अदालतें : सांस्कृतिक संघर्ष के केंद्र
अदालतों का चरित्र तेजी से बदलता दिखाई दे रहा है. इसे कई तरह से महसूस किया जा रहा है. यहां उन पहलूओं की चर्चा की जा रही है, जो अदालतों के भीतर पेशेवराना समूह के साथ घटित हो रहे हैं.
अदालतें : सांस्कृतिक संघर्ष के केंद्र |
पचास वर्ष के एक वकील ने बताया कि भारतीय अदालतों में कॉन्वेंट यानी अभिजात्य वर्ग की संस्कृति को पोख्ता करने वाले स्कूलों से पढ़-लिखकर आने वाले लोग न्यायाधीश के पद पर बड़ी तादाद में पहुंच रहे हैं.
स्कूल को बच्चों को तैयार करने का कारखाना कहा जाता है. बच्चों को जैसे ढालना चाहें उस प्रयास का असर उन बच्चों पर रहता है. स्कूल और परिवार, दोनों की जोड़ी बैठ जाए तो बच्चे को एक खास ढांचे में पोख्ता किया जा सकता है. कॉन्वेंट खास तरह की आर्थिक सामाजिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के अंग्रेजीभाषी बच्चों को तैयार करते हैं. किसी ने बिहारी, मद्रासी, गुजराती या पंजाबी लहजे में अंग्रेजी बोली तो वहां इस बात को लेकर मजाक उड़ाया जाता है. इस तरह कॉन्वेंट और सरकारी स्कूल की पृष्ठभूमि का एक टकराव अदालतों में दिख रहा है. जो वकील सरकारी स्कूलों से पढ़-लिखकर आए हैं, वे भाषा को सांस्कृतिक वर्चस्व के औजार के रूप में इस्तेमाल करने के हुनर के साथ नहीं आए हैं. वकील बता रहे थे कि न्यायिक पदों पर नये तरह के जो लोग आ रहे हैं, वे वकीलों को अंग्रेजी भाषा नहीं आने पर झाड़ पिलाते हैं. भारतीय अदालतें इस समय सांस्कृतिक आग्रहों के लिए चर्चा में आ रही हैं. पहले मी लॉर्ड कहने की संस्कृति के खिलाफ संघर्ष की घटनाएं सुनने को मिलती थीं. यह ब्रिटिश सत्ता विरोधी आंदोलन से निकली संस्कृति की पक्षधरता के लिए होता था. इस संघर्ष के आयाम अब बदल गए हैं. कौन किस तरह की भाषा का इस्तेमाल करे, किस तरह अदालतों में आने वालों को व्यवहार करना चाहिए और किस तरह बातें करनी चाहिए.
मुबंई उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश पद से सेवानिवृत्त होने वाली मंजुला चेल्लुर ने बताया कि वे कैसे सांस्कृतिक प्रतिनिधियों को पसंद करती हैं. उनका जोर हमेशा अदालतों में आने के लिए खास तरह के रंगों और खास तरह के कपड़े पहनने पर रहा है. वे अदालतों को मंदिर मानती हैं. लिहाजा वहां खास तरह के रंगों और पहनावे पर जोर देती हैं. वे भदल्रोक वाले कोलकाता में पली-बढ़ी हैं. अपने उन्नतीस वर्ष के अनुभव के बारे में बताती हैं कि उन्होंने अपने साथ के कर्मचारियों को जींस नहीं पहनकर आने को कहा था. कहती हैं कि अदालतों में काम करने वालों और यहां आने जाने वालों के लिए पहनावे की मर्यादा होनी चाहिए. उनका यह पूरा सांस्कृतिक दृष्टिकोण 21 दिसम्बर, 2017 के द इंडियन एक्सप्रेस में पहले पेज पर छपा है. उनका बयान अदालतों में चलने वाले सांस्कृतिक संघर्ष के सतह पर आने वाले कुछेक उदाहरणों में गिनाया जा सकता है.
