गांव बचे तो बचेगा देश भी

Last Updated 25 Dec 2017 05:28:27 AM IST

महात्मा गांधी की 150 वीं जयंती को मनाने की तैयारी जोर-शोर पर है. लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि सन् 1947 में ‘हिन्द स्वराज्य’ के बाद बापू ने जन-जन के बीच आजादी का अहासस कराने के लिए देश के गांवों में ‘ग्राम स्वराज्य’ लाने का आह्वान किया था.




गांव बचे तो बचेगा देश भी.

उनका कहना था कि हिन्दुस्तान अंग्रेजों की गुलामी से आजाद हुआ है, अब आगे देश के लाखों गांव इतने स्वावलंबी बन जाए कि उन्हें बाहर का मुंह न ताकना पड़े. निश्चित ही यह बात योजनाकारों को कोरी लगती होगी, जिसके कारण 12वीं पंचवर्षीय योजना तक लाखों गांवों को शहरों में बदल दिया गया है. केवल इतना ही नहीं, विस्थापन जनित विकास के नाम पर हजारों गांव के नाम भी मानचित्र से गायब हो गए हैं.

पिछले कई वर्षो से रोजगार, शिक्षा और जन सुविधाओं की कमी के कारण भी गांवों से पलायन अधिक तादाद में हो रहा है. माना जाता है कि इसमें अधिकांश लोग अपने घरों में आना-जाना करते हैं. लेकिन इनमें बाल मजदूर और उन गरीबों की संख्या अधिक है, जो अपना घर चलाने के लिए नमक-तेल के खच्रे के लिए होटल, ढाबों और ठेलियां लगाकर काम करते हैं. बाकी 10-15 प्रतिशत लोग गांव छोड़कर जहां जाते हैं, वहीं अपना घर बनाकर रहने लगते हैं. इसमें भी उनकी संख्या अधिक है, जिन्हें अपने परिवार का जीवन चलाने के लिए पर्याप्त सुविधा मिल रही है, इस श्रेणी में नेता, नौकरशाह और व्यवसायी लोग अधिक हैं.

देश भर में इस समय लगभग 25 हजार गांव-शहरों का हिस्सा बन रहे हैं. अकेले उत्तराखण्ड जैसे छोटे राज्य में ही वर्ष 2017 के अंत तक 1000 गांव-शहरों व नगर निकायों में शामिल किए गए हैं, जबकि यहां पर ग्राम्य विकास और पलायन आयोग का गठन ही इसलिए किया गया है कि गांव से शहरों में हो रहे पलायन को रोका जाएगा. इसी राज्य में 2500 ऐसे गांव हैं, जहां सरकारी स्कूलों में पढ़ने के लिए बच्चे ही नहीं है. लोग नौकरी पेशा और असुविधाओं के कारण गांव छोड़कर शहरों में निवास करने लगे हैं.



यद्यपि बिजली और सड़क गांव में तेजी से पहुंच रही है, पाइपलाइनें भी हैं, लेकिन अधिकांश गांवों में पानी नहीं है. जिसके कारण नौकरीपेशा लोग वापस गांव में जाना पसंद नहीं करते हैं. उनकी बात जाने भी दें तो ‘गांव बचाओ’ का नारा देने वाले या उसका आह्वान करने वाले नेता भी गांव जाना पसंद नहीं करते. उन्होंने भी अपने घर शहरों में बना लिये हैं. जब तक वे अपने गांव में नहीं लौटते हैं, गांव कैसे बचेंगे. उत्तराखण्ड के नगर निकायों में शामिल हुए गांव के लोग भारी संख्या में सड़कों पर आकर विरोध कर रहे हैं. यहां लोगों की मांग है कि उनके गांव को स्वतंत्र ही रहने दिया जाए. वे गांव में उन सुविधाओं की मांग कर रहे हैं, जिसकी कमी के कारण लोग शहरों में पलायन करते हैं. यह शहरों में जमा हो रही आबादी को सचेत होने का समय भी है कि जब लोग गांव में ही रहना पसंद कर रहे हैं. 

नगरों का विस्तारीकरण करने के लिए गांवों का अधिग्रहण ऐसे वक्त में हो रहा है, जब नदियों में गंदगी पैदा करने के जिम्मेदार भी नगरीय सभ्यता है. जहां आए दिन सफाई कर्मचारियों के भरोसे पर ही गंदगी साफ होती है, जिसमें अब वे गांव भी शामिल होने लगे हैं, जो यदा-कदा महिला संगठनों एवं स्कूलों के द्वारा सफाई अभियान चलाते आ रहे थे वे अपने मवेशियों को स्वयं पालते हैं, उनके लिये घास-चारा लाते हैं. अब कुछ दिन में बेसहारा गायों के झुंड नगर में घूमने को मिल जाएंगे. यह नगरों के विस्तारीकरण का विरोध नहीं बल्कि एक चिंता है कि नगरीय व्यवस्था का जीता-जागता उदाहरण सबके सामने है. इसका समाधान किसी के पास नहीं, केवल गंदगी और कई समस्याओं का अंबार नगर निकाय दिनों-दिन बन रहे हैं, जिस पर विचार करने की आवश्यकता है.

खेती के विकास के प्रति सरकार की उदासीनता जाहिर है. गांवों के साथ भी यही बात है. इसका उदाहरण सन 2011 की जनगणना के आंकड़े हैं, जिसमें गांव की आबादी शहरों में जमा हो रही है. वर्तमान विकास मॉडल कहीं-न-कहीं शहरीकरण की बुनियाद पर खड़ा हो रहा है. इस दौड़ में सभी राज्यों के प्रस्ताव बताने के लिए काफी है कि वे शहरीकरण के नाम पर स्मार्ट सिटी का प्रस्ताव तो भेज रहे, लेकिन मौजूदा गांव को ग्राम स्वराज्य की बुनियाद पर खड़ा नहीं कर पा रहे हैं. आखिर गांधी को किस रूप में याद करेंगे,जबकि असली रामराज्य तो गांव से ही आना था. वह कहते भी थे कि भारत की आत्मा गांवों में बसती है. बापू के प्रति सही श्रद्धांजलि यही होगी कि गांवों को भी आबाद रखा जाए.

सुरेश भाई


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