नक्सल समस्या : बेहतर रणनीति से निकलेगा हल

Last Updated 20 Nov 2018 06:36:55 AM IST

छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव में उसके नक्सलवादी हिंसा-पीड़ित क्षेत्रों के मतदाताओं ने, आम दिनों में सरकारी और नक्सली पाटों के बीच पिसते रहना जिनकी नियति बनी रहती है, अपने डर को बदलाव की आकांक्षा पर भारी नहीं पड़ने दिया।


नक्सल समस्या : बेहतर रणनीति से निकलेगा हल

बड़ी संख्या में मतदान केंद्रों तक पहुंचने का हौसला दिखाया तो कई ‘शब्दवीरों’ को नये सिरे से मुखर होने का मौका हाथ लग गया है। इतिहास गवाह है, इन ‘शब्दवीरों’ का कोई ठिकाना नहीं कि कब सुरक्षा बलों के ‘सफल’ ऑपरेशनों में नक्सली नेताओं के मारे/पकड़े जाने से नक्सलियों का मनोबल बुरी तरह टूट जाने का दावा करने लगें और कब उनकी ‘तिरुपति से पशुपति तक’ लाल गलियारा बनाने की योजना को देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए बड़ी चुनौती बताने लगें।
दरअसल, वे ऐसे सवालों की हत्या कर देना चाहते हैं कि जिस चुनाव को लोकतंत्र का पर्व कहा जाता है, उसमें बंदूकों की इतनी ‘भागीदारी’ क्या कहती है, उसके संकेत कितने लोकतांत्रिक हैं? और क्यों वह दशक दर दशक घटने के बजाय बढ़ती जा रही है? सवाल नक्सलियों से भी पूछे जा रहे हैं, और सरकार से भी। इन सवालों का अब तक अनुत्तरित रहना साफ जताता है कि हमारी राज व्यवस्था, सरकारें किसी भी झंडे या चुनाव चिह्न की रही हों, हर नक्सली हमले के वक्त बर्बर, जघन्य और कायराना वगैरह कहकर निंदा करने के साथ ही अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेती हैं। अपेक्षा करती रही हैं कि उसको समस्या के सारे अनथरे और जिम्मेदारियों से तो बरी कर ही दिया जाए, उसकी नीतिहीनता को भी कतई प्रश्नांकित न किया जाए। आखिरकार, नक्सलियों ने कब कहा कि उनका लोकतंत्र में अगाध विश्वास है, और वे इसकी परीक्षा देने को तैयार हैं?

उन्होंने तो इस राज व्यवस्था को उखाड़ फेंकने को अपना खुला लक्ष्य घोषित कर रखा है, और दावा करते हैं कि वे उस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अनवरत युद्ध संचालित कर रहे हैं। उनके पास इसकी 2050 तक पूरी होने वाली एक दीर्घकालिक योजना भी बताई जाती है। उनके अपने शिविर में भी कोई इस योजना के आड़े आता है, तो वे उसे बख्शते नहीं। ‘दुश्मन व्यवस्था’ के किसी प्रतिनिधि को पकड़ लेते हैं, तो उस पर युद्धबंदी का टैग लगा देते हैं, और मांग करते हैं कि उनके जो प्रतिनिधि सरकारी जेलों में हैं, उनके साथ भी युद्धबंदियों जैसा ही सुलूक किया जाए।
ऐसे में यह तो नीतिहीन राज व्यवस्था की समस्या है कि वह उनके युद्ध को सीमित करके लाल आतंक के रूप में देखती है, और उस रूप में भी उससे निर्णायक ढंग से नहीं निपट पाती। कभी ‘ऑपरेशन ग्रीनहंट’ की सोचती है यानी अपने नागरिकों के खिलाफ सेना के इस्तेमाल की और कभी ‘नक्सलपीड़ित’ आदिवासियों को मुख्यधारा में लाने की। कभी नक्सलवाद को कानून व्यवस्था की समस्या तक सीमित कर देती है, कभी सलवाजुड़ूम के नाम पर आदिवासियों को आपस में भिड़ाकर कांटे से कांटा निकालने के फेर में हाथ जला बैठती है। बीच-बीच में यह भी कहती है कि नक्सलियों से वार्ता को तैयार है। लेकिन स्वामी अग्निवेश इस बात के पुराने गवाह हैं कि इसके बाद कैसे वार्ता की मेज से उठाकर नापसंदों की हत्याएं करवाने लग जाती है। फिर कहने लगती है कि जिनका भारत के संविधान व लोकतंत्र में विश्वास नहीं है, उनसे कैसे बात करें? अलबत्ता, नक्सली किसी बड़े नेता या अधिकारी को पकड़ ले जाते हैं, तो उसे छुड़ाने के लिए उनसे बात भी करती है, और घुटने भी टेकती है।
नक्सलवाद पीड़ित राज्यों में राजव्यवस्था के अजीबोगरीब ढर्रे के कारण ही अहिंसक गांधीवादियों तक की सक्रियता मुश्किल हो चली है क्योंकि उनके आंदोलनों को नक्सलियों का सहयोगी बताकर ब्लैकलिस्ट कर दिया जा रहा है। कहते हैं कि इन राज्यों में सरकारी विभागों के पास दो ही काम हैं। पहला, जमीनी सच्चाई को छुपाना कि देश की आर्थिक व्यवस्था और विकास के नाम पर आदिवासियों के संसाधनों का लगातार शोषण ही नक्सलवाद का प्रमुख कारण है क्योंकि यह उनके सशस्त्र समूहों के लिए जगह बनाता है। दूसरा, सरकारी तंत्र से जवाबदेही की मांग करने और उसके शोषण, उत्पीड़न व भ्रष्टाचार के विरुद्ध आवाज उठाने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं का ‘शिकार’ करना। इन हालात में सवाल को और बड़ा करें तो लोकतंत्र और उसके मूल्यों पर बड़े हमले नक्सली कर रहे हैं, या संगठित राज व्यवस्था? नक्सलपीड़ित क्षेत्रों में सुरक्षा बलों की गतिविधियों से ही सरकारों के होने का पता चलता है, और राज व्यवस्था राजधानियों में मोद मनाती रहती है?

कृष्णप्रताप सिंह


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