विश्लेषण : देव-लिपि का विलोपन

Last Updated 20 Nov 2018 06:50:38 AM IST

भारतीय शास्त्रों में अक्षर को ब्रह्म का दरजा दिया गया है।


विश्लेषण : देव-लिपि का विलोपन

हजारों साल पहले जब इस प्रायद्वीप पर विकसित हो रही सभ्यता ने शिलाखंडों पर अपनी चित्र लिपियों का उत्कीर्णन आरंभ किया होगा तो उसे लगा होगा कि यह संदेश कभी नष्ट नहीं होगा। बाद में जब उसने अपनी वर्ण लिपियों का विकास किया होगा और पत्थरों, लकड़ी की तख्तियों तथा धातु पत्रों पर अपनी बातें लिखनी शुरू की होंगी तो सोचा होगा कि इन्हें बोली गई बातों की तरह भुलाया नहीं जा सकेगा। उच्चारण दोष की वजह से इसका अर्थ परिवर्तन नहीं होगा। इसीलिए उन्हें अक्षर कहा गया होगा। अक्षर का अर्थ है अविनाशी। 
लिखित भाषाएं, वाचिक बोलियों की तुलना में ज्यादा दीर्घजीवी साबित हुई। भाषाविद् जानते हैं कि मानव सभ्यता के विकास के क्रम में अनेक लिपियों और लिखित भाषाओं का लोप हो चुका है। भाषाओं का विलोपन भाषा शास्त्रियों के लिए गंभीर चिंता का विषय बना हुआ है। पूरी दुनिया में अनुसंधान हो रहे हैं कि आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक कारणों के अलावा इनके लिए कौन-कौन से भू-राजनीतिक, पर्यावरणीय तथा नृजातीय कारक जिम्मेदार हैं। किसी प्रकार उनका साहित्य बचा भी लें, तो अगली पीढ़ियों में उन्हें पढ़ने, जानने और समझने वाले लोग हमें कहां से मिलेंगे? हिन्दी को एक प्रभुत्वशाली भाषा माना जाता है। इसे बहुत बड़े क्षेत्र में बोला, समझा, लिखा और पढ़ा जाता है। यहां तक कि देश के बाहर कई पड़ोसी देशों में भी हिन्दी बोली-समझी जाती है, और एक सीमित स्तर पर पढ़ी-लिखी भी जाती है। देश में इस भाषा का प्रयोग करने वाले लोग 40 करोड़ से भी अधिक हैं। यह विश्व की सबसे ज्यादा बोली जाने वाली पांच भाषाओं में से एक है। इसे संविधान और सरकार का समर्थन हासिल है।

