विश्लेषण : माटी की मूरतें, मूर्खों की फौज
अगर आप अवकाश के बाद शुरू हुए बजट सत्र से संबंधित खबरें देखना-पढ़ना चाहें तो खासी मुश्किल होगी.
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सोमवार से शुरू सत्र पर शनिवार को आए तीन पूर्वोत्तर राज्यों के नतीजे, सरकार बनाने, नेता चुनने की कवायद, वाम मोर्चे की पराजय और भाजपा की ऐतिहासिक जीत के मायने पढ़कर आपको ध्यान भी नहीं आएगा कि संसद में साढ़े बारह हजार करोड़ रु पये से ज्यादा के बैंक घोटाले की चर्चा हो रही होगी क्योंकि घोटाला सामने आने के बाद संसद पहली बार बैठ रही है.
विपक्ष इतने बड़े घोटाले पर सरकार को घेरे, जांच और कार्रवाई में होने वाली चूक या कमियों को दूर कराए और दबाव बनाकर इस मामले को प्राथमिकता के आधार पर निपटाने की पहल करे यह स्वाभाविक है. और सरकार भी संसद के माध्यम से जवाब दे यह और भी जरूरी है क्योंकि अभी तक प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री ने सीधे तौर पर कुछ नहीं कहा है-दूसरे लोग ही सरकार का पक्ष रखते रहे हैं. जब तक पूर्वोत्तर की तीनों सरकारें बनने की खबर मद्धिम पड़े, तब तक मूर्तियां तोड़ने और अपमानित करने की खबरों ने उससे भी ज्यादा प्रमुखता से मीडिया की जगह लेने में सफल हो गई. इस बार तो सोशल मीडिया भी इसी चर्चा में व्यस्त हो गया, जबकि पूर्वोत्तर और श्रीदेवी की मौत के दौर में वहां कुछ आर चीजों को भी जगह मिल जा रही थी. इसलिए त्रिपुरा में लेनिन की मूर्तियां बुलडोजर से तोड़ने का मामला हो या तमिलनाडु में भाजपा के एक नेता के बयान के बाद पेरियार की मूर्ति पर हुल्लड़बाजी करने का, उसमें यह भी एक पक्ष हो सकता है. पर मूर्तियां तोड़ने और ज्यादा वैचारिक आग्रह के चलते दूसरी विचारधारा और उससे जुड़े प्रतीकों का अपमान ज्यादा बड़ा मुद्दा है. इसमें वैचारिक आग्रह-दुराग्रह से लेकर मूर्तियों का दर्शन, इतिहास और उसके नायकों-खलनायकों के प्रति नजरिया और अपने ही पुरखों के पुरु षार्थ पर शक करने जैसे सवाल भी शामिल हैं.
आखिर बामियान के बुद्ध की दिव्य मूर्तियों को जो तालिबानी तोड़ रहे थे, वे कई सौ साल से उसी इलाके में रहते आए और उन मूर्तियों से परेशानी न महसूस करने वाले अपने पुरखों का भी तो अपमान कर रहे थे. वे यह तो जाहिर ही करना चाहते होंगे कि हमारे पुरखे हमसे कम या कमजोर मुसलमान थे और मूर्तियां ध्वस्त करके हम उनसे आगे आगे जा रहे हैं. और जब तक हम इस बात को नहीं समझेंगे, तब तक यह बात समझ में नहीं आएगी कि शासक भाजपा के आधिकारिक प्रवक्ता भी क्यों मूर्तियां तोड़ने या अपमानित करने से पार्टी को अलग बताते हुए भी दन से लेनिन की मूर्ति लगाने पर सवाल करना नहीं भूलते जो एक तरह से इन घटनाओं का समर्थन ही लगने लगता है. दरअसल, यह भाजपा की रणनीति हो सकती है या अपने कोर-सपोर्टरों को अप्रत्यक्ष समर्थन भी. पर मूर्तियां लगाना मानव इतिहास और स्वभाव में कोई नई चीज नहीं है. मूर्ति पूजा का घोर विरोध करने वाले दर्शन भी किसी-न-किसी रूप में इसे चलाते है-आदमी की मूरत न सही चांद-तारा और फूल-पत्ती के प्रतीकात्मक संकेतों और कलाकृतियों से अपने दर्शन-इतिहास और संस्कृति को याद करते हैं. उस रूप में मूर्तियां किसी विचार को, सोच और दर्शन को किसी के महान कामों को याद दिलाते रहने और ध्यान खींचने और बनाए रखने का आसान साधन हैं.