भारतीय अदालतों के सांस्कृतिक संघर्ष बेहद सपाट नहीं है, बल्कि उन्हें एक तरफ अभिजात्य और ब्राह्मणवादी संस्कृति के बीच के संघर्ष के रूप में देखा जा सकता है, तो दूसरी तरफ अभिजात्य-ब्राह्मणवादी संस्कृति और विविधता के संघर्ष के रूप में. कई सतहें दिखती हैं. न्यायाधीश मंजुला चेल्लुर के बयान के अनुसार उनके सांस्कृतिक निर्माण में जो अंतर्विरोध दिखता है, उसका विश्लेषण किया जा सकता है. एक भारतीय ढांचे की सामाजिक-सांस्कृतिक निर्मिंति और दूसरा पश्चिमी असर के साथ घुला-मिला अभिजात्यपन खास तरह के भारतीय को निर्मिंत करता है. पहले धोती कुर्ते पर टाई पहन कर भारतीय तैयार हुए थे. यह मंदिर की पवित्रता पर विशेष जोर देता है लेकिन इसके लिए ड्रेस कोड की अनिवार्यता बताता है. भारतीय समाज में हमने महसूस किया है कि भारतीय विविधता को नाकारने के ब्राह्मणवादी संस्कृति के अपने लिए कुछ रूप हैं, तो अभिजात्य वर्ग के लिए अपने कुछ रूप. एक के नकार का जोर सामाजिक स्तर के रूपों पर होता है, तो दूसरे का स्तर भाषायी और देखने-सुनने के स्तर पर. ये एक जगह पहुंच कर एक जैसे दिखने लगते हैं. विविधता को अपने अनुकूल तैयार करने की संस्कृति वास्तव में वर्चस्ववादी संस्कृति होती है. स्वाभाविक विविधता की स्वीकार्यता की संस्कृति ही वास्तविक लोकतांत्रिक विचारधारा होती है.
इन संघर्ष का एक उदाहरण सबसे बड़ी अदालत में भी देखने को मिला. सबसे बड़ी अदालत के सबसे बड़े न्यायाधीश के बारे में ये खबरें प्रकाशित हुई कि उन्होंने अदालतों में ऊंची आवाज में बात नहीं करने की चेतवानी दी है. उन वकीलों को जो अपने मुकदमों को अपनी चिंताओं की ताकत से लड़ते हैं. दो तरह के वकील होते हैं. एक जो किसी मुकदमे को मुकदमे की तरह लड़ते हैं यानी उनमें एक साथ एक ही मामले में पक्ष और विपक्ष का वकील बनने का हुनर होता है. दूसरे वे होते हैं जो अदालतों को समाज के भीतर विभिन्न स्तर पर चल रहे संघर्ष, समाज की अपेक्षाओं, समाज में उनकी तकलीफों, जो कहीं सुनी जा रही हैं, को अदालतों के सामने लाने वाले होते हैं. दूसरी तरह के वकीलों की भाषा में अदालती मर्यादा होती है लेकिन उन्हें यह पता नहीं था कि स्वर की मात्रा भी मर्यादा के दायरे में आती है.
गांव-घरों में ऊंचे पदों पर विराजमान लोग अक्सर ऊंची आवाज में बात करने से बाज आने की चेतावनी देते हैं. पिता बेटे से कहते हैं, तो सास बहु से कहती है. सामाजिक रूप से बड़ी कहलाने वाली जाति के लोग नीची कहलाने वाली जाति के लोगों से कहते हैं. मालिक नौकर से कहता है कि ऊंची आवाज में बात नहीं करे. कभी बेटा पिता से, वहू सास से, नौकर मालिक से नहीं कहता है कि ऊंची आवाज में बात नहीं करें. स्पष्ट है कि ऊंची आवाज में बात नहीं करने की चेतावनी देना केवल ऊंचे पदों का सांस्कृतिक औजार है.
भारतीय अदालतें संविधान के तहत बनी हैं, जहां समाज में विभिन्न स्तरों पर समानता हासिल करने का लक्ष्य निर्धारित है. वहां एक समानता है. वकील जज बन सकता है, और जज नौकरी छोड़कर वकालत कर सकता है. न्याय की तलाश करने वाला एक ढांचे का सदस्य है. यदि वहां ऊंची आवाज में बात नहीं करने की चेतवानी आती है, तो इसका अर्थ है कि अदालतें बदल रही हैं. वहां का सांस्कृतिक संघर्ष उल्टी तरफ मुड़ रहा है.
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