इसीलिए देश के कई क्षेत्रों से यह आवाज भी उठती है कि हिन्दी वर्चस्ववादी है, यह धीरे-धीरे क्षेत्रीय भाषाओं को निगल रही है। लेकिन इसी प्रभुत्वशाली भाषा हिन्दी की अपनी लिपि देवनागरी संकट में है। टेक्नोलॉजी के झटकों से अक्षरों की निर्धारित बनावट और सुनिश्चित वर्णमाला में बार-बार परिवर्तन करने पड़ रहे हैं। उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध से अब तक तीन बार इस अविनाशी आकृति (लिपि) के रूप में परिवर्तन किए जा चुके हैं। जब छापाखाना आया तो छपाई की सुविधा के अनुरूप अक्षरों के सांचे गढ़े गए। आजादी के बाद जब सरकारी दफ्तरों में टाइपराइटरों ने राष्ट्रभाषा गुनगुनाना शुरू किया तो उनकी सुविधा से लिपियों और वर्तनी में संशोधन किया गया। प वाला अ गायब हो गया, र वाला ण गायब हो गया। अंग् वाली गंगा अनुस्वार वाली गंगा में बदल गई। हॅसी, हंसी में बदल गई। ऐसा इसलिए हो रहा था, क्योंकि टाइपराइटरों के कुंजी पटल पर इनका निर्वाह मुश्किल हो रहा था। इसीलिए 1967 में लागू हुई राजभाषा समिति की सिफारिशों ने कई अक्षरों की आकृति अमान्य कर दी और कुछ को त्याग दिया। लेकिन नब्बे के दशक में कंप्यूटर आने शुरू हुए और उन्होंने टाइपराइटरों की वे सीमाएं तोड़ दीं। उनके लिए कोई भी आकृति बनाना संभव था, इसलिए जिसे त्याग दिया गया था, वह फिर से प्रचलन में आ गया। यह कोई नई बात नहीं है।
तकनीक ने लिपियों की बनावट को हमेशा प्रभावित किया है। चौथी से आठवीं शताब्दी तक उत्तर भारत की भाषा मुख्य रूप से संस्कृत थी, जो देवनागरी में लिखी जा रही थी। कलम के इस्तेमाल के कारण इनके अक्षरों के खड़े डंडों के सिर और पैर ठोस त्रिकोण के आकार के हो गए। पैरों के पास के त्रिकोण धीरे-धीरे एक प्रकार के पाद चिह्नों में बदल गए, जो हलंत की तरह दिखते थे। उत्तर भारत में सरकंडे आसानी से उपलब्ध थे, इसलिए लेखन के लिए सरकंडे की कलम का उपयोग हो रहा था। दक्षिण में लिखने के लिए शलाका या कीलों का उपयोग किया जाता था। वे ताड़ पत्रों पर लिखते थे, क्योंकि ताड़ पत्र वहां बहुतायत में उपलब्ध थे। ताड़ पत्रों पर कीलों से सीधी रेखा खींची जाती थी, तो वे फट जाते थे। इससे बचने के लिए उनके अक्षर धीरे-धीरे गोल बनाए जाने लगे। इसीलिए उस काल से दक्षिण में विकसित लिपियों में हम अधिकाधिक गोल आकृतियों का दर्शन करते हैं। इसलिए पिछले दो सौ वर्षो में देवनागरी लिपि में जो परिवर्तन हुए हैं, वे असामान्य नहीं हैं।
उपलब्ध साधनों और तकनीक के अनुसार विश्व की तमाम लिपियों की आकृति में बदलाव हुए हैं। लेकिन परिवर्तन के क्रम पर नजर डालने से दो बातें स्पष्ट हो जाती हैं। एक, यह देवनागरी लिपि की आकृति के अविचल और अपरिवर्तनीय बने रहने की धारणा को ध्वस्त कर देती है। दूसरे, जिसे हम संस्कृत से प्राप्त देवलिपि मानते हैं, उसे तकनीक के साथ बदलना ही है। पहले भी वह ब्राह्मी से बदल कर देवनागरी बनी थी। लेकिन आज तकनीक के बदलाव अतीत से कहीं तेज हैं। उसके साथ देवनागरी को फिर बदलना होगा। लेकिन कंप्यूटर युग का अवसान भी अनुमान से कहीं पहले हो सकता है।
एक दूसरा संकट सिर उठाता नजर आ रहा है। जिस बॉलीवुड के सिर पर फिल्मों और गीतों के माध्यम से पूरे दक्षिण एशिया में हिन्दी को लोकप्रिय बनाने का सेहरा बंधा था, वहां हिन्दी फिल्मों के संवाद और गीत देवनागरी के बदले रोमन लिपि में लिखे जाते हैं। अलग-अलग पृष्ठभूमि और भाषायी क्षेत्रों से आने वाले कलाकारों, निर्देशकों और तकनीशियनों को यह ज्यादा सुविधाजनक लगता है। बहुत सारे लोग भी व्हाट्सऐप और फेसबुक पर हिन्दी के अपने संदेश रोमन लिपि में ही लिख रहे हैं। और अब तो बाजार में ‘अंग्रेजी में लिखो, हिन्दी में पढ़ो’ की तकनीक भी आ चुकी है।
हमें कंप्यूटर या सेल फोन पर सिर्फ एक ऐप डाउनलोड करना है। फिर जो कुछ भी रोमन लिपि में लिखा जाएगा, उसे वह देवनागरी में परिवर्तित कर कर देगा। आम धारणा है कि रोजगार का दबाव लोगों को पढ़ने-लिखने को बाध्य करेगा। पढ़ने-लिखने के लिए भाषा का ज्ञान आवश्यक बना रहेगा। लेकिन बॉलीवुड का उदाहरण बताता है कि देवनागरी के ज्ञान के बिना भी वे हिन्दी का काम कर सकते हैं यानी हिन्दी के लिए उसकी एक प्रबल पहचान देवनागरी की अनिवार्यता समाप्त हो रही है। निरक्षर कामगारों का अध्ययन बताता है कि बिना लिखित भाषा के ज्ञान के भी वे अपने पेशे का हुनर सीख सकते हैं, रोजगार में बने रह सकते हैं।
(शोध पत्र का एक अंश)

बाल मुकुंद सिन्हा


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