मुद्दा : खतरनाक कौन, कोहरा या हम!

Last Updated 09 Jan 2018 01:07:03 AM IST

प्राकृतिक रूप से पैदा होने वाला कुहासा, कोहरा या धुंध एक सामान्य घटना है. सर्दियों में कोहरा कम से कम उत्तर भारत में तो लौटता ही है.


मुद्दा : खतरनाक कौन, कोहरा या हम!

सड़कों, रेलों, हवाई जहाजों के संचालन पर गहरा असर भी डालता है. यात्रा में देरी का कारण बनता है और दुर्घटनाएं हो जाएं तो इंसानी जान भी लेता है. समस्या कोहरे का लौटना नहीं है, समस्या है इससे निपटने में हमारी नाकामी. वह भी तब जबकि विज्ञान इसके असर को कम करने की कई तकनीकें और उपाय सुझा चुका है.
वैसे तो सर्दियों में जब तापमान गिरता है और माहौल में पर्याप्त नमी होती है, तो यहां-वहां फिरती हवाएं पानी की बूंदों को संघनित करके हवा के कणों पर सवार करा देती हैं, और इस तरह कोहरा बन जाता है. पर बड़ी समस्या यह है कि मानवजनित कारक कोहरे को संहारक बना देते हैं. खेतों में जलाए जाने वाले कृषि कचरे और शहरों में वाहनों की अंधाधुंध रेलमपेल से जो स्मॉग पैदा होता है, वह कोहरा की विनाशक ताकत को बढ़ा देता है. दिल्ली जैसे महानगरों में सड़कों पर रोजाना दौड़ने वाली लाखों कारें हजारों टन जहरीली गैसें और धुआं वातावरण में छोड़ती हैं. इसमें मौसमी बदलाव भी अपने योगदान से एक कॉकटेल बना देते हैं. कई विकसित मुल्कों ने दिखाया है कि विज्ञान की मदद से वे कोहरे से जीत सकते हैं. कोहरा उनकी सामान्य गतिविधियों में अड़चन की तरह आता जरूर है, और रफ्तार पर कुछ अंकुश जरूर लगाता है, पर उनकी जिंदगी का पहिया थमता नहीं है. कोहरे में भी यातायात सामान्य रूप से जारी रह सकता है, बशर्ते इस संबंध में बने सिस्टम अपनाए जाएं और चालकों को माकूल ट्रेनिंग दी जाए. एक तरफ दावा किया जाता है कि भारतीय रेल हाईटेक हो रही है, तो फिर सवाल है कि आखिर, यह आधुनिक तकनीक किस काम आ रही है, जो न दुर्घटनाएं रोक पा रही है, और न कोहरे के बीच ट्रेनों की चाल को सामान्य रख पा रही है.

जब सरकार बुलेट ट्रेन का सपना देश को दिखा रही हो तो सवाल उठता है कि वह कैसी अत्याधुनिक टेक्नोलॉजी अपना रही है, जो कोहरे के सामने बेदम हो जाती है. कोहरे से जूझने के लिए यूरोप में अत्याधुनिक यूरोपियन ट्रेन कम्यूनिकेशन सिस्टम अपनाया जाता है. इसमें सैटेलाइट, ग्राउंड बेस्ड इन्स्टॉलेशन और कंप्यूटर की मदद से हर ट्रेन की स्थिति, हर ट्रैक, हर ट्रेन के मूवमेंट पर नजर रखी जाती है. इसके अलावा, विदेशों में चलती हुई ट्रेनों के सिग्नल की एक केंद्रीय लोकेशन सिस्टम से लगातार निगरानी की जाती है. यह सिस्टम सैटेलाइटों से संचालित होता है. अफसोस है कि भारतीय रेल ने इस सिस्टम को अब तक नहीं अपनाया है. कहने को तो भारत ने कई उपग्रह अंतरिक्ष में छोड़ दिए हैं, लेकिन रेलों का संचालन मॉनीटर करने की व्यवस्था नहीं बन पाई है, तो लानत की बात है. अभी भी हमारी ट्रेनें इस तरह चलती हैं कि जब एक स्टेशन से रवाना होती हैं, तो उन्हीं से सिग्नल दिया जाता है. अगले स्टेशन पर पहुंचने और पिछले स्टेशन को छोड़ते वक्त यह सिग्नल दिया जाता है. लेकिन रास्ते में यदि ट्रेन चालक कोहरे में दिखाई नहीं पड़ने के कारण देख नहीं पा रहा है, तो ट्रेन रोकने या बेहद धीमी करने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता. ऐसा नहीं करता है, तो दुर्घटना का जोखिम लेता है. चूंकि रेल महकमा दुर्घटना रोकने की प्राथमिकता के साथ चल रहा है, लिहाजा ट्रेनें देरी से चलती हैं.
कहने को तो भारतीय रेल यूरोपियन ट्रेन कम्यूनिकेशन सिस्टम लागू करने की योजना पर काम कर रही है, पर अभी प्रयोगात्मक चरण में है. इसके बजाय कुछ ट्रेनें फॉग-सेफ डिवाइस के इस्तेमाल से चलाई जा रही हैं, जो जीपीएस आधारित उपकरण है. लेकिन यह सुविधा भी कुछ ही ट्रेनों को मिली है. हवाई यातायात भी कोहरे के सामने इसी तरह चौपट होता रहता है. नागरिक उड्डयन मंत्रालय ने सभी एयरलाइंस को अरसे से निर्देश दे रखा है कि अपने पायलटों को कोहरे के वक्त विमान संचालन से संबंधित आधुनिक तकनीक की जरूरी ट्रेनिंग दें पर ट्रेनिंग के भारी खर्च के कारण ज्यादातर प्राइवेट एयरलाइंस कंपनियां इसमें कोताही करती हैं. हर साल पायलटों को दो लाख रु पये की फीस देकर इसका रिफ्रेशर कोर्स कराना भी जरूरी है. पायलटों को बेहद मोटी पगार दे रहीं एयरलाइंस कंपनियां एक तो इस तरह की ट्रेनिंग पर दो से आठ लाख रुपये का खर्च बर्दाश्त करने की स्थिति में नहीं हैं. दूसरे, ट्रेनिंग के दौरान पायलट उड़ान से अलग रहते हैं, जिससे किराया कम करने की होड़ में वे कंपनियां पिछड़ सकती हैं. हम जानते हैं कि संकल्प लिया जाए तो रेल, सड़क और हवाई यातायात के लिए कोहरा कोई समस्या नहीं है.

अभिषेक कुमार


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