महिला दिवस : औरतें सचमुच अजीब हैं

Last Updated 08 Mar 2018 02:12:32 AM IST

डॉक्टर ज्योत्सना मिश्रा की पॉपुलर कविता है-‘औरतें अजीब होती हैं. पॉपुलर से ज्यादा, यह वायरल कविता है, जो सोशल साइट्स में बहुत घूमी. यह कविता भर नहीं.


महिला दिवस : औरतें सचमुच अजीब हैं

विचार है. स्त्री का स्त्री के प्रति. इसे फैलाने वालों ने कवित्री का नाम गायब कर दिया और गुलजार का नाम थोप दिया. कविता की गहन समझ ना रखने वालों को गालिब और गुलजार का ही नाम रटा है. वे जहां-तहां चिपका कर इसी तरह का बचकानापन करते फिरते हैं. खैर, बात यहां औरतों के अजीब होने पर चल रही है. ज्योत्सना लिखती हैं-रात भर सोती नहीं, थोड़ा-थोड़ा जगती हैं..टिफिन में रोज रखती हैं, नयी कविताएं, गमलों में रोज बो देती हैं आशाएं...
ये बेहद गहरी बातें हैं. ज्योत्सना कवि नहीं हैं. ऐसा वे स्वीकारती हैं. वे डॉक्टर हैं, स्त्री रोग विशेषज्ञ. स्त्री तो वे स्वयं हैं ही. स्त्री की पीड़ा को इस समाज में समझना भी विशेषज्ञता से कम नहीं. यह लंबी कविता है, जिसमें औरतों की तमाम बातें, उनके मनोविज्ञान को तफ्तीश में रचा गया है. औरतों को अजीब कहने वालों की कमी नहीं है. यहां तक की स्त्री स्वयं भी स्वीकारती है, कि वह अजीब है. उसके लिए अपने सपनों से बेशकीमती होते हैं, बच्चों  के गीले पोतड़ों को समेटना. संबंधों को संभालना. परिवार की खटर-पटर के बीच लाली-आलता लगाकर चहकना. दिन की थकन को रात में चादर की सिलवटों को मिटाने के साथ ही झाड़ देना. तमाम यादों को संजों के रखना. वे हमेशा ऐसी ही रहती हैं. उन साड़ियों की तहें, जिन्हें अब पहनते झिझक लगती है. उनकी अलमारियों में मौजूद रहती हैं. कान की बालियां, झुमके, हार, जिन्हें मां ने जतन से बनवाया था.

जरी वाले दुपट्टे, जिन्हें मीना कुमारी व रेखा की किसी फिल्म से कॉपी किया था. जरी खरीदने के लिए किन-किन गलियों में भटकी थी. वे गरमी की सूखी दुपहरी. चलते-चलते चप्पल की बद्धी उखड़ जाना. पांव को खींचते हुए बस स्टॉप तक जाना. ऐसे लगता था मानो, सारा शहर हमें ही घूर रहा है. बक्सों में सलीके से रखे, छोटू के झबले, नन्हा सा तकिया. मां का प्यार और बाबूजी की उपहार में दी गई वह एचएमटी घड़ी. उनकी यादों का पुलिन्दा रह जाती हैं. मायके से मिली हर चीज, उनके लिए उपहार ना होकर यादों का सिलसिला हो जाती है. मां की साड़ियों की हर तह में यादों की परतें जीतीं हैं. जिनको पलटते ही, आंखें नम हो जाती हैं. स्त्री ही है, जिसका एक फन्दा भी उधड़ जाए तो दिल धक्क से रह जाता है. उक्त कविता की पंक्ति है, कभी कोई ख्वाब पूरा नहीं देखतीं, बीच में ही छोड़ कर देखने लगती हैं चूल्हे पे चढ़ा दूध... स्त्री का संसार कभी मुकम्मल नहीं होता. फिर भी, वह अपने सपनों के टूटने पर स्यापे नहीं करती. किरचों को जमा कर नया कोलॉज बना लेती है. पलकें झुका कर आंसुओं को छिपा लेती है. जब वह चुप होती है, तब भी चुप नहीं होती. जब ठहाका मार कर हंस रही होती है, तब भी ससुर की दवाओं के आने का इंतजार कर रही होती है. स्त्री कभी भी कुछ छोड़ क्यों नहीं पाती? ना मायका. ना मां-बाप. ना भाई-बहनों का प्यार. उसके सपनों में पीहर का आंगन और गलियां आती रहती हैं. बचपन के साथी ब्याह के बाद कभी मिल नहीं पाते. पर उनकी झलक नहीं भूलती वह. कॉलेज के रास्ते आने वाला छोटा मंदिर और उसकी आड़ में बरसों खड़ा वह घनी मूंछों वाला नौजवान. अब भी गरदन मोड़ कर तेज निगाह से खोजती है. दसवीं में सहेलियों के साथ खिंचवाई कोई फोटू. दादी या नानी की कटी-फटी फोटुएं. मां की दीं पाजेब. बच्चों की स्क्रैप बुक. उनको दूसरी-चौथी या छठवीं में मिले मैडल. धूल पड़ी ट्राफियां. फुटपाथ पर जिद से फैलने पर बेमन लिये गए फुटबॉल या बास्केटबॉल. जिनकी हवा भी साथ छोड़ रही है. स्कूल ड्रेस या बदरंग हो रहा वह पहला कोट. हर चीज की पूरी कहानी है. आंखें नम कर देने वाली. स्त्री कितना कुछ संभाल कर रखती है. भीतर भी और सामान के रूप में भी. पुरानी तस्वीरें उनके लिए सिर्फ यादें नहीं होतीं. पूरी कहानी हुआ करती हैं.
उन्हें कितनी भी बार सुना जा सकता है. थकान से चूर हों, तब भी रात के खाने को लेकर चिन्तित रहती हैं. बरसात की बूंदें उन्हें मतवाला नहीं बनाती. ना ही उनके भीतर का प्रेम कुलांचे मारने लगता है. सबसे पहले वे सूखे हुए कपड़ों को अलगनी से उतारने के लिए दौड़ती हैं. अचार का मर्तबान बारिश से बचाने के लिए छत तक दौड़ी चली जाती हैं. व्रतों और त्योहारों पर तरह-तरह के पकवान बना कर खुश हो लेती हैं. उनका कोई घर नहीं होता, पर उनके बिना भी घर नहीं होता. वास्तव में औरतें, इतनी अजीब ना होतीं तो ये परिवार, ये समाज यूं ना चल रहे होते. ये औरतें ही हैं, जो वाकई अजीब होती हैं. पर अपने अजीब होने पर भी इतरा लेती हैं. औरतें अजीब ही, अच्छी हैं.

मनीषा


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