सेना : उचित नहीं मुकदमा

Last Updated 05 Feb 2018 04:24:55 AM IST

यह खबर निश्चय ही हर भारतवासी को चिंतित करेगी कि जम्मू-कश्मीर पुलिस ने वहां कार्रवाई कर रहे सेना के जवानों पर मुकदमा दर्ज किया है.


सेना : उचित नहीं मुकदमा

जिनके खिलाफ मुकदमा दर्ज हुआ है वे जवान 10 गढ़वाल यूनिट के हैं और इनमें एक मेजर स्तर का अधिकारी भी शामिल है. मुकदमा 302 यानी हत्या और 307 यानी हत्या के प्रयास के तथा 336 यानी जिंदगी को खतरे में डालने वाले के तहत दर्ज हुआ है. पिछले काफी समय से जम्मू-कश्मीर पुलिस, सेना, केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल और सीमा सुरक्षा बल के बीच गजब किस्म का समन्वय देखा जा रहा था.
कश्मीर में शांति की कामना करने वाले हर व्यक्ति की चाहत है कि यह समन्वय बना रहे और राज्य के अंदर के आतंकवादी और सीमा पार से आतंकवाद को प्रायोजित करने वाले परास्त हों. आपसी समन्वय के कारण ही 2017 में सुरक्षा बलों को बड़ी कामयाबी मिली और 200 से ज्यादा आतंकवादी मारे गए. कई युवा आतंकवादी बनने के बाद आम जिंदगी में लौटे हैं. इस एक घटना ने समन्वय की स्थिति पर गहरा प्रश्नचिह्न खड़ा कर दिया है. यह प्रश्न उठने लगा है कि सुरक्षा एजेंसियां आपसी तालमेल से जो ‘ऑपरेशन ऑलआउट’ चला रहीं हैं उनका क्या होगा? क्या पुलिस और सेना के बीच फिर से किसी प्रकार के टकराव के दौर की शुरुआत होगी और आतंकवादी एवं अलगाववादी इसका लाभ उठाएंगे? ऐसा होता है तो निश्चय ही जम्मू-कश्मीर के लिए यह दुर्भाग्यपूर्ण होगा. आखिर सेना के जवानों पर मुकदमा दर्ज की नौबत क्यों आई और क्या यह सही कदम है? आरोप लगाया गया है कि सेना की गोलीबारी में दो लोगों की मौत हो गई. इसके अनुसार सेना की कार्रवाई से कुछ और लोगों की मौत हो सकती थी लेकिन वे संयोग से बच गए. वैसे इस घटना की न्यायिक जांच के आदेश भी दे दिए गए हैं.