ऊंची बौद्धिक पहुंच वाले को भले मूर्तियों की जरूरत न लगे पर आम लोगों को यह सरल और आसान लगता है. और वे जिसे अपना आदर्श मानते हैं, जिनके काम, सोच और व्यवहार से प्रेरणा पाते हैं, उसकी मूर्ति लगाते हैं. और कोई एक दर्शन, एक व्यक्ति, एक सोच सबके लिए अनुकूल न लगे, हर चीज का समाधान करता न लगे तो कई मूर्तियों की जरूरत भी लगती है. दुनिया में एक देव, एक ग्रंथ, एक जीवन शैली लाने के जनून से काम करने वाले जमात जरूर एक ही तरह की मूर्ति और जीवन शैली वाली चीजें लाने का आग्रह करते हैं, पर दुनिया का इतिहास बताता है कि यह नजरिया समाज के लिए लाभ से ज्यादा नुकसान देने वाला साबित हुआ है. पांच-पांच सौ की लड़ाई और करोड़ों लोगों की मौत से भी ये सवाल नहीं सुलझे हैं. दूसरी ओर भारत का समाज भी ऐसे सवालों पर लड़ा-भिड़ा है, पर हमारे यहां एकेरवादी नजरिया नहीं चल पाया है. इसका सबसे अच्छा प्रमाण हमारे मंदिर हैं, जो शायद ही कहीं किसी अकेले देवता का होगा. एक देव प्रमुख होते हैं तो अक्सर बाकी देवता भी वहां बिराजते हैं. इसलिए हमारे यहां जब एक नजरिये के लोगों द्वारा किसी और के आदरणीय या पूजनीय पुरुष या देवता की मूर्ति का अपमान होने लगे तो यह ज्यादा चिंता की बात है. और इससे भी ज्यादा शर्म की बात है कि यह काम वे लोग कर रहे हैं, जो खुद को भारतीयता का सबसे बड़ा दावेदार मानते हैं. आपको पेरियार और अम्बेडकर से या लेनिन और मार्क्स से दिक्कत हो सकती है, लेकिन उस दिक्कत से बड़ा सवाल यह है कि अम्बेडकर और पेरियार को आपके समाज और उसके चलन के खिलाफ क्यों भिड़ना पड़ा. मार्क्स और लेनिन को क्यों आदर देने की जरूरत है?
क्या उनका संघर्ष हमारे लिए किसी काम का नहीं है? आपका मूल्यांकन किसी एक लिए कम-ज्यादा का हो सकता है मगर यह आपको मूर्तियां गिराने तक जाने की, किसी का दफ्तर तोड़ने और कब्जा करने की इजाजत नहीं देता. मार्क्स के दर्शन के अनुरूप काम करने वाले लेनिन को अगर किसी के खेत और कारखाने कब्जा करके गरीबों के हित में लगाने के मामले में भी चूक हुई या स्टालिन उसे बिगाड़कर कहीं और ले गया तो आप तो सिर्फ हुड़दंग करने लगे हैं. इससे तो आप विशुद्ध गुंडागर्दी ही करेंगे. मूर्तियां कायदे से तो किसी की नहीं होनी चाहिए. वे चिड़ियों के बीट करने या अनुयायियों द्वारा सब काम छोड़कर रखवाली करने के लिए ही होती हैं.
समय खुद ही कई मूर्तियों और उनके पीछे के विचारों पर बीट कराने लगता है. जिन लोगों की बात में दम हो-मार्क्स, लेनिन, अम्बेडकर या पेरियार उनकी मूर्तियां लगवाने वाले भी आ ही जाते हैं. हजारों साल इतिहास की परतों में दबे रहने वाले लोग और विचार भी मूर्तियों वाले दौर में आते हैं. और जब मूर्तियां लगवाने वाली जमात और मूर्तियां तोड़ने वाली जमात के ज्यादातर लोग उस महापुरु ष के नाम, काम और विचारों से ही अंजान हो गए हों तो उन मूरतों के रहने या न रहने का कोई मतलब नहीं रह जाता.
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