों को ‘एनबीएफसी सेक्टर’  वित्तीय सहायता देता है। इस सेक्टर को मजबूत किया जाना आवश्यक है।  इस समय इस क्षेत्र में नई-नई चुनौतियां दृष्टिगोचर हो रही हैं।  आईएलएफएस की समस्या ने एनबीएफसी सेक्टर की छोटी अवधि का ऋण उठाने की क्षमता को कमजोर कर दिया है। ऐसी छोटी एनबीएफसी ‘बांड मार्किट’ से पैसा उठाने में अपने आप को सक्षम नहीं पातीं क्योंकि ‘जंक बांड’ में निवेश से संबंधित दिशानिर्देश  स्पष्ट नहीं हैं। छोटे एवं मंझोले व्यापार भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ की हड्डी हैं। उनकी दिक्कतों के समाधान के लिए कदमों को उठाया जाना अति आवश्यक है। 
इस क्षेत्र की ऋण आवश्यकताओं को तमाम निर्देशों के उपरांत बैंक पूरी नहीं कर पा रहे। बैंक सिक्योरिटी पर और ऋणों के खराब हो जाने से बहुत भयभीत हैं, और ऐसे व्यापार करने वालों की जरूरत छोटे-छोटे  एनबीएफसी ही पूरा करते हैं। बैंकों को उनके साथ हाथ मिलाना ही  होगा। उन्हें रिफाइनेंस करना ही होगा।  फिलहाल रिजर्व बैंक ने अपनी तरफ से कोई ऐसी नई व्यवस्था से इंकार किया है जैसी कि सरकार की मंशा थी।  इन सब बातों के अलावा बड़ा ज्वलंत प्रश्न था कि स्वयं रिजर्व बैंक को कितना कैपिटल अपने पास रखना चाहिए। यह विषय एक कमेटी को रेफर किया जा रहा है। रिजर्व बैंक को कमजोर करने का इरादा सरकार का कदापि नजर नहीं आ रहा मगर देश को मजबूत रखना उससे भी बड़ा प्रश्न है। किसी विषम स्थिति में रिजर्व बैंक आसानी से विश्व बाजार से पूंजी जुटा सकता है। यदि उसकी रेटिंग उच्च रहे। नहीं भूलना चाहिए की ऐसी ही विषम स्थितियों में एक बार रिजर्व बैंक ने अपने सोने के भंडार बैंक ऑफ इंग्लैंड के पास रखकर देश की प्रतिष्ठा की रक्षा की थी।
अतएव आवश्यकता अनुरूप कैपिटल रिजर्व  बैंक के पास रहे ऐसे व्यवस्था जरूरी है। डिविडेंड के रूप में वो यथावत पैसा सरकार को देता रहे फिलहाल यही उचित है।  सुखद आश्चर्य के तौर पर क्रूड के दामों में आज भारी गिरावट देखी गई है, और शायद 15 दिन के लिए बोर्ड मीटिंग न हुई होती तो बासेल निर्देशों के अनुसार  0.625 पूंजी पर्याप्त को एक साल खिसकाने की जरूरत भी महसूस न होती जो पैतीस हजार करोड़ से अधिक नहीं है, और सरकार को रुपये की गिरावट एवं क्रूड की महागिरावट से पर्याप्त सहारा मिल गया है। एक चिंता का विषय अवश्य ही इस घटनाक्रम से नजर आया है, और वो है आर्थिक विमशरे में राजनैतिक हस्तक्षेप। इस संबंध में समस्त जिम्मेदार लोगों को आत्ममंथन करना चाहिए।

अनिल उपाध्याय


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