घटना शोपियां जिले के गावं गनोवपोरा का है. सेना का काफिला वहां से गुजर रहा था. दरअसल, काफिला बड़ा था जिसमें से पांच गाड़ियां पीछे छूट गई थीं. उस पर लोगों ने पत्थर फेंकने शुरू कर दिए. आरंभ में संख्या कम थी लेकिन धीरे-धीरे उनकी संख्या बढ़ने लगी. सेना की ओर से जवाबी कार्रवाई न देख वे पूरी तरह हमलावर हो गए थे. एक जवान को उन्होंने खींच लिया और उस पर हमला कर दिया. जो कुछ दृश्य दिख रहा है, उसमें साफ है कि सेना ने कार्रवाई न की होती तो पत्थरबाज उन्हें पीट-पीटकर मार डालते. अब सेना के पास दो ही विकल्प था; या तो अपने साथी को उन पत्थरबाजों के हाथों मरता छोड़कर भाग जाती या उसे बचाने के लिए कार्रवाई करती. इनके लिए भागना भी आसान नहीं था. कोई भी यह स्वीकार करेगा कि एक विकट स्थिति पैदा हो गई थी, जिसमें सेना को कार्रवाई करनी पड़ी. जो कोई भी सेना के जवानों को दोष देता है, उनसे पूछा जाना चाहिए कि उनकी जगह आप होते तो क्या करते? सेना के खिलाफ इनका गुस्सा किस कारण था? कुछ दिन पहले उसी गांव में एक आतंकवादी छिपा हुआ था, जिसे सेना ने मुठभेड़ में मार दिया था. अगर आतंकवादियों के पक्ष में किसी की हमदर्दी है और वह पत्थरों और डंडों से सेना के काफिले पर हमले के रूप में निकालेगा तो फिर उसका जवाब देना पड़ेगा.
मौत किसी का हो, दुख तो होगा. किंतु लोगों को सोचना चाहिए कि आप सेना पर हमला करने आएंगे तो जवाब में आपको फूल नहीं मिलेगा. दुर्भाग्य देखिए, प्रदेश की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती तक ने सेना की कार्रवाई की तीखी आलोचना कर दी. ऐसा ही आचरण उमर अब्दुल्ला का है. ऐसा भी नहीं है कि लोगों के हमले में सेना को क्षति नहीं पहुंची. हिंसक भीड़ के हमले में एक जेसीओ (जूनियर कमीशंड ऑफिसर) समेत सात सैन्यकर्मी घायल हो गए थे. अलगाववादियों को तो बहाना चाहिए. उन्होंने बंद का आह्वान कर दिया. किंतु महबूबा मुफ्ती प्रदेश की मुख्यमंत्री हैं. क्या उन्हें नहीं पता कि 2017 में आतंकवादियों से जूझते हुए 88 जवान शहीद हुए हैं? इस वर्ष ही 4 जवान लड़ते शहीद हो चुके हैं और तीन बर्फबारी में. सेना के जवानों के बलिदान को कोई भूल सकता है क्या? महबूबा मुफ्ती और उनकी पार्टी पीडीपी सरकार में होते हुए भी प्रदेश से सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून यानी अफस्पा हटाने की पक्षधर हैं. नेशनल कॉन्फ्रेंस भी इसकी मांग कर रही है. ये पार्टयिां चाहती हैं कि ऐसे आधार बन जाए, जिनसे वे केंद्र पर इसके लिए दबाव बना सकें. हम यहां अफस्पा के बहस में नहीं पड़ना चाहते. मगर हाल में ऐसी खबर आई है, जिसमें कहा गया कि सरकार अफस्पा को थोड़ा सरल और नरम बनाने पर विचार कर रही है.
सेनाध्यक्ष जनरल बिपिन रावत ने इससे इनकार किया है. हमें यह समझना होगा कि सुरक्षा बलों को आतंकवाद के खिलाफ संघर्ष के स्थलों पर कठिनाई में काम करना पड़ता है. बाहर रहकर सेना की आलोचना करना आसान है, लेकिन उनकी जगह स्वयं को रखकर विचार करिए तो सब कुछ आसानी से समझ में आ जाता है. सेना के जवानों के जो बयान हम टीवी पर देखते हैं, उसमें वे कहते हैं कि हम एक भी आम आदमी को नुकसान नहीं पहुंचाना चाहते लेकिन कई बार जब बिल्कुल जान पर बन आती है तो बल प्रयोग करना पड़ता है. आज सेना की कार्रवाई का ही प्रतिफल है कि घाटी में पत्थरबाजी में भारी कमी आई है.
जम्मू-कश्मीर के पुलिस महानिदेशक ने सेना की प्रशंसा करते हुए कुछ दिनों पहले कहा था कि 2017 में पत्थरबाजी में 90 प्रतिशत की कमी आई, उसमें सेना के ‘ऑलआउट ऑपरेशन’ और एनआइए द्वारा आतंकी फंडिग के मामले में अलगाववादियों के खिलाफ हुई कार्रवाई की भूमिका है. उन्होंने साफ कहा था कि बड़े आतंकवादियों के मारे जाने से पत्थरबाजी में कमी आई है. अगर प्रदेश के पुलिस महानिदेशक ऐसी धारणा रखते हैं तो वे सेना के किसी टुकड़ी के खिलाफ आसानी से मुकदमा दर्ज करने के लिए तैयार नहीं होंगे. निश्चय ही इसके पीछे राजनीतिक दबाव होगा. यह दबाव किसका हो सकता है बताने की आवश्यकता नहीं? किंतु देश ऐसे मुकदमे के पक्ष में नहीं हो सकता. इस तरह सेना के जवानों के खिलाफ मुदकमे होंगे तो फिर ‘ऑपरेशन ऑलआउट’ में आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई जो अब निर्णायक मोड़ पर पहुंच रही है, उसमें बाधा हो जाएगी. यह उनका मनोबल तोड़ने का काम करेगा. ऐसा हर हाल में नहीं होना चाहिए.

अवधेश कुमार